कहते हैं भाषा एक माध्यम होती है हमारे विचारों के आदान-प्रदान की| हम जैसा सोचते हैं वैसी भाषा चुनते है और बोलते हैं| मौजूदा समय में हम आये दिन महिलाओं के खिलाफ बढ़ती हिंसा की खबरें देखते-सुनते है और दिन-प्रतिदिन गंभीर होती इस समस्या पर कई लेख, रिपोर्ट, संगोष्ठी और भाषण भी सुनते है| इन सभी में कड़े कानून बनाने तो कभी सुरक्षा के अलग-अलग नियम-तरीकों की बात होती है| गौरतलब है कि इन सभी का जोर तब ज्यादा होता है जब बलात्कार, यौन उत्पीड़न या महिला हिंसा से जुड़ी कोई वीभत्स घटना हमारे सामने आती है| ऐसे में हमारे तर्क कहीं-न-कहीं प्रतिक्रिया के रूप में सामने आते है, जिनमें हमारा आवेश सीधेतौर पर हमारे तर्कों और दूरगामी सोच पर हावी होता है| वहीं हम अक्सर उन प्रयासों को नज़रअंदाज कर देते है, जो हमारी रोजमर्रा की ज़िन्दगी में शामिल होता है और हम चुनते है तात्कालिक उपाय|
आज हम अपने लेख में बात करेंगें महिला हिंसा से जुड़े एक ऐसे पहलू की जो अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावी रंग में हमारे विचार और व्यक्तित्व को रचने का काम करती है|
माँ-बहन की गालियों वाली गंदी बात
इन्हीं में से प्रमुख है – हमारी भाषा| उल्लेखनीय है कि यहाँ भाषा का ताल्लुक हिंदी, अंग्रेजी या बंगला की बजाय शब्दों के चयन से है, जिनका इस्तेमाल हर भाषा में किया जाता है|
भारतीय समाज में महिला को इंसान की बजाय रिश्तों में लपेटकर बेहद सम्मानजनक नजरिये से ‘माँ, बहन, बेटी और पत्नी’ के रूप में प्रस्तुत किया जाता रहा है| इतना ही नहीं, महिलाओं के इन अलग-अलग स्वरूपों पर समर्पित ढ़ेरों तीज-त्यौहार भी बनाये गये है| लेकिन दुर्भाग्यवश महिलाओं के जिन स्वरूपों को हमारी संस्कृति में पूजनीय बताया गया है, हम किसी भी बहस, लड़ाई-झगड़े या कई बार आम बोलचाल में इन्हीं रूपों पर केंद्रित गंदी-भद्दी गालियाँ भी बोलते है और इन गालियों का संबंध होता है सिर्फ महिलाओं की ‘योनि’ से| यानी कि महिला-शरीर के उस अंग पर केंद्रित है जो पितृसत्ता में ‘इज्जत’ ‘शील’ और महिला होने मायने पर केंद्रित है|
लड़ाई-झगड़ा चाहे किसी से भी, किसी भी मुद्दे पर हो, लेकिन गालियाँ हमेशा महिलाओं पर केंद्रित होती है|लैंगिक भेदभाव का परिणाम रही ये भाषा पितृसत्तात्मक सोच से संरक्षित की जाती है, जो दमन के भाव को बेहद सूक्ष्म और प्रभावी तरीके से लागू करती है और जिनका इस्तेमाल आमजन से लेकर ख़ासजन तक बेहद आसानी से करते है| कई बार हम अपनी आम बोलचाल में भी इन गालियों का इस्तेमाल सामान्य तरीके से करते हैं|
जब हम किसी भी चीज़ को ज्यादा पूजनीय या महिमामंडित करते हैं तो उसके खंडन की आशंका ज्यादा होती है|
‘माँ-बहन नहीं है क्या?’ कहकर पितृसत्ता का दोहरा वार
इस भाषा का प्रभाव सिर्फ हमारी गालियों तक ही सीमित नहीं है| बल्कि हमारे तानों पर भी इनका खूब प्रभाव देखने को मिलता है| अगर किसी पुरुष ने किसी महिला के साथ कोई लैंगिक हिंसा की तो ऐसे में उसका पहला जवाब होता है कि ‘घर में माँ-बहन नहीं है क्या?’ ऐसी बातों को सुनकर लगता है कि ‘घर में माँ-बहन का होना’ उन मर्दों की सबसे बड़ी कमजोरी है, जो पितृसत्ता के साथ पितृसत्तात्मक समाज में जीते है और समय आने पर पुरुष की गयी गलती का बदला उसके घर की महिलाओं से लिया जाएगा|
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ये शब्द हमेशा पुरुष के सामने घर में महिलाओं की उपस्थिति को एक ऐसी कमजोरी के रूप में पेश करते हैं कि वे पुरुष उनकी पाबंदी वाली सुरक्षा में ही अपनी ‘मर्दानगी’ की परिभाषा गढ़ने लगता है| महिला पर हुई हिंसा के विरोध में दूसरी महिला को कठघरे में खड़ा करना पुरुष को तो साफ़-पाक बचाता ही है, बल्कि पितृसत्ता में प्रसिद्ध ‘औरत ही औरत की दुश्मन होती है (ख़ास महिलाओं के संदर्भ में)’ को भी अप्रत्यक्ष रूप से बढ़ावा देता है|
लैंगिक भेदभाव को पनपाती हमारी भाषा
हमारी भाषा का दायरा सिर्फ गालियों के घेरे तक सीमित नहीं होता है, बल्कि ये लैंगिक भेदभाव को जेंडर के माध्यम से भी हमारे विचारों में भी बखूबी उतारती है| समाज में सिर्फ दो ही जेंडर – स्त्रीलिंग और पुल्लिंग को ही मान्यता दी जाती है, जिसके अपने कुछ परिभाषित सांचे है और इंसान को अपनी लिंग के अनुसार इन्हीं दो में ढाला जाता है| उदाहरण के लिए – अगर इंसान का बाल छोटा है तो उसे हमने नाम दिया ‘बॉय कट’ यानी कि वो हेयर कट जिसमें बाल छोटे और संवारने में सरल हो|
हम जैसा सोचते हैं वैसी भाषा चुनते है और बोलते हैं|
इस दायरे में सिर्फ हेयर कट को ही नहीं बल्कि भाव और व्यवहार को भी विभाजित किया गया है| जैसे- लड़कियां नाजुक होती है| पुरुष मजबूत होते हैं| लड़कियां रोती है, लेकिन लड़के नहीं रोते है| इसी तर्ज पर, हमारे यहाँ हर वर्चस्वधारी पद को पुल्लिंग वाली भाषा दी गयी है जैसे – प्रधानमंत्री, संयोजक, संस्थापक, मालिक और भी कई| इस तरह हम जाने-अनजाने में अपनी भाषा से अपने विचार तो कभी अपने विचार से अपनी भाषा गढ़ते जाते है और यही विचार धीरे-धीरे हमारे नजरिये में तब्दील होते है और उन विचारों के अनुसार नज़ारे बनाने में काम करने लगते है| हो सकता है आप कहें कि क्या सिर्फ भाषा बदलने से महिला हिंसा रुक जायेगी? तो आपका संदेह वाजिब है| लेकिन अगर हम दूरगामी परिणाम की बात करें तो आने वाले समय में हमें इस पुख्ता सबूत सकारात्मक बदलाव के साथ देखने को मिलेगा|
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यहाँ यह भी साफ़ कर दूँ कि मेरी बातों का मतलब ये नहीं है कि जो भी लोग ‘माँ-बहन’ की गालियाँ देते है वे सभी अपराधी होते है, बल्कि हर वो इन्सान वो ऐसे अपशब्दों का इस्तेमाल करता है वो एक ऐसे संस्कृति को बढ़ावा देता है जो बलात्कार को बेहद सामान्य बनाती है, जिसे सुधारने की ज़रूरत है| साथ ही, हमें ये कोशिश करनी होगी कि महिलाओं का अस्तित्व सिर्फ चंद रिश्तों में परिभाषित कर सीमित न किया जाए क्योंकि उनके इंसान वाले अस्तित्व की बजाय ‘माँ, बहन और बेटी’ तक सीमित करना अपने आपमें एक बड़े फसाद की जड़ है|
क्योंकि जब हम किसी भी चीज़ को ज्यादा पूजनीय या महिमामंडित करते हैं तो उसके खंडन की आशंका ज्यादा होती है और जिससे पनपती है हिंसा| इस बात को बेहद सरल उदाहरण से समझा जा सकता है कि जब हम किसी चीज़ को ज्यादा कीमती समझकर बचाते-छुपाते है तो चोर अपनी चोरी के लिए हमेशा उसी चीज़ को चुनता है| ठीक उसी तरह ऐसी भाषा का चयन और चलन भी हर फसाद के बदले को माँ-बहन पर केंद्रित कर देता है| क्योंकि हमारे यहाँ तो घर की महिलाओं को ही घर की इज्जत और शान से जोड़ा जाता है, ऐसे में हर विरोधी किसी भी बात का बदला घर की औरतों से लेने की बात और कई बार व्यवहार भी करता है| ऐसे में ये बेहद ज़रूरी है कि हम अपनी भाषा में सुधार करें जिससे हमारा आने वाला कल बेहतर हो और मौजूदा समय की वीभत्स तस्वीर को बदला जा सके|
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तस्वीर साभार : फाइनेंसियल एक्सप्रेस