समाज के हर वर्ग की अपनी कुछ समस्याएं और चुनौतियां होती हैं। इसीलिए हर वर्ग की विशेष दिक्कतों को ध्यान में रखते हुए समय – समय पर विमर्श भी किए जाते हैं। पर कई बार कुछ वर्ग और उनसे जुड़े मसलों पर बेहद कम ध्यान दिया जाता है। शारीरिक अक्षमता (फिज़िकल डिसेबिलिटी) भी एक ऐसा ही विषय है।
शारीरिक रूप से अक्षम लोगों को न केवल स्वास्थ्य सम्बन्धी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है, बल्कि अपनी बीमारी या अक्षमता के चलते उन्हें पारिवारिक और सामाजिक रूप से भी कई सारी परेशानियां झेलनी पड़ती हैं।
पर कहीं न कहीं यह परेशानियां दोगुनी हो जाती हैं अगर आप स्त्री या यों कहें कि आप भारतीय स्त्री हों तो| क्योंकि ऐसे में आपको डिसेबल्ड इंसान होने की परेशानियों का तो सामना करना ही पड़ता है| साथ ही स्त्री होने के तौर पर कई और दिक्कतें भी झेलनी पड़ती हैं और भारतीय समाज में स्त्रियां जिन चुनौतियों का सामना करती रही हैं, उनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि शारीरिक अक्षमता और स्त्री होना – दरअसल किसी दोहरी मार की तरह है|
अक्षमता के चलते उन्हें पारिवारिक और सामाजिक रूप से भी कई सारी परेशानियां झेलनी पड़ती हैं।
समाज की पीड़ित मानसिकता
कंचन सिंह चौहान जी लेखिका हैं, उन्हें अपने जन्म के 13 माह बाद पोलियो हुआ था जिसने उनके बाएं पैर से लेकर कमर, हाथों और गर्दन को प्रभावित किया। अपने अनुभव बताते हुए वह कहती हैं कि ‘उन्हें स्कूल में एडमिशन को लेकर काफी दिक्कतें आईं। उनकी बीमारी के चलते कई स्कूल उन्हें एडमिशन नहीं देना चाह रहें थे, फिर उनकी माँ ने ही उन्हें घर पर पढ़ाया जिसके बाद चौथी कक्षा में उन्होंने स्कूल जॉइन किया। हालांकि, उन्हें अपनी निजी ज़िंदगी में ऐसी दिक्कतों का सामना नहीं करना पड़ा, लेकिन अपने आसपास के अनुभवों को देखते हुए उनका कहना है कि आमतौर पर एक भारतीय मध्यमवर्गीय परिवार में अगर किसी लड़की को ऐसी कोई शारीरिक समस्या हो जाए तो परिवार उसके इलाज का खर्चा नहीं उठाना चाहता और उसकी पढ़ाई के लिए तो सोचा तक नहीं जाता है| परिवार के मन में यह बात कभी नहीं आती कि एक बेहतर ज़िंदगी जीने के लिए शिक्षा उस डिसेबल्ड लड़की की कितनी मदद कर सकती है|’
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दरअसल यह शारीरिक रूप से अक्षम स्त्रियों को लेकर हमारे समाज की पीड़ित मानसिकता को दर्शाता है। डिसेबल्ड स्त्रियों को अपनी डिसेबिलिटी के अलावा जिन हालातों का सामना करना पड़ता है, वैसे हालातों से डिसेबल्ड पुरुषों को शायद ही (या नहीं) गुज़रना पड़ता होगा।
बहुत कुछ कहते है ‘ये आंकड़े’
यूनेस्को और वर्ल्ड ब्लाइंड यूनियन के अनुसार, दुनियाभर में डिसेबल्ड स्त्रियों की साक्षरता दर 1 फीसद है जबकि कुल मिलाकर डिसेबल्ड लोगों की साक्षरता दर लगभग 3 फीसद है। वहीं भारत में हुई एक स्टडी के मुताबिक, स्कूल जाने वाली डिसेबल्ड बच्चियों का फीसद 38 है जबकि स्कूल जाने वाले डिसेबल्ड लड़कों का फीसद 61 है।
वहीं साल 2011 में हुई जनगणना के अनुसार, भारत में डिसेबल्ड पुरुषों की साक्षरता दर 62.4 फीसद है जबकि डिसेबल्ड महिलाओं की साक्षरता दर 44.6 फीसद है। यह आंकड़े अपने आप में बहुत कुछ बताते हैं |
डिसेबल्ड स्त्रियों को लेकर सामाजिक रवैये में कोई खास बदलाव नहीं आया है।
शादी से लेकर शिक्षा तक है ‘लैंगिक भेदभाव’
ऐसे समाज में एक डिसेबल्ड लड़की को शिक्षा मिलना तो मुश्किल है ही, उसे एक अच्छा जीवनसाथी मिलना भी लगभग नामुमकिन – सा काम होता है। अगर उसके पास प्रेम या विवाह – प्रस्ताव आते भी हैं तो लोग सोचते हैं कि उसे तुरंत उस प्रस्ताव को मंजूर कर लेना चाहिए। मतलब चाहे लड़का कैसा भी हो, पर समाज एक डिसेबल्ड स्त्री को उस प्रस्ताव को ठुकराने का ऑप्शन नहीं देना चाहता। पर डिसेबल्ड लड़कों के साथ आमतौर पर यह सारी दिक्कतें नहीं होतीं। उनके इलाज का खर्चा उठाने में परिवार को कोई प्रॉब्लम नहीं होती है, उन्हें शिक्षा से भी वंचित नहीं रखा जाता और उन्हें एक अच्छी जीवनसाथी मिलने में भी कोई दिक्कत नहीं होती।
डॉक्टर्स से लेकर कॉलेज तक मिला ‘तिरस्कार’
रोहतक निवासी वंदना जी मार्फन सिंड्रोम से जूझ रहीं हैं। आपको बता दें कि मार्फन सिंड्रोम एक लाइलाज बीमारी है जो 5000 से लेकर 10, 000 व्यक्तियों के बीच केवल किसी एक व्यक्ति को होती है। सही इलाज मिलते रहने से रोगी के जीने की संभावना बढ़ जाती है। इस बीमारी से जूझते हुए वंदना जी को समाज के जिस रवैये का सामना करना पड़ा, उसी से जुड़े अपने कुछ कड़वे अनुभव उन्होंने साझा किए हैं।
वे बताती हैं कि बीमारी के कारण असामान्य रूप से लंबे और दुबले होने पर उनके कॉलेज में अक्सर उनका मज़ाक उड़ाया जाता था, उन्हें ‘स्केलेटन’ जैसे शब्दों से संबोधित किया जाता था और यह कहा जाता था कि तुम दो साल से ज़्यादा नहीं जी पाओगी। इस बीच, डॉक्टर्स का बर्ताव भी उनके प्रति सही नहीं था। डॉक्टर्स की एक टीम उनके इलाज पर कम और उनके ज़रिए रिसर्च करने पर ज़्यादा ध्यान देती थी, जैसे वे इंसान नहीं बल्कि महज़ कोई ऑब्जेक्ट हैं। वे केवल असंवेदनशीलता ही नहीं बल्कि अपने डॉक्टर्स के द्वारा हैरैसमेंट का भी शिकार हुईं। उन्हें लगता है कि जिस तरह से डॉक्टर्स उनके साथ बर्ताव कर रहे थे| वैसा शायद वे किसी पुरुष मरीज़ के साथ नहीं करते। ऐसी स्थिति में तो महिलाओं को अपना इलाज करवाने के लिए भी सोचना पड़ता है, कि कहीं इलाज करने के बहाने डॉक्टर्स छेड़खानी करना न शुरू कर दें|
वंदना जी का इलाज अब भी चल रहा है और अपने हौसले के कारण वे दो साल से कहीं ज़्यादा जी चुकी हैं पर उन्हें लगता है कि इतने सालों में डिसेबल्ड लोगों, विशेषकर डिसेबल्ड स्त्रियों को लेकर सामाजिक रवैये में कोई खास बदलाव नहीं आया है।
इन सभी बातों से यह अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि किसी भी डिसेबिलिटी से जूझ रहे लोगों खासतौर पर डिसेबल्ड स्त्रियों के प्रति हमारा समाज कितना असंवेदनशील है| यहाँ सहायता की उम्मीद तो नहीं की जा सकती लेकिन डिसेबिलिटी को लेकर क्रूर मज़ाक करना जैसे आम बात समझी जाती है। ये हालात अफ़सोसजनक तो हैं ही, साथ ही यह इस चिंता में भी डालते हैं कि समाज का यह हिस्सा जेंडर और डिसेबिलिटी के इन मोर्चों पर कैसे और कब तक लड़ाई लड़ता रहेगा ?
ज़ाहिर है कि अब इन हालातों में बदलाव लाने के लिए निरंतर सकारात्मक कोशिशें करना बहुत ज़रूरी हो चुका है|
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