कार्यशाला में करीब पच्चीस युवा थे, जो देश के अलग-अलग क्षेत्रों से आये हुए थे| उनके विचार अलग थे, काम करने के मुद्दे अलग थे और काम करने के तरीके भी अलग थे| पर उनमें एकबात समान थी जो उन सभी को एक सूत्र में बाँधी हुई थी, वो थी उनकी पहचान| जी हाँ, एक युवा समाजकर्मी की पहचान, जिसके पास समाज के लिए कुछ करने या कुछ बदलने की चाह थी| दुष्यंत कुमार के शब्दों में कहूँ तो वे सभी युवा इस बात पर विश्वास करते थे कि –
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
बीते 18 से 21 जुलाई 2017 तक द वाई पी फाउंडेशन (नई दिल्ली) की तरफ से ‘युवा पैरोकारी के प्रशिक्षण’ पर कार्यशाला का आयोजन किया गया था, जहाँ देश के अलग-अलग क्षेत्र से आये युवा समाजकर्मियों ने हिस्सा लिया| इस कार्यशाला का हिस्सा बनना इतना आसान नहीं था, क्योंकि इसमें शामिल होने के लिए सिर्फ युवा होना काफी नहीं था| बल्कि इसके लिए ज़रूरी था सामाजिक मुद्दों पर सुलझी हुई तार्किक समझ का होना, किसी भी समस्या से निपटने के लिए सटीक समाधान तलाशने की परिपक्व सोच का होना और सबसे अहम कुछ नया सीखने, समझने और उसे अपने काम में लागू करने का जज्बा होना| इन सभी गुणों को फाउंडेशन की तरफ से आवेदन की लंबी प्रक्रिया के ज़रिए प्रतिभागियों को तराशा गया| नतीजतन पच्चीस युवा-समाजकर्मी इस कार्यशाला का हिस्सा बने| इस प्रशिक्षण का उद्देश्य, युवाओं को नीतिगत पैरोकारी संबंधी जानकारी और कौशल से रु-ब-रु करवाना था, जिसमें वे काफी हद तक सफल भी हुए| साथ ही, कार्यशाला में किसी आंदोलन का निर्माण कैसे किया जाए और इसका नीतिगत बदलाव से क्या संबंध है, इसपर भी विशेषज्ञों के ज़रिए चर्चा की गयी| चूँकि मैं खुद भी इस प्रशिक्षण का हिस्सा थी तो इस पूरी प्रशिक्षण कार्यशाला के पहलुओं का विश्लेषण करने में खुद को सक्षम मानती हूँ|
कार्यशाला में हिस्सा – सीख और अनुभव का
पैरोकारी, नीतिगत पैरोकारी, मीडिया पैरोकारी, आंदोलन का निर्माण और जेंडर व यौनिकता से जुड़े तमाम शब्द जिनका इस्तेमाल समाजकर्मी धड़ल्ले से करते है लेकिन कई बार उन्हें उसकी अवधारणा और उससे संबंधित नीति व अधिनियम की समझ नहीं होती है| इस प्रशिक्षण-कार्यशाला के ज़रिए कहीं-न-कहीं इन तमाम विषयों पर युवाओं में परिपक्व समझ विकसित हो पायी| इसके साथ ही, वाई पी फाउंडेशन की कार्यकारी निदेशक ईषिता, दिव्यांग नारीवादी निधि गोयल, स्मृति (एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया), मनीषा गुप्ते और चक्षु राय जैसी शख्सियतों के इन विषयों पर उनकी समझ और युवाओं की उन सभी चुनौतियों, जिससे वे सभी कभी दो-चार हुए थे पर उनके अनुभव से अवगत होना अपने आप में बेहतरीन अनुभव था|
आंदोलन ब्रह्मास्त्र की तरह होता है|
कार्यशाला में हिस्सा – आंदोलन या अभियान की शुरुआत का
कई बार ऐसा होता कि हमें जब कोई समस्या होती है और हम उसपर आवाज़ उठाते तो शुरूआती दौर में वह व्यक्तिगत मुद्दा दिखाई पड़ता है लेकिन जैसे-जैसे लोगों का जुड़ाव उस मुद्दे पर अपनी आवाज़ भी मिलाने लगता है तो वह मुद्दा व्यक्तिगत नहीं बल्कि समाज का बन जाता है| निधि गोयल ने दिव्यांग कार्यकर्ती जीजा घोष के उदाहरण के ज़रिए आंदोलन के बारे में कार्यशाला में बताया कि, ‘कोई भी आंदोलन यूँ ही खड़े नहीं हो जाते| किसी एक मुद्दे पर आवाज़ उठती है और फिर उसमें कई मुद्दे, लोग और संगठन जुड़ते जाते है, जिससे एक आंदोलन खड़ा होता है जो की लंबे समय तक ज़ारी रहते है| वहीँ दूसरी तरफ अभियान की निर्धारित समयावधि होती है क्योंकि उनका लक्ष्य आंदोलन के लक्ष्य से छोटे होते है|’ निधि गोयल ने सटीक उदाहरण के ज़रिए बेहद आसानी से आंदोलन और अभियान के बीच फ़र्क के बारे में बताया| वहीं चक्षु राय में आंदोलन के संदर्भ में कहा कि ‘आंदोलन ब्रह्मास्त्र की तरह होता है|’ इस तरह विशेषज्ञों के अनुभव के ज़रिए प्रतिभागियों को आंदोलन और अभियान के बीच फ़र्क और उनकी शुरुआत कैसे की जाए इसके बारे में बताया गया|
कार्यशाला में हिस्सा – लिंग के आधार पर गर्भपात करवाने और गर्भसमापन के अधिकार के बीच पनपे विरोधाभास पर विमर्श का
कार्यशाला में मनीषा गुप्ते ने इस विषय पर अपने अनुभव के ज़रिए आंदोलन में किन छोटी-छोटी ख़ास बातों का ध्यान रखना चाहिए इस बारे में बताया| इस पूरे आंदोलन ने ‘महिला के गर्भ समापन के अधिकार से लेकर लिंग के आधार पर गर्भपात पर रोक की मांग’ तक का सफर तय किया था और मनीषा गुप्ते खुद इस आंदोलन का हिस्सा रही थी तो उन्होंने आंदोलन के दौरान प्रचार-सामग्री में उन सभी विषयों पर गौर किया था जिससे लिंग के आधार पर गर्भपात करवाने पर रोक तो लगी लेकिन इससे कहीं न कहीं गर्भसमापन को भी ‘चयन की स्वतंत्रता’ की बजाय गर्भपात की ही श्रेणी में रखकर देखा जाने लगा| उन्होंने अपने इस पूरे अनुभव और उससे मिली ज़रूरी सीख को सभी प्रतिभागियों के साथ साझा किया|
कार्यशाला में हिस्सा – धारा 377 और नालसा जजमेंट का
चार दिन की इस कार्यशाला में भारतीय दंड संहिता की धारा 377 और नालसा जजमेंट पर भी विस्तृत चर्चा की गयी| इस चर्चा में दिल्ली हाईकोर्ट की वकील अमृता नंदा और मिहिर ने उन सभी क़ानूनी दावपेंचों को उजागर किया गया जिससे इस धारा के ज़रिए कहीं-न-कहीं समलैंगिक लोगों पर शिकंजा कसने की साजिश की गयी है|
इस तरह की कार्यशालाओं का आयोजन भविष्य में किया जाना चाहिए|
कार्यशाला का हिस्सा – प्रतिभागियों की सक्रिय भागीदारी और गतिविधियाँ
कार्यशाला की रुपरेखा कुछ इस तरह तैयार की गयी थी जिससे निर्धारित विषयों पर विशेषज्ञों की चर्चा के बाद उससे संबंधित गतिविधियों को भी शामिल किया जाता था| यह न केवल प्रतिभागियों की भागीदारी बढ़ाने में सहायक होती बल्कि इसके ज़रिए विषय पर युवाओं की समझ को परिपक्व आकार मिलता| बात चाहे, आपसी सामंजस्य के साथ कैसे किसी मुद्दे की पैरोकारी करने की हो या फिर किसी आंदोलन या अभियान के विस्तार-नीति की हो, कार्यशाला के दौरान प्रतिभागियों के लिए तैयार की गयी गतिविधियों में इन्हें शामिल किया गया, जिसके ज़रिए वे इस बात को अच्छी तरह समझ पाए कि इनका इस्तेमाल किस तरह हम अपने क्षेत्रों में कुशलतापूर्वक कर सकते हैं|
वाई पी फाउंडेशन की तरफ से आयोजित इस चार दिन की प्रशिक्षण-कार्यशाला की रुपरेखा को युवा समाजकर्मियों पर केन्द्रित कर तैयार किया गया था, जिससे यह कार्यशाला एक सफल कार्यशाला बन सकी और संभवत: इसने अपने निर्धारित सभी लक्ष्यों को पूरा किया| वाई पी फाउंडेशन की टीम विनीता, सबिका, सौविक और मानक की प्रतिभागियों के साथ बेहद सहयोगी और सक्रिय भागीदारी थी, जो अपने आप में प्रतिभागियों को लगातार प्रेरणा देती रही| आज जब हर तरफ युवा शक्ति का बोलबाला है ऐसे में इस तरह की प्रशिक्षण-कार्यशालाओं का आयोजन युवाशक्ति को सकारात्मक दिशा देने के लिए बेहद मददगार साबित होता है| अपने अनुभव के आधार पर यह ज़रूर कहना चाहूंगी कि इस तरह की कार्यशालाओं का आयोजन भविष्य में किया जाना चाहिए|
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