इंटरसेक्शनलजेंडर महिला की स्वतंत्र सोच पर हावी कुंठित समाज

महिला की स्वतंत्र सोच पर हावी कुंठित समाज

जब कभी भी समाज में हम स्त्री के प्रति उसकी कुंठित सोच का जिक्र करते हैं तो हम सिर्फ महिला-अधिकार के दमन की बात तक ही अपनी सोच में सिमटकर रह जाते हैं|

किरण मिश्रा

उन्नीस सौ साठ के दशक से या यूं कहें कि उत्तर-आधुनिकता के आगमन से विश्व के सामाजिक-राजनितिक चिंतन और व्यवहार में कुछ नए आयाम जुड़े है। परंपरा और आधुनिकता के संघर्ष से मानव समाज के सामाजिक जीवन और व्यवहार में बदलाव होता जा रहा है। सामाजिक व्यवहार और मूल्यों में हो रहे बदलाव अच्छे भी है और नहीं भी। इसका निर्णय जितना अच्छा भविष्य देगा उतना वर्तमान नहीं।

इस बदलते हुए समय का सबसे ज्यादा अगर किसी पर प्रभाव पढ़ा है तो वो है स्त्री। आज स्त्री आधुनिकता के बाहरी परिवेश में ढली है पर अपने दिमाग की सलाखों में वो आज भी कैद है इसलिए वह सहज और शांत नहीं है|  वो अपनी स्वतंत्रता को अपना आत्मविश्वास नहीं बना पा रही है। स्त्री – सशक्तिकरण के नारे सिर्फ जुमले बन हवा में तैर रहे है और कुछ प्रश्न अनुत्तरित हैं कि स्त्री समाज के लिए क्या है? समाज उसे कैसे देखता है? क्या स्त्री -पुरुष समान हैं ? या समाज स्त्री को द्धितीयक मानता है या आज भी गुलाम या दासी मानता है। क्या समाज स्त्री को लेकर आज भी कुंठित है? ये यक्ष प्रश्न है इन सवालों के उत्तर के साथ ही समाज में मनुष्यता स्थापित हो जाएगी। इसलिए यह जरुरी है कि समाज इन सवालों को हल करे और स्त्री पुरुष संतुलन को कायम करे।

जब कभी भी समाज में हम स्त्री के प्रति उसकी कुंठित सोच का जिक्र करते हैं तो हम सिर्फ महिला-अधिकार के दमन की बात तक ही अपनी सोच में सिमटकर रह जाते हैं| लेकिन हमारे बात-व्यवहार से लेकर हमारे हंसी-मजाक तक किस तरह का रवैया हमारा समाज रखता है इसके बारे में युवा कवि सजल कुमार ने अपनी इस कविता के माध्यम से बखूबी बताया है –

स्त्री सृजनकर्ता रही है । हमेशा से उसने जीवन को रचा है उसे सवारा है। सभ्यता का मानवीय विकास स्त्री की ही देन है । उसने गुलामी और प्रताड़ना से हमेशा समाज को मुक्त कराया है, उसने मानव जीवन का रूपांतरण कर समाज को सभ्य बनाया है। आज बदलते हुए समय में सारे समाज की जिम्मेदारी बदल रही है| इस बदलते समाज में स्त्री की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है उसका अपने प्रति जिम्मेदार होना ऐसा जिम्मेदार होना जिसमे भ्रम न हो। उसे संतुष्टिकारण का शिकार नहीं होना है उसे अपने दोषों और कमजोरियों पर भी नजर रखनी होगी और अपना आंकलन खुद ही करना होगा। उसे खबरदार भी रहना होगा कि वह प्रोडक्ट की तरह इस्तेमाल तो नहीं हो रही है। समाज में अपनी जगह बनाने के लिए अपने संघर्ष को देह के संघर्ष में नहीं बदल देना है और उन स्त्रियों से भी सावधान रहना है जो देह-विमर्श के नामपर स्त्रियों की जिन्दगी को और कठिन बना रही हैं|

स्त्री आधुनिकता के बाहरी परिवेश में ढली है पर अपने दिमाग की सलाखों में वो आज भी कैद है इसलिए वह सहज और शांत नहीं है|

अलग-अलग सम्प्रदाय,धर्म,जाति में फैले हमारे देश में स्त्रियों के संघर्ष बहुत अलग-अलग हैं| उनके शोषण की जड़ें गहरे तक हैं| बेशर्म जड़ो को निकालकर समाज को अपने लिए उपयोगी बनाना है ताकि उस पर संस्कृति, मानवता, नैतिकता का पौधा लहलहा सके और स्त्री स्वतंत्रता के फल उस पर आ सके। अगर स्त्री हमारे देश में फैली समस्याओं, यथा जाति,धर्म आदि को नजरंदाज करती है तो उनकी मुक्ति की आस बेमानी होगी।

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स्त्री को अपने संघर्ष में चाहे घर हो या बाहर उसे ‘स्वावलंबी’ होना होगा। उसे चाहे पारिवारिक शोषण को तोड़ना हो या आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनना हो, दोनों ही सूरत में परिवार में पारिवारिक लोकतंत्र व कार्यस्थल में अपने हुनर का इस्तेमाल करना होगा ।

स्त्री का स्वतंत्रता के संघर्ष का लक्ष्य उसके चरित्र की दृढ़ता से मिलेगा, वह तभी अपने साथ न्याय कर पाएगी जब अपने स्त्री होने को पीछे कर मनुष्य होने के बोध को जगाएगी।अन्तत: इस संकटग्रस्त मानवीय संबंधो के समय जबकि रिश्ते पल-पल बदल रहे हैं, लोग भ्रमित हैं, उलझे हैं,  परेशान हो मशीन बन भाव और संवेदना खो रहे हैं| विगत की भूल ने रिश्ते स्त्रियों को मानवीय संबंधो को पुन:स्थापित करने में अहम् भूमिका निभानी होगी उसे अपनी अंतरात्मा की कसौटी  पर खुद अपने को, पुरुष को और उन बच्चों को कसना होगा जो कल पुरुष बन स्त्री-पुरुष के संबंधो को जीयेंगे।लेकिन जीवन मूल्य को चलने के लिए गति को लय में चलन ही होगा| पुरुष गति है शिव है और स्त्री लय है, शक्ति है|  शिव बिना गति के शव है और स्त्री बिना लय के शक्तिहीन अर्धनारीश्वर के रूप में पुरुष समानताओं और विपरीतताओं से परे सृष्टि को  गति और लय देते है तभी सुन्दर और शांत स्रष्टि की रचना हो सकती है।ये सम्बन्ध संतुलित हो, जीवन में गुणवता बनी रहे समाज में सकारात्मकता और सृजनात्मकता बनी रहे इसलिये ये जरुरी है कि स्त्री हर बार नए सिरे से खुद को और पुरुष  के साथ उसके रिश्ते को परिभाषित करती रहे। आने वाली सदी में स्त्री-पुरुष के संबंधो में उर्वरता बनी रहे और बुद्ध के दर्शन, सम्यक जीवन का आधार, स्त्री-पुरुष जीवन का आधार हो हम ये कामना तो कर ही सकते है।


यह लेख किरण मिश्रा ने लिखा है जो कि इससे पहले स्त्री काल में प्रकाशित हो चुका है|

तस्वीर साभार : डीएनए

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