आकर्षक शरीर किसे अच्छा नहीं लगता| महिलाओं के संदर्भ में सुंदरता के लिए अक्सर कहा जाता है कि सुंदरता की परिभाषा ही, महिलाओं से है| फ़िल्मी गीतों से लेकर विज्ञापनों तक, कविता-शायरी से लेकर कलाकार की कलाकृतियों तक हर जगह ‘सुंदरता’ अपनी अलग-अलग परिभाषा लिए विराजमान है| सदियों से लेकर आजतक स्त्री-सुंदरता का बोलबाला रहा है, जिसे कायम रखने में फ़िल्मी गीतों ने भी अहम भूमिका अदा की है| बात चाहे, साल 1975 में आई फिल्म ‘धर्मात्मा’ के गाने ‘क्या खूब लगती हो, बड़ी सुंदर दिखती हो!’ की जाए या फिर 2016 में आई फिल्म ‘ओके जानू’ के गाने ‘इन्ना सोना क्यूँ, रब ने बनाया…!’ की, इन सभी के केंद्र में बैठी सुंदरता का राज निरंतर कायम है|
सुंदरता किस कदर हम सभी के जीवन का अहम हिस्सा बन चुकी है, इसका अंदाज़ा आप अपने महीनेभर में अच्छी-गोरी-चमकदार त्वचा पाने या फिर स्लिम बॉडी जैसे सुंदर शरीर पाने के नाम पर होने वाले तमाम खर्च से लगा सकते है| वजह चाहे जो भी हो पर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि आज के समय में ‘सुंदरता’ सभी के जीवनशैली का अभिन्न हिस्सा बन चुकी है और महिलाओं के संदर्भ में तो इसकी जंजीरें उनके अस्तित्व को बुरी जकड़े हुए है| अब सवाल यह है कि हर बार सुंदर दिखने में क्यों आपको कुछ कमी महसूस होती है..? कहीं वाकई इसमें कोई साजिश तो नहीं – आइये जाने इसका जवाब सुंदरता की राजनीति के ज़रिए|
‘कुछ और ट्राई करते है!’
सुंदर स्त्रियों को अपनी शक्ति का एहसास बराबर रहा है| पर अब हम एक ऐसे युग में रह रहे हैं जब सुंदरता के हथियार का इस्तेमाल स्त्रियों के खिलाफ़ किया जा रहा है| उन्हें बताया जा रहा है कि सुंदरता वह नहीं है जो उनके पास है| सुंदरता का एक ख़ास मानदंड होता है और जो स्त्री इस मानदंड पर खरी नहीं उतरती, वह स्त्री नहीं है| उसका जीना बेकार है| सुंदरता का यह मानदंड स्त्रियों ने नहीं, पुरुषों ने तैयार किया है, क्योंकि अब भी वास्तविक सत्ता उन्हीं के पास है| और स्त्रियाँ हैं कि मानदंड पर सही उतरने के लिए मरी जा रही हैं| यही सुंदरता की राजनीति है|
सुंदरता की इस राजनीति ने आधुनिक स्त्रियों के जीवन में खलबली मचा दी है| सुंदर होना उनके लिए काफी नहीं रह गया है| उन्हें इस तरह से सुंदर होना चाहिए जिस तरह फिल्म तारिकाएँ सुंदर होती हैं| यानी कमर माप इतना हो| वक्ष इतने उभरे हुए| वजन इतने से ज्यादा नहीं हो| वगैरह-वगैरह| मानो मानव शरीर अपने आपमें सहज, स्वाभाविक और सुंदर नहीं होता| उसे औद्योगिक उत्पादन की तरह एक ख़ास तरह के सांचे में ढलना होगा| ऐसा सांचा, जो स्त्रियों से करीब असंभव मांग करता है| यही औद्योगिक सभ्यता का नया सौंदर्यशास्त्र है| आधुनिक जीवन में स्वस्थ स्त्री का स्थान ‘स्लिम’ स्त्री ने ले लिया लिया है| आजकल सुंदर स्त्री वह मानी जाती है, जिसने चर्बी से विद्रोह कर दिया है| स्वाभाविक है कि जहां एक ख़ास तरह की देहयष्टि का सिक्का चल रहा हो, वहां ज्यादातर स्त्रियाँ अपने शरीर से असंतुष्ट रहें और अपनी काया को लेकर – ‘कुछ और ट्राई करते है’….जैसी बातें उनका तकियाकलाम बनती जाए|
सुंदरता का नियम ‘ज़रा सज-धज के’
सुंदरता का एक नियम हैं कि योग्यता की तरह उसमें भी प्रतिद्वंदिता चलती रहती है| हर स्त्री यह कोशिश करती है कि वह उससे ज्यादा सुंदर दिखे जितनी वह वास्तव में है| इसका मुख्य कारण यह है कि सुंदरता सिर्फ शरीर की संरचना में नहीं होती, बल्कि उसकी साज-सज्जा और प्रस्तुतिकरण में भी होती है|
‘मैं तुमसे ज्यादा सुंदर हूं’ – जंग-ए-हुस्न
सुंदर होने या दिखने की यह प्रतिद्वंदिता अपने आपसे होती है – शमशेर बहादुर सिंह के शब्दों में, काल तुमसे होड़ है मेरी – तो इसका कारण यह है कि प्रतिद्वंदिता समाज में भी चलती रहती है| इस मायने में हर युवा स्त्री दूसरी युवा स्त्री की प्रतिद्वंदी होती है| वे अपने शरीर के हर अंग को समाज से स्वीकृत सुंदरता के मापदंड़ो में ढालकर एक-दूसरे से इस बात पर मुकाबला करती है कि ‘मैं तुमसे ज्यादा सुंदर हूं|’
‘चंदन-सा बदन, झील-सी आँखें’ – कहकर होती रही आज़ाद स्त्री को ‘वस्तु’ में बदलने की साज़िश
वस्तुतः स्त्री की देह शुरू से ही राजनीति का शिकार होती रही है| धर्म और समाज उसी पर अपने अध्याय पर अध्याय लिखते आये हैं| इस दृष्टि से आधुनिक युग को स्त्री की मुक्ति का समय कहा जा सकता है| आज स्त्री जितनी स्वतंत्र है, उतनी स्वतंत्र वह इतिहास में कभी नहीं थी| लेकिन उसकी इस स्वतंत्रता का लाभ उठाकर व्यावसायिक संस्थान उसे फिर से वस्तु के रूप में बदलने का प्रयास कर रहे हैं| सौंदर्य प्रतियोगिता इसी विराट तंत्र का एक महत्वपूर्ण उपकरण है|
‘फूलों-सा चेहरा तेरा!’ – कहकर किया चापलूसी का इस्तेमाल, जब हो गए दूसरे हथियार बेकार
सुंदरता को लेकर औरतों की चापलूसी और उन्हें गुलाम बनाने की इच्छा, दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं| जब तक औरत हमारे वश में नहीं आती, तब तक उसकी असीमित चापलूसी और जब वह हमें स्वीकार कर लेती है, तब उस पर हुक्म चलाना – यह प्रक्रिया उतनी ही पुरानी है, जितना वन्य अवस्था को त्यागकर सुव्यवस्थित और सभ्य ढंग से जीने का हमारा इतिहास| चापलूसी का इस्तेमाल तभी किया जाता है जब दूसरे हथियार बेकार हो जाते हैं|
सुंदरता अपनी जगह एक सच्चाई है, लेकिन उसकी ओर तारीफ भरी निगाहों से देखना एक बात है और उसे ही स्त्री के मूल्यांकन की एकमात्र कसौटी बना लेना बिल्कुल दूसरी बात| चूँकि आमतौर पर औरत की स्थिति परजीवी और पराश्रित की रही है, इसलिए वह अपने अवचेतन में हमेशा उन्हीं मूल्यों से परिचालित होती रही है, जो पुरुष ने उसके लिए निर्धारित किये हैं| इसी का नतीज़ा है वह सुंदरता को ही अपनी पहचान के रूप में देखने की अभ्यस्त हो चुकी है| यह उसे व्यक्ति से वस्तु बना देता है| और चूँकि वस्तुएं एक सीमा तक ही आदमी को आकर्षित कर सकती हैं, उसके बाद ऊब पैदा करने लगती हैं, इसलिए औरतें अपने मर्दों की ज़िन्दगी में एक बहुत ही तुच्छ स्थान की अधिकारिणी रही हैं| इससे औरत और मर्द, दोनों की ज़िन्दगी में एक परस्परानुपाती खोखलापन आया है|
सुंदरता की विडंबना का समाधान ‘विज्ञापन’…’तुम हुस्न परी, तुम जानेजहां’
सुंदरता के साथ सबसे बड़ी विडंबना यह है कि अपने आपमें इसके पास आकर्षण तो प्रचंड हैं, लेकिन इस आकर्षण को बरकरार रखने के मामले में यह अकेले सक्षम नहीं हैं| सुंदरता एक सापेक्ष गुण है| लेकिन जब औरतें अपनी सुंदरता को निजी ढंग से प्रक्षेपित करना शुरू करती हैं, तो वे अपने को एक व्यापारिक वस्तु में बदल रही होती हैं, जो सिर्फ तत्व से नहीं, विज्ञापन से चलता है|
हर स्त्री सुंदर होती है| – एक अर्धसत्य
हर स्त्री सुंदर होती है| पर यह एक अर्धसत्य ही है, जिसे छिपाने के लिए यह जोड़ना पड़ता है कि कुछ स्त्रियाँ ज्यादा सुंदर होती हैं| विडंबना यह है कि स्वयं स्त्रियों को पूरी सच्चाई का कटु एहसास रहता है| इसलिए सभ्यता की शुरुआत से ही सौंदर्य बढ़ानेवाले उपकरणों की खोज बनी रही है| पुरुषों की सौंदर्य अपेक्षाओं पर खरा उतरने के लिए स्त्रियों को कितनी कुर्बानी करनी पड़ी है – इसका रोमांचक है| इससे भी ज्यादा रोमांचक हैं वे क्रूरताएँ, जो आधुनिक सौंदर्य उद्योग को बनाये रखने के लिए ज़रूरी है| सुंदरता के निर्धारित मानदंड हासिल करने के लिए स्त्री को अपने साथ पता नहीं कितने प्रकार के अत्याचार करने होते हैं| साफ़ है कि सुंदरता अब कोई नैसर्गिक या सांस्कृतिक विशेषता नहीं रही – वह एक कठिन उत्पाद है और सौंदर्य प्रतियोगिताएं इन्हीं उत्पादों के तुलनात्मक मूल्यांकन पर आधारित है| यानी यह सामाजिक घटना नहीं, बल्कि औद्योगिक घटना है|
सुंदर लड़कियों के संदर्भ में अक्सर उसके माता-पिता यह बात बड़े नाज़ के साथ कहते है कि ‘हमें तो उसकी शादी की कोई चिंता नहीं है| उसके लिए तो लड़कों की लाइन लग जायेगी|’ पर वे इस बात को भूल जाते है कि सुंदरता जीवन साथी खोजने में पासपोर्ट की तरह काम करती है| और शादी कब तक टिकेगी यह उसके व्यक्तित्व पर निर्भर करता है| सुंदरता इस बंधन को दृढ़ करने में सहायक होती है – लेकिन सहायक, निर्णायक नहीं| सुंदरता को स्त्री का पासपोर्ट कहा गया है| पासपोर्ट यह निश्चित ही है, लेकिन वीसा यह नहीं है| वीसा का काम तो व्यक्तित्व के गुण ही करते हैं| कोई सुंदर स्त्री अगर मूर्ख, झगड़ालू, अहंकारी और दुष्ट हो, तो वह दूसरे के हृदय प्रदेश में ज्यादा समय तक टिक नहीं सकती| इसलिए दैहिक सुंदरता का अपने आपमें कोई स्थायी मूल्य नहीं है|
तो यह है सौंदर्य के मिथक की वह दुनिया, जिसमें स्त्रियों का अस्तित्व सीमित चुका है| या यूँ कहे कि समेटा गया है| स्त्री जीवन में सुंदरता के महिमामंडन के ज़रिए अपने शरीर को लेकर उनमें असंतुष्टि को कायम रखा गया है| जाहिर है, आज भी सौंदर्य ही स्त्री का सबसे विश्वसनीय पासपोर्ट है| वह सौंदर्य, जो औद्योगिक पितृसत्ता की सभ्यता की प्रयोगशाला में ढल कर निकला है| स्त्रियाँ कितनी ही सामाजिक और राजनीतिक ताकत हासिल कर लें, उन्हें स्त्री होने की कीमत चुकानी ही पड़ेगी – जब तक वे अपनी शर्तों पर जीना नहीं सीखती|
संदर्भ
- स्त्री,परंपरा और आधुनिकता एवं स्त्रीत्व का उत्सव – राजकिशोर
आपका लेख बहुत ही अच्छा है सुंदरता किसी भी स्री के लिए वरदान भी बन सकती है तो किसी के लिए अभिशाप भी जैसे सबसे सुंदर स्री आम्रपली लिए उसके सुंदरता अभिशाप बन गई।