बीते मंगलवार (24 अक्टूबर, 2017) की रात सोशल मीडिया के माध्यम से यह खबर मिली कि बनारस घराने की प्रसिद्ध भारतीय शास्त्रीय संगीत गायिका गिरिजा देवी जी का कलकत्ता के अस्पताल में 88 साल की उम्र में निधन हो गया और धीरे-धीरे फैलती इस खबर से मानो पूरा बनारस शोक में डूबता चलता गया| 8 मई 1929 में बनारस (उत्तर प्रदेश) के जमींदार रामदेव राय के घर जन्मी गिरिजा देवी को ‘ठुमरी क्वीन’ भी कहा जाता था|
यों तो गिरिजा जी शास्त्रीय और उप-शास्त्रीय संगीत का गायन करतीं थी लेकिन ठुमरी गायन को परिष्कृत करने और इसे लोकप्रिय बनाने में इनका बहुत बड़ा योगदान है। पुराने समय में ठुमरी गायन की लोकप्रियता तो थी लेकिन उसकी एक निर्धारित सीमा भी थी जिसे समाज ने ‘तवायफ़’ के नाम हेय दृष्टि से देखे जाने वाले गायन में सीमित किया गया था| लेकिन गिरिजा देवी ने अपनी बेजोड़ प्रतिभा के ज़रिए न केवल ठुमरी को लोकप्रिय बनाया बल्कि इस गायन-शैली को समाज में सम्मान भी दिलाने का काम किया|
‘ममतामयी व्यक्तित्व वाली थी अप्पा जी’ – विदुषी डॉ कमला शंकर
भारत की पहली स्लाइड गिटारवादिका विदुषी डॉ कमला शंकर बताती है कि गिरिजा देवी जी बढि़या साड़ी और मुंह में पान का बीड़ा, जिस किसी भी कार्यक्रम में जाती निष्कपट भाव से बोलती। हमेशा कहती थीं कि संगीत एक शास्त्र, योग, ध्यान-साधना है। उनका व्यक्तित्व बेहद ममतामयी था और हम सभी उन्हें प्यार से ‘अप्पा जी’ कहते थे| वे हर किसी से बेहद प्यार-सम्मान से मिलती थी, जो आज के दौर में अपने आप में बड़ी बात थी| सादगीपसंद गिरिजा जी से मिलने जो कोई भी उनके घर जाता था उनके स्वागत-सत्कार में वे कभी कोई कमी नहीं छोड़ती थी|

गिरिजा देवी के बारे में याद करते हुए कमला शंकर जी ने बताया कि उन्हें कपड़ों से बनी गुड़ियों का बेहद शौक था और वे खुद से बनायी और बाज़ार से खरीदी गयी ढ़ेरों कपड़े वाली गुड़ियों को अपनी आलमारी में सजाकर रखती थी| धार्मिक विचारों वाली अप्पा जी हमेशा बनारसी बोली में बातें किया करती थी और उनके संगीत की ही तरह उनकी भाषा भी बेहद मीठी थी| गिरिजा जी अब हमारे बीच नहीं है इस बात पर विश्वास कर पाना मुश्किल हो रहा है| उनका जाना ज़रूर भारतीय शास्त्रीय संगीत जगत के लिए क्षति है लेकिन मैं ये ज़रूर कहूंगी कि उन्होंने एक सफल कलाकार होने के साथ-साथ एक सफल गुरु होने का भी फर्ज बखूबी अदा किया है और उनके शिष्य गिरिजा देवी जी संजोयी धरोहर को हमेशा कायम रखेंगें|
सार्वजनिक गायन से दी पितृसत्ता को चुनौती
गिरिजा देवी को साल 2016 में पद्म विभूषण और साल 1989 में उन्हें भारत सरकार द्वारा कला के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। उन्होंने गिरिजा देवी के पिता हारमोनियम बजाया करते थे| उन्होंने गिरिजा जी को संगीत सिखाया और बाद में इन्होंने, गायक और सारंगी वादक सरजू प्रसाद मिश्रा से मात्र पांच साल की उम्र से ‘ख्याल’ और ‘टप्पा’ गायन की शिक्षा लेना शुरू की। नौ साल की छोटी-सी उम्र में गिरिजा ने फिल्म ‘याद रहे’ में अभिनय भी किया| इसके साथ ही, अपने गुरु श्री चंद मिश्रा के सानिध्य में संगीत की अलग-अलग शैलियों की पढ़ाई जारी रखी।
उन्होंने अपनी प्रतिभा और संस्कृति के बीच गज़ब का सामंजस्य स्थापित किया था|
गिरिजा देवी ने गायन की सार्वजनिक शुरुआत साल 1949 में ऑल इंडिया रेडियो (इलाहाबाद) से की और साल 1946 में उनकी शादी हो गयी| लेकिन उन्हें अपनी मां और दादी से विरोध का सामना करना पड़ा क्योंकि यह परंपरागत रूप से माना जाता था कि कोई उच्च वर्ग की महिला को सार्वजनिक रूप से गायन का प्रदर्शन नहीं करना चाहिए। गिरिजा देवी ने दूसरों के लिए निजी तौर पर प्रदर्शन नहीं करने के लिए सहमती दी थी, लेकिन 1951 में बिहार में उन्होंने अपना पहला सार्वजनिक संगीत कार्यक्रम दिया|
सफल शिक्षिका बनकर अपनी धरोहर को संजोया
उन्होंने 1980 के दशक में कोलकाता में आईटीसी संगीत रिसर्च एकेडमी और 1990 के दशक के दौरान बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के संगीत संकाय के एक सदस्य के रूप में काम किया और उन्होंने संगीत विरासत को संरक्षित करने के लिए कई छात्रों को पढ़ाया।
उन्होंने एक सफल कलाकार होने के साथ-साथ एक सफल गुरु होने का भी फर्ज बखूबी अदा किया है और उनके शिष्य गिरिजा देवी जी संजोयी धरोहर को हमेशा कायम रखेंगें|
साल 2009 के पूर्व वे अक्सर गायन के प्रदर्शन दौरे किया करती थी और साल 2017 में भी उनका प्रदर्शन जारी रहा| गिरिजा जी बनारस घराने से गाती थी और पूरबी आंग ठुमरी (जिसका दर्जा बढ़ने व तरक्की में मदद की ) शैली परंपरा का प्रदर्शन करती थी। उनके प्रदर्शनों की सूची अर्द्ध शास्त्रीय शैलियों कजरी, चैती और होली भी शामिल है और वह ख्याल, भारतीय लोक संगीत, और टप्पा भी गाती है।
संगीत और संगीतकारों के न्यू ग्रोव शब्दकोश में कहा गया है कि गिरिजा देवी अपने गायन शैली में अर्द्ध शास्त्रीय गायन बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाने के क्षेत्रीय विशेषताओं के साथ उसके शास्त्रीय प्रशिक्षण को जोड़ती है। वह ‘अलंकार संगीत स्कूल’ के संस्थापक, श्रीमती ममता भार्गव, जिनके भारतीय शास्त्रीय संगीत स्कूल ने सैकड़ों मील की दूरी से छात्रों को आकर्षित किया था।
गिरिजा देवी जी को पद्म श्री (1972), पद्म भूषण (1989), पद्म विभूषण (2016) , संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार (1977), संगीत नाटक अकादमी फैलोशिप (2010), महा संगीत सम्मान पुरस्कार (2012), संगीत सम्मान पुरस्कार (डोवर लेन संगीत सम्मेलन), GIMA पुरस्कार 2012 (लाइफटाइम अचीवमेंट), Tanariri पुरस्कार जैसी कई और पुरस्कारों से सम्मानित किया गया था|
उनका व्यक्तित्व हमेशा के लिए अमर हो गया है|
गिरिजा देवी जी ने अपने सरल व्यक्तित्व से भारतीय संगीत के साथ-साथ शास्त्रीय संगीत खासकर ‘ठुमरी’ के ज़रिए सामाजिक बदलाव लाने में बड़ा योगदान दिया| धर्म के प्रति उनका हमेशा से रुझान रहा लेकिन उन्होंने कभी भी समाज की उस संकीर्ण सोच को नहीं माना जो इस बात पर विश्वास करती थी ऊंचे कुल की महिलाएं सार्वजनिक गायन (खासकर ठुमरी जैसी गायन शैली, जिसे हमेशा से तवायफों से जोड़कर देखा गया है) नहीं करती है| इस संदर्भ में डॉ कमला शंकर जी बताती है कि अप्पा जी जब कभी भी धार्मिक कार्यक्रम में गायन-प्रस्तुति देती थी, उनके सिर से साड़ी का पल्लू कभी भी नीचे नहीं आता था| उन्होंने अपनी प्रतिभा और संस्कृति के बीच गज़ब का सामंजस्य स्थापित किया था, जो कि किसी भी बदलाव के स्थायित्व के लिए बेहद ज़रूरी है| शायद यही वजह है उनका व्यक्तित्व हमेशा के लिए अमर हो गया है|
और पढ़ें : गौहर जान: ‘भारत की पहली रिकॉर्डिंग सुपरस्टार’ | #IndianWomenInHistory
Swati lives in Varanasi and has completed her B.A. in Sociology and M.A in Mass Communication and Journalism from Banaras Hindu University. She has completed her Post-Graduate Diploma course in Human Rights from the Indian Institute of Human Rights, New Delhi. She has also written her first Hindi book named 'Control Z'. She likes reading books, writing and blogging.
[…] समकालीन समय की समस्याओं और औरतों के जीवन के सुख-दुख, धर्मनिरपेक्षता और प्र…के बारे में। वो ईद की खुशियों के बारे […]