इंटरसेक्शनलजेंडर ‘स्वतंत्र औरत’ की पहचान: बस इतना-सा ख्वाब है!

‘स्वतंत्र औरत’ की पहचान: बस इतना-सा ख्वाब है!

यह मामला है इस बात की सामाजिक स्वीकृति और गारंटी का कि मानव-जाति का जो हिस्सा आधी दुनिया कहलाता है, उसे स्वतंत्र पहचान और भूमिका के साथ औरत होकर जीने का हक है।

उसे अपनी भूमिका के साथ जीने का हक

यह मामला है इस बात की सामाजिक स्वीकृति और गारंटी का कि मानव-जाति का जो हिस्सा आधी दुनिया कहलाता है, उसे स्वतंत्र पहचान और भूमिका के साथ औरत होकर जीने का हक है। किसी भी स्थिति में उसे इस अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता। यह स्वीकृति और गारंटी किसी भी सभ्य समाज की कसौटी है। क्या भारतीय समाज आधुनिकता के इस कथित दौर में इतना परिपक्व हो पाया है कि वह आधी दुनिया से बराबरी के स्तर पर वह सब कुछ बांट सके, जिस पर वह बरसों से अपना अधिकार जमाए बैठा है? भारतीय महिलाओं की दशा और दिशा पर एक समाजशास्त्रीय विवेचन-

पहली कहानी

नेहा ने जहर नहीं खाया, पर उसके दिल-दिमाग में इतना जहर भर चुका है कि अब वह अपने घर-परिवार से, अपने अड़ोस-पड़ोस से, अपने देश-समाज से और यहां तक कि अपने-आप से नफरत करती है, डरती है, और अपनी मां के अलावा किसी से कोई बात करना पसंद नहीं करती। पिछले साल वह कालेज से लौट रही थी, तो राह चलती लड़कियों पर फिकरे कसने वाले लफंगों की एक जमात ने उसे घेरा, नोचा-खसोटा, जलील किया और फिर रातों-रात उसे एक हंसती-खेलती लड़की से सामूहिक बलात्कार की एक छोटी-सी खबर बना डाला। ‘हां, पुलिस में रिपोर्ट की थी, लेकिन वे हमेशा यही कहते रहे कि बदमाशों को पहचानो, उसका नाम बताओ, तब हम कार्रवाई करेंगे।’ यह बोलते-बोलते उसकी मां सिसक पड़ती है, लेकिन नेहा पर इस सिसकी का कोई असर नहीं होता। वह अब एक औरत नहीं, खौफजदा इंसान है। नेहा जिंदा है, मगर वह मर चुकी है।

दूसरी कहानी

आरती इस्तेमाल नहीं होना चाहती थी, तो जानते हैं, उसके साथ क्या हुआ? उसे एक दिन जहर खा लेना पड़ा। बच्ची थी, तभी उसके मां-बाप गुजर गए। दूर के रिश्ते के निसंतान चाचा-चाची ने उसे पाला-पोसा, कुछ पढ़ाया-लिखाया और बमुश्किल सत्रह साल की छोटी सी उम्र में उसका ब्याह कर दिया। पति और ससुर दोनों शराबी-कबाबी और दोनों चाहें कि वह दोनों की हवस मिटाए। आरती ने पहले बचने की कोशिश की, फिर भाग निकली। चाचा-चाची ने बड़ी मुश्किल से पिंड छुड़ाया। फिर उसे एक और लड़के के पल्ले बांध दिया। यह लड़का पहले से शादीशुदा था, इसलिए जल्दी ही छोड़ कर चलता बना। चाचा-चाची तीसरी बार किसी से उसकी बात चला रहे थे, तब उसे पता चला कि असल में उसे बेच रहे थे और इससे पहले भी दो बार उसे बेचा ही गया था। फिर तो उसकी छाती ऐसी फटी की जिंदगी का सारा मोह जाता रहा। आरती ने अपने लिए मौत को चुन लिया।

तीसरी कहानी

‘ईश्वर की कृपा’ है कि तान्या को ऐसी कोई परेशानी नहीं झेलनी पड़ी। वह सरकारी क्षेत्र के एक बैंक में असिस्टेंट है। पति सेक्रेटेरियट में काम करते है। सब ठीक-ठाक चल रहा है। घर में बहुत समृद्धि नहीं तो कोई अभाव भी नहीं है, लेकिन कहां मिलता है मन का सुकून और तन को आराम। दिन भर दफ्तर में काम करो, सुबह-शाम नाश्ता-खाना तैयार करो। बच्चे के पोतड़े धोओ और फिर पतिदेव के नखरे उठाओ। जिंदगी न हुई, एक बवाल हो गई, लेकिन दिक्कत इन सबसे नहीं, बच्चे को लेकर है। तीन-चार साल का बच्चा है, जिसे दिन भर के लिए पड़ोसी के यहां छोड़ना पड़ता है। वैसे, पड़ोसन भली महिला है और वह खुद बच्चे के लिए खाना-दूध सब करके आती है, पर ‘दिन भर उसके लिए मन कलपता रहता है, तरह-तरह के बुरे खयाल आते रहते है। कभी-कभी मन करता है कि नौकरी छोड़ दूं।’ वह कहती है- ‘मगर हमारा परिवार बड़ा है। गांव में सास-ससुर-ननद-देवर सब रहते है। उनकी मदद करें न करें, ननद की शादी के लिए पैसा जुटाना ही पड़ेगा न।’

समय बदल गया। सरकारें भी बदल गर्इं, पर औरतों की यह तस्वीर नहीं बदली। वह आज भी इन्हीं समस्याओं से घिरी नजर आती है- समाज में, साहित्य में, सिनेमा में। हर कहीं, उसके नाम बहुत हैं, मगर पहचान कुछ नहीं। उसकी सूरतें अनेक हैं, पर औकात कुछ नहीं। आज महिलाओं के सामाजिक अस्तित्व के सामने यही भौतिक और भावनात्मक विनाश के खतरे हैं, जिन्होंने आज महिलाओं की सामाजिक सुरक्षा के सवाल का नारीवादी आंदोलन का सबसे प्रमुख प्रश्न बना दिया है।

महिलाओं की सामाजिक सुरक्षा इस नारीवादी संघर्ष का एक ज्वलंत मुद्दा है। आज की ठोस स्थितियों में तात्कालिक सुरक्षा का मतलब है : महिलाओं की उन तमाम समस्याओं का समाधान। ये समस्याएं न सुलझने की वजह से एक स्वतंत्र सामाजिक हस्ती के रूप में महिलाओं का सिर उठा कर जीना नामुमकिन होता जा रहा है।

1. इन समस्याओं में सबसे पहली चीज है – अशिक्षा। इसने औरतों को जीवन और जगत की ठोस वास्तविकताओं से दूर कर रखा है।

2. शिक्षा के बाद सबसे उपेक्षित क्षेत्र है – रोजगार। इसके बगैर औरत की आर्थिक स्वतंत्रता की बात भी नहीं सोची जा सकती। एक तो हमारे समाज की सोच ही इतनी पिछड़ी और पुरुषमुखी है कि पढ़ी-लिखी औरतों की शिक्षा भी पति की सामाजिक हैसियत जताने के काम आ जाती है।

3. अब कामकाजी महिलाओं की एक श्रेणी उभरी भी है, तो भी उसकी आर्थिक स्वतंत्रता कतई बेमानी है। सिर्फ इसलिए नहीं कि हमारे परिवार उनकी कमाई पर उनके व्यक्तिगत अधिकार को दिल से मान्यता देना नहीं जानते, बल्कि इसलिए भी कि बच्चों के पालन-पोषण की चिंता में वस्तुत: उनका कोई हिस्सेदार नहीं होता।

आर्थिक दृष्टि से दो और महत्त्वपूर्ण समस्याएं हैं, जो औरत को दोयम दर्जे का नागरिक बनाए रखने में बड़ी भूमिका निभाती है। इनमें से एक है – घरेलू कामकाज, जिसके बगैर शांति से जीवन चलना नामुमकिन है। महिलाएं न केवल इस जिम्मेदारी को निभाने में अकेली हैं, बल्कि उनकी इसके बिना मोल की मेहनत को सामाजिक उत्पादन के क्षेत्र में कोई योगदान तक नहीं समझा जाता। दूसरा मसला है – पारिवारिक संपत्ति का, जिसमें तमाम कानूनों के बावजूद पुरुषों को महिलाओं के साथ हिस्सा बांटना रास नहीं आता है।

आज जब हम महिलाओं की सामाजिक सुरक्षा की बात करते हैं, तो उसका मतलब होता है- महिलाओं के आर्थिक और आर्थिकेतर उत्पीड़न के इन तमाम रूपों के खात्मे की गारंटी। उनकी तमाम तात्कालिक ज़रूरतों के निदान वास्ते एकमुश्त कार्यक्रम को लागू करने के लिए महिलाओं के प्रतिनिधि संगठनों के नियंत्रण में काम करने वाली सामाजिक एजंसियों का निर्माण। हिंसक तत्वों से महिलाओं की रक्षा के लिए और महिला-संबंधी मामले-मुकदमों से हाथों-हाथ निपटने के लिए विशेष दस्ते का गठन।

यह न तो महिलाओं पर समाज की दया का मामला है और न ही पीड़ित महिला-समुदाय के प्रति उत्पीड़क पितृसत्ता की दरियादिली का। यह मामला है इस बात की सामाजिक स्वीकृति और गारंटी का कि मानव-जाति का जो हिस्सा आधी दुनिया कहलाता है, उसे स्वतंत्र पहचान और भूमिका के साथ औरत होकर जीने का हक है और किसी भी स्थिति में उसे इस अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता। यह स्वीकृति और गारंटी किसी भी सभ्य समाज की कसौटी है। क्या भारतीय समाज आधुनिकता के इस कथित दौर में इतना परिपक्व हो पाया है कि वह आधी दुनिया से बराबरी के स्तर पर वह सब कुछ बांट सके, जिस पर वह बरसों से अपना अधिकार जमाए बैठा है?

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