संस्कृतिपरंपरा ‘शादी करूँ या न करूँ ये मेरी मर्जी है’

‘शादी करूँ या न करूँ ये मेरी मर्जी है’

हमारे समाज में हमेशा से महिलाओं के संदर्भ में ‘शादी’ को उनके जीवन का अहम हिस्सा बताया गया है और उनके समाजीकरण में इस बात का ख़ास ख्याल भी रखा जाता रहा है|

‘पति अच्छा है, कमाता है, मारता नहीं, पीता नहीं, प्यार करता है, रात को साथ सोता है, पत्नी के रिश्तेदारों का आदर करता है, पहनाता ओढ़ाता ढंग से है, घर टाइम पर लौट आता है, दोस्तों के सामने निरादर नहीं करता, तू तड़ाक नहीं करता, मेरे बनाये खाने की तारीफ़ के पुल बाँध देता है सबके सामने…..इतना सब कुछ….ओह मैं कितनी प्रिविलेज्ड हूं| यार कुछ भी कहो, किसी सक्सेसफुल इंसान के साथ शादी होने के बाद ही लाइफ रियल में सेट होती है| इसके बाद कोई टेंशन नहीं है| पर तुम अभी इन सब बातों को नहीं समझोगी| इसलिए तो कहती हूं कि तुम भी शादी कर लो!’

शादी के बाद माधवी से ये मेरी पहली मुलाक़ात थी| उसकी शादी को अभी दो साल हुए थे| जब मैंने उससे पूछा कि ‘और बताओ कैसी हो? कैसा चल रहा है सब?’ तो एक सांस में माधवी ने अपने पति का गुणगान करते हुए, शादी के महत्व को समझाकर मुझे भी शादी की सलाह दे डाली| उसकी ये बातें सुनकर मुझे दुःख हुआ कि उसकी इन बातों में खुद का कोई जिक्र नहीं था| उसकी बातों से ऐसा लग रहा था जैसे उसके पास अपना कुछ हो ही न बताने को|

माधवी उस समय मास्टर्स के फाइनल इयर में थी जब उसकी शादी तय हुई थी| पढ़ाई-लिखाई में अच्छी माधवी ने अपनी ज़िन्दगी के लिए कोई लक्ष्य निर्धारित नहीं किया था| करियर के बारे में बात करने पर वो हमेशा कहा करती – ‘यार देखा जायेगा| पहले डिग्री पूरी कर लूँ और वैसे भी पापा कह रहे थे कि इसके बाद शादी कर देंगे|’ माधवी का यह जवाब हमेशा मुझे इस बात पर सोचने के लिए मजबूर कर देता कि ‘पढ़ाई का फ़ैसला जब उसने खुद लिया तो पढ़ाई के आगे के भविष्य को पापा के डिसिजन पर क्यूँ छोड़ दिया है? तमाम मुद्दों पर विचार देने वाली माधवी क्या खुद के लिए कुछ भी सोचने-करने में असक्षम है?

शादी फिक्स होने के बाद वो बेहद खुश थी| उसकी जुबान पर हमेशा अपने होने वाले पति का गुणगान हुआ करता था| और वो अक्सर ये बात कहती कि मेरा तो पर्मानेंट प्लेसमेंट हो गया है| अब तुम लोग भी जल्दी से अपनी लाइफ सेट कर लो| जैसे उसके लिए शादी करना ही ‘लाइफ सेट’ करना हो|

बचपन से ही दी जाती ‘शादी’ वाली घुट्टी

हमारे समाज में हमेशा से महिलाओं के संदर्भ में ‘शादी’ को उनके जीवन का अहम हिस्सा बताया गया है और उनके समाजीकरण में इस बात का ख़ास ख्याल भी रखा जाता रहा है| अक्सर छोटी बच्चियां जब रोती है तो उन्हें यह कहकर चुप कराया जाता है कि ‘अभी सारे आंसू बहा लोगी तो विदाई में आंसू कैसे आयेंगे|’ मजाक में कही ये बातें बच्चों के मन में एक गहरी छाप छोड़ देती है और इसकी शुरुआत लड़कियां बचपन से ही अपने गुड्डे-गुड़ियों की शादी करवाने से कर देती है| बात चाहे सजने-संवरने की हो या किसी लड़की का घरेलू कामों में निपुण होने की हो, हमेशा इन गुणों को शादी से जोड़ दिया जाता है| यह किस्सा न केवल हमारे इतिहास का रहा है, बल्कि वर्तमान समय का भी है, जहां माधवी अकेली नहीं है| उसकी जैसी तमाम लड़कियाँ है जिनके लिए आज भी बचपन में दी गई ‘शादी’ वाली घुट्टी उनके लिए शादी को जीवन का अंतिम लक्ष्य बना देती है और किसी सक्सेसफुल आदमी से शादी हो जाने पर उन्हें अपने जीवन की सार्थकता नज़र आने लगती है|

यह दुखद है कि जब प्रशासनिक सेवा से लेकर राजनीति, अभिनय, लेखन, रक्षा और दुनिया के सभी क्षेत्रों में महिलाएं अपनी सफलता का परचम लहरा रही है| ऐसे दौर में कई महिलाएं ऐसी भी हैं जिन्हें उच्चतर शिक्षा के मेडल और डिग्री की तो चाहत है पर उनके जीवन का लक्ष्य शादी तक ही सिमटा हुआ है क्योंकि उनके समाजीकरण में ‘शादी’ के महत्व की बातों को एक घुट्टी की तरह उन्हें पिलाया जाता है और बड़ी होकर वे इसे आत्मसात कर जीने लगती है या यूँ कहें कि जीने को मजबूर कर दी जाती है|

‘शादी करूँ या न करूँ’ मेरी मर्जी

मैं शादी के खिलाफ़ नहीं हूं| मैं खिलाफ़ हूं शादी को अपनी ज़िन्दगी मानने से| खुद के लिए ज़रूरी मानने से| शादी, पति और परिवार को एक ऐसी दीवार बनाकर जीने से, जिसके अंदर आपका अपना अस्तित्व धूमिल होने लगे और आपकी पहचान सिर्फ बीवी, बहु, माँ, बेटी, चाची व मामी जैसे नामों तक सीमित हो जाए| साथ ही, पूरे दिन में आपका अपना कोई समय न हो| आपके पास खुद का कुछ बताने का न हो| शादी से पहले जीवन को लेकर आपके सपने आपकी एक अधूरी ख्वाइश बनकर रह जाए| यहां हमें इस बात को समझना होगा कि शादी हमारी ज़िन्दगी का एक हिस्सा है न कि पूरी ज़िन्दगी| शादी करनी है या नहीं ये आपकी मर्जी पर निर्भर होना चाहिए|

ध्यान रहे ‘शिक्षा व योग्यता न बने आपकी किस्सा का हिस्सा’

आपने भी कभी अपनी दादी-नानी व मम्मी-मौसी को यह कहते सुना होगा कि ‘मैं तो पढ़ाई में बहुत अच्छी थी| मेरी अच्छी जॉब भी हो गयी थी, लेकिन फिर शादी हो गयी तो मैंने सबकुछ छोड़ दिया|’ कहते हैं कि जब आप अपनी कद्र करते है तो दुनिया आपकी कद्र करती है| इसी तर्ज पर, खुद के सफल व्यक्तित्व निर्माण के बाद की गयी शादी में कभी भी आपकी शिक्षा व योग्यता आपके किस्सों का हिस्सा नहीं बनेगी| शादी का मतलब ये नहीं कि आप अपने करियर व रूचि का त्यागकर सिर्फ गृहस्थी तक सीमित हो जाए|

माना मुश्किल है पढ़े लिखे को समझाना पर कोशिश में कोई हर्ज़ नहीं

समय बदल रहा है| लोग बदल रहें है| उनकी सोच बदल रही है| लेकिन ‘शादी’ के संदर्भ ज्यादा कुछ नहीं बदला है| पहले लड़कियों की बचपन में शादी कर दी जाती थी| उन्हें ज्यादा पढ़ाया नहीं जाता था| लेकिन अब लड़कियों को पढ़ाया जाता है, फिर शादी के लिए कहा जाता है| उन्हें बचपन से सिखाया जाता है कि ‘तुम्हें दूसरे के घर जाना है| तुम पराया धन हो| तुम्हें किसी और के लिए तैयार होना है|’ माधवी के संदर्भ में यह बात बेहद सटीक लगती है| क्योंकि उसने समाज में लड़की होने और उसके सार्थक जीवन के लिए शादी को एकमात्र अहम तत्व तौर पर न केवल स्वीकार कर लिया था बल्कि वह इसे जीने भी लगी थी| आधुनिकता के इस दौर में अक्सर कहा जाता है कि अनपढ़ों से ज्यादा पढ़े-लिखों को समझाना मुश्किल है पर कोशिश करने में कोई हर्ज़ नहीं है| पर उन्हें समझाने से साथ-साथ खुद को भी समझना होगा कि ‘शादी’ जैसी समाजिक संस्था कभी हमारी मज़बूरी न बने|

लड़कियों, जी भरकर जियो ज़िन्दगी

बदलते समय के साथ अब शादी के मायने भी बदल रहे हैं| ये दौर अपने सपनों को उड़ान देने का है| ऐसे में शादी के नामपर खुद के सपनों को कुर्बान कर देना कहीं से भी आपको पतिव्रता नहीं बनाएगा, इस बात को अब समझना होगा| लड़कियों जमाने के लिए आप कितनी भी कुर्बान हो जाए, उँगलियाँ हमेशा आपके खिलाफ़ ही उठती रहेंगी| यह न केवल हमारा इतिहास रहा है, बल्कि यह हमारा वर्तमान भी है| इस बात को हमेशा याद रखें कि ये समाज कद्रदान हमेशा उसी शख्स का होता है जो खुद की कद्र करता है| न कि उसका जो दूसरों के लिए खुद को कुर्बान कर देता है| इसी संदेश के साथ आप पहले अपने व्यक्तित्व और सपनों की कद्र करें| और शादी को तभी स्वीकार करें जब ये आपकी मर्जी हो, न कि ज़िन्दगी के एकमात्र लक्ष्य के तौर पर (जैसा हमें बचपन से सिखाया जाता है)|

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