प्रमदा मेनन एक क्विअर नारीवादी एक्टिविस्ट हैं, जो हर उस विषय पर विवेचना करती हैं जिसे वे जटिल मानती हैं। जब वे विवेचना नहीं कर रही होती हैं तब वे जेंडर, यौनिकता और महिला अधिकारों पर कंसलटेंट के रूप में काम करती है| प्रस्तुत है तारशी की संस्थापिका राधिका चंदिरामनी की प्रमदा मेनन से ख़ास बातचीत का अंश|
राधिका : ‘परिवार’ के बारे में आप क्या सोचती हैं प्रमदा?
प्रमदा : क्यों हम चाहते हैं कि परिवार के लोग हमेशा हमें समझें, हमारा साथ दें और हमारे हर विचार के बारे प्रमदा में उन्हें जानकारी हो? क्या शायद ऐसा इसलिए कि हमें ये सिखाया गया है कि हमारे जैविक परिवार और हम एक ही हैं? अगर हमें यह न बताया गया होता कि हमारे माँ-बाप कौन हैं, हमारे भाई-बहन कौन हैं या रिश्तेदार कौन हैं – तो क्या तब भी हम इन लोगों के प्रति उतना ही लगाव महसूस करते या उनके फैसले, उनकी मंज़ूरी की परवाह करते? मैं ऐसा इसलिए कह रही हूँ क्योंकि हमें हमेशा ही यह कहा जाता है कि हमारा परिवार हमारे लिए सबसे बढ़कर है और परिवार की परिभाषा केवल जैविक परिवार ही है – जन्म देने वाली माँ, एक पिता, जिसकी संतान होने के बारे में हमें कोई संदेह नहीं होता और इन माता-पिता के पैदा किए गए हमारे दूसरे भाई-बहन।
पिछले कुछ समय से संतान को गोद लिए जाने, नई प्रजनन तकनीकों के आ जाने और सरोगसी से संतान पैदा करने के कारण जैविक परिवार की इस छवि में धीरे-धीरे बदलाव आने शुरू हुए हैं। लेकिन अब भी परिवार का अर्थ वही है| मतलब की एक इकाई जिसमें मातृत्व या पितृत्व की भावनाओं का मार्गदर्शन रहता है। यह पारिवारिक इकाई सुरक्षा प्रदान करती है, देखभाल करती है, प्यार करती है, आपका साथ देती है लेकिन अगर इसे चुनौती दी जाए या अगर इसकी मर्यादाओं या सीमा का उल्लंघन हो तो यह आपको सज़ा भी देती है।
राधिका : आपके विचार में, व्यक्तिगत यौनिक स्वतंत्रता के सन्दर्भ में परिवार आपका साथ देता है या एक संस्था के रूप में आपके विरोध में खड़ा होता है?
प्रमदा : हमारे अधिकाँश परिवारों में पालन किए जाने वाले नियम और कायदे हम उस समाज से ग्रहण करते हैं जिसमें हम रहते हैं| हम जिस वंश और समुदाय से हैं, उनकी प्रथाओं से सीखते हैं या फिर उन सीखों से जो हमें विरासत में मिलती हैं और जिनके आधार पर हम ऐसे बहुत से नियमों को चुनौती दे सकते हैं और परिवारों के भीतर नियमों का उल्लंघन होना बहुत ही सामान्य सी बात है क्योंकि हम सब एक-दूसरे से अलग हैं और अपने आसपास की दुनिया के बारे में हम सब की समझ अलग-अलग होती है और हम सभी दुनिया के साथ व्यवहार केवल अपनी बनाई परिभाषाओं के आधार पर करते हैं।
अपने शरीर के बारे में और अपनी यौनिकता का प्रदर्शन किस तरह करना चाहिए? इसके बारे में अपने सदस्यों को सभी नियमों की जानकारी परिवार द्वारा ही दी जाती है। कम से कम परिवार के पितृसत्तात्मक मुखियाओं के मन में यह नियम बहुत स्पष्ट होते हैं और इन नियमों को तोड़ पाना कोई आसान काम नहीं होता। देखने में तो यह नियम बिलकुल सरल लगते हैं और समाज के सभी के लिए बनाए गए नियमों की तरह ही लगते हैं, जैसे की – केवल सामाजिक रूप से स्वीकृत जाति/ धर्म / सामाजिक स्थिति के लोगों के बीच विवाह और बेहतर हो कि माता-पिता द्वारा तय किया हो वगैरह-वगैरह। यह केवल नियमों का एक सेट मात्र है। बाकी सभी नियम या तो इन नियमों से पहले या बाद में बताए जाते हैं – जैसे कि हमें कैसे कपड़े पहनने चाहिए, हम कहाँ जा सकते हैं, सार्वजनिक रूप से हम कौन से काम कर सकते हैं इत्यादि। यह सभी नियम किसी न किसी तरह के प्रतिबन्ध लगाते हैं और इन्हें चुनौती देने या तोड़ने का दंड किसी व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व को दांव पर लगाकर या कभी-कभी तो जान से हाथ गँवाकर भी भुगतना पड़ता है। अगर व्यक्ति विकलांगता के साथ रह रहे हों तो उनके लिए ये नियम और भी कड़े और बंधनकारी होते हैं। और परिवार में इन नियमों को लागू करने के विचार में व्यक्ति की सहमति को हमेशा अनदेखा किया जाता है।
आज की दुनिया में हम सभी के लिए ज़रूरी है कि हम परिवार की अपनी परिभाषा पर दोबारा विचार करें।
यौनिकता एक जटिल विषय है| ऐसा इसलिए क्योंकि यौनिकता के बारे में फैसले हमारे निजी फैसले होते हैं। हमारे यह निर्णय निर्भर करते हैं हमारी सोच पर कि हमें क्या स्वीकार्य है और क्या नहीं। समय के साथ-साथ लोगों से संपर्क के कारण, फिल्में देखकर, किताबें पढ़कर, अपने अनुभवों के आधार पर और जिस इतिहास का हिस्सा हम रहे हैं, उनके आधार पर, हमारे बहुत से मूल्यों में बदलाव भी आ जाता है।
मुझे सबसे अधिक हैरानी यह सोचकर होती है कि यौनिकता के इर्द-गिर्द हमारे अधिकांश विचार बचपन में हमें मिली जानकारी पर आधारित होते हैं और बचपन ऐसा समय है जब हम पर सबसे अधिक प्रभाव हमारे परिवार का ही होता है। हमारे लिए क्या सही है, क्या नहीं? या हमें क्या करना चाहिए क्या नहीं? इसका फैसला परिवार इस आधार पर करता है कि परिवार के स्थायित्व के लिए क्या बेहतर है। ऐसा भी नहीं है कि परिवार जानबूझकर किसी सदस्य की स्वतंत्रता का हनन करना चाहता है, ऐसा करके तो वे केवल परिवार की इस सामाजिक संस्था को जीवित और ‘शुद्ध’ रखना चाहते हैं। ‘शुद्ध रखने’ से मेरा अभिप्राय यह है कि परिवार ऐसा कोई निर्णय नहीं लेना चाहता जिसके लिए समाज में उनकी बुराई हो या उन्हें नीचा देखना पड़े। और इसी कारण परिवार हर सदस्य के व्यवहार, विचार, कार्य और गतिविधियों पर इतनी नज़र रखता है।
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राधिका : क्या आपको ऐसा लगता है कि परिवार के बारे में आपकी अपनी सोच में समय के साथ बदलाव आया है?
प्रमदा : उम्र बढ़ने के साथ-साथ, अपने परिवार द्वारा यौनिकता से जुड़े विषयों के बारे में लगाए गए प्रतिबंधों के बारे में व्यक्ति की समझ बढ़ती जाती है। इसका एक कारण यह भी होता है कि समाज, लोगों और संस्थाओं के साथ हमारे खुद के व्यवहार हमें फिर एकबार अपनी यौनिकता के बारे में सोचने को मजबूर कर देते हैं। इसका एक अन्य कारण यह भी है कि हममें से बहुत लोगों ने परिवार के बारे में अपनी खुद की समझ को बढ़ाते हुए और परिवार की परिभाषा को बदलते हुए इसमें अनेक ऐसे सदस्यों को शामिल कर लिया है जिन्हें आमतौर पर परिवार का अंग नहीं समझा जाता।
यौनिकता एक जटिल विषय है| ऐसा इसलिए क्योंकि यौनिकता के बारे में फैसले हमारे निजी फैसले होते हैं।
राधिका : आजकल न ही शादी करना और न ही संतान पैदा करना ज़रूरी रह गया है और ऐसा भी नहीं कि अगर आपने विवाह किया हो तो संतान भी पैदा करनी होगी या संतान पैदा की है तो आपका विवाहित होना भी ज़रूरी है। क्या ऐसे परिवार हैं जिनकी पारिकल्पना सेक्स के आधार पर न होकर दोस्ती के आधार पर की जा सकती हो?
प्रमदा : आज हम ऐसी दुनिया में रहते हैं, जहाँ रोज़ ही अलग-अलग तरह की परिवार व्यवस्थाएँ बन रही हैं। अब वे दिन नहीं रहे जब जन्म देकर ही संतान पायी जा सकती थी या विवाह केवल परिवार की रजामंदी से ही होते थे या परिवार की उत्पत्ति केवल विवाह के आधार पर ही होती थी। लोगों के व्यवहार करने के तरीके में, एक-दूसरे के साथ, जो उनके अन्तरंग हैं उनके साथ, दुनिया के बारे में जिनके साथ साझी सोच है उनके साथ और जो स्वीकृत सामाजिक और सांस्कृतिक मान्यताओं को बदलने के लिए तैयार हैं, उनके साथ अब बदलाव आया है। इस बदलाव के कारण नए सम्बन्ध और नई साझेदारियाँ बन रही हैं। अलग-अलग तरह की यौनिक पहचान और जेंडर पहचान वाले लोग अब अन्तरंग संबंधों और यौन संबंधों में रह रहे हैं और इसके लिए वे किसी तरह की कानूनी अनुमति लेना नहीं चाहते (कुछ मामलों में उन्होंने कानून से इसकी अनुमति मांगी है और वे इसमें सफल भी रहे हैं)।
आजकल दोस्त, आपसी प्रेम, देखभाल और कुछ जिम्मेदारियों को मिलकर निभाने के आधार पर अपने खुद के समर्थन समूह तैयार कर रहे हैं। ये नए परिवार, ‘परिवार’ की पारंपरिक विचारधारा की नींव हिला रहे हैं। परंपरागत परिभाषा से परे हटते हुए ये नई व्यवस्थाएँ हमें परिवार की परिभाषा के बारे में दोबारा सोचने के लिए विवश कर रही हैं और यह सोचने के लिए कि हम परिवार में किन लोगों को शामिल करें और किन लोगों को नहीं। इनसे ‘पवित्रता’ के बारे में सभी विचारों को भी चुनौती मिल रही है क्योंकि वर्ग, जाति और धर्म के सामाजिक वर्गीकरण के स्थान पर प्रेम और आपसी समझ पर आधारित इन नए परिवारों में ‘पवित्रता’ लगभग अप्रसांगिक हो गयी है।
राधिका : ‘परिवार’ के बारे में आपके खुद के क्या विचार हैं?
प्रमदा : परिवार के बारे में मेरी अपनी सोच हमेशा से यही रही है कि परिवार केवल जैविक संबंधों का नाम नहीं है। मुझे सही मायने में कभी भी परिवार की स्वीकृति की आवश्यकता नहीं लगी क्योंकि मुझे लगता है कि बचपन से मेरे अन्दर जिन मूल्य और मान्यताओं को डाला गया था, उनसे मुझे सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से सही और गलत की वर्तमान परिभाषाओं को चुनौती दे पाने में सहायता मिली। मेरे माता-पिता की सोच भी मेरे बड़े होने के साथ-साथ विकसित होती रही क्योंकि उन्हें हमेशा ही यौनिकता के बारे में मेरी चुनौतियों का सामना करना पड़ा और बदले में, वे इन चुनौतियों से सीखने को तत्पर रहते थे क्योंकि वो मुझसे प्यार करते थे। मैंने विद्रोह किया लेकिन यह भी सीखा कि कब मुझे पीछे हटना है। मेरे लिए परिवार के अर्थ हमेशा से मेरे माता-पिता, भाई-बहन और दोस्त थे जो हमेशा मुझे अपना प्यार, समर्थन और देखभाल देने को तत्पर रहते थे, बिलकुल ऐसे ही जैसे मैं रहती थी।
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आज की दुनिया में हम सभी के लिए ज़रूरी है कि हम परिवार की अपनी परिभाषा पर दोबारा विचार करें। आज की दुनिया नई तकनीकी दुनिया है। कोई भी व्यक्ति सेक्स किए बिना भी संतान पैदा कर सकते हैं और इसके लिए सेक्स कि बजाय केवल एक लेबोरेटरी और एक पैट्रि-डिश की ही ज़रुरत होती है| एक ज़माना था जब मर जाने तक प्यार हमेशा बना रहता था| लेकिन अब सम्बन्ध अनेक कारणों से टूटते हैं और इनमें से बहुत कम में मौत कारण बनती है। इन्टरनेट का प्रयोग होने के कारण अंतरंगता के बारे में हमारी सोच में बदलाव आया है, प्रेम के बारे में हमारे विचार बदले हैं, आज भाई-बहन गोद लिए जा सकते हैं| आज हमारे माता-पिता एक महिला और एक पुरुष या पुरुष और पुरुष या महिला और महिला या दो पुरुष और एक महिला आदि कुछ भी हो सकते हैं। अगर ऐसा है तो फिर हमें परिवार की अपनी परिभाषा के पुनर्निर्माण में कठिनाई क्यों आती है? अगर हम कल्पना करें, तो हम अपने परिवार के निर्माण के लिए अनेक तरह के क्रम-संयोजन कर सकते हैं और शायद फिर हम अपने जैविक परिवार के साथ खुश भी रह सकते हैं और साथ ही साथ अपने गैर-जैविक परिवार में भी समर्थन, देखभाल और आपसी समझ की इच्छा कर सकते हैं। मेरे लिए सही मायने में एक नए युग का प्रादुर्भाव तभी होगा|
यह इंटरव्यू इससे पहले तारशी में प्रकाशित किया जा चुका है|
तस्वीर साभार – फेसबुक