नीतू तिवारी
हमारी भारतीय संस्कृति में कौमार्य का पवित्रता से ऐसा नाता जुड़ा है कि अपवित्र हो जाने के डर से विपरीत लिंग के प्रति शिक्षा व जानकारी तक से हमें दूर रखा जाता है| इसलिए कि कहीं कोई नया सवाल न खड़ा हो जाए। आख़िर पवित्रता की अवधारणा भी धर्म से जुड़ी है और धर्म हमारी आस्था का विषय है| सवाल का विषय नहीं| अब अपने ही परिवारों को देखिये, एक भाई-बहन जो कल दो अलग-अलग दम्पत्तियों का आधा भाग होंगे, एक-दूसरे के शरीर के बारे में कितना जानते हैं ?
बाल यौन-शोषण, छेड़खानी, बलात्कार, हत्या, जैसी घटनाओं के बढ़ते जाने का कारण केवल सुरक्षा की कमी है या कुछ और? हमें अब इस पहलू पर सोचने की ज़रूरत है| दुष्कर्मी की गंदी नीयत, उसके नैतिक मूल्यों का हल्कापन और उन पर हावी होता विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण का दबाव, मामलों के दर्ज होने में कमी और न्याय की ढीली व लम्बी प्रक्रिया – अपराधों के बढ़ते जाने का कारण हो सकते हैं। यह अपराध जिज्ञासा के कुंठा के रूप में बदलने से भी जन्म लेते हैं।
परिवर्तनशील समाज में कला बदलती है, उसकी रचना और बोध का स्वरुप बदलता है, कला का प्रयोजन बदलता है और उसकी प्रासंगिकता भी बदलती है।
इस बहस में कई महत्वपूर्ण मुद्दे उठे, जिनमें दबी ज़बान से पॉर्न फिल्मों का भी ज़िक्र आया है। ‘गूगल ट्रेंड सर्वे’ बताते हैं कि ऐसे 10 शहर जिनमें सर्वाधिक पॉर्न देखा जाता है, उनमें से 7 भारतीय नगर हैं। इसका क्या कारण है कि विश्वभर में सबसे ज्यादा प
र्न फिल्में हमारे देश में देखी जाती है। जबकि हमारा समाज इनके दर्शक को चरित्रहीन, नैतिक मूल्यों से शून्य व अपराधी की तरह समझता है। क्या हम जानते हैं कि यह ‘पॉर्न’ वास्तव में है क्या? इन फिल्मों के प्रति राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर क्या बहस है? क्या यह कोई ऐसी सामग्री है, जिसे रखना, देखना या दिखाना एक अपराध है ? लोग तमाम प्रतिबंधों के बावजूद क्यूँ इन्हें देख रहे हैं और क्या जो देखते हैं, वह सभी अपराधी हैं? तो आइये बात को आगे बढ़ाने के पहले इन पहलुओं पर चर्चा करते हैं –
आखिर क्या है ये ‘पॉर्न’?
‘पॉर्न’ यानी लिखित/चित्रित/फिल्माई गई ऐसी कोई भी रचना जिसमें स्त्री-पुरुष शारीरिक संबंधों को केंद्र में रखा गया हो और जो अधिकांशतः अपने समाज में ‘अश्लील’ और ‘अभद्र’ सामग्री के रूप में जानी जाती है। साल 1857 में इंग्लैंड के ऑब्सीन पब्लिकेशन एक्ट की रूपरेखा तैयार की गई ताकि गर्भ-निरोधक के प्रचार में प्रकाशित सामग्री को सेंसर किया जा सके। यह कोई संयोग नहीं था कि इसी साल अंग्रेजी भाषा में ‘पॉर्नोग्राफी’ शब्द का प्रवेश ऑक्सफ़ोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी में किया गया। इन घटनाओं के अर्थ खोलकर समझने कि कोशिश करिये। निश्चित रूप से उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में ऐसी यौनिक छवियों कि भरमार उभरी जिसकी छाप एक ऐसी दृश्य-व्यवस्था से मिलती-जुलती थी, जिसे ‘पॉर्नोग्राफी’ कहा गया।
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फिर ‘अश्लीलता’ क्या है?
‘अश्लीलता’ क्या है? इसके मानक समाज समय-समय पर खुद बदलता रहता है। हिंदी साहित्य के सुप्रसिद्ध आलोचक मैनेजर पाण्डेय ने अपने एक लेख ‘अश्लीलता और स्त्री’ में इस सम्बन्ध में महत्वपूर्ण बातें पाठकों के सामने रखते हुए लिखा कि “अश्लीलता एक अर्थ में पुरुषवादी वर्चस्व को कायम रखने का माध्यम है। अश्लीलता की परिभाषा पितृसत्तात्मक समाज अपनी ज़रूरतों के हिसाब से रचता-गढ़ता है।” साल 1957 में देवानंद और नूतन अभिनीत फिल्म ‘पेइंग गेस्ट’ का एक गीत ‘माना जनाब ने पुकारा नहीं’ खासी चर्चा का विषय था, कारण कि इसे अश्लील तरीके से फिल्माया गया था| और इस गाने में बात सिर्फ ये थी कि हीरो और हिरोइन एक साइकिल में बैठकर ये गाना गा रहे थे|
और बदलते जाते है ‘अश्लीलता के मानक’
एक समय में स्त्री और पुरुष का साइकिल पर एकसाथ बैठना लोगों के लिए परदे पर भी असहनीय था| यह अश्लीलता थी| लेकिन आज के समय में पॉर्न कलाकार हमारे मुख्यधारा सिनेमा के अंग बन रहे हैं। साथ ही कथित ‘सॉफ्टकोर’ फ़िल्मी कलाकारों के जीवन पर मुख्यधारा सिनेमा में फिल्में बन रही है और लोग इन्हें खूब पसंद भी कर चुके हैं। पॉर्न कलाकार मुख्यधारा सिनेमा से जुड़कर क्या अपनी छवि पूरी तरह बदल देते हैं? नहीं। बाज़ार के नियम उन्हें ऐसा करने भी नहीं देंगे। क्यूँकि उन कलाकारों की पृष्ठभूमि ही उनकी पहचान है, उस छवि को व्यवसाय लाभ की सैद्धांतिकी के अनुकूल ढाला जाता है। फिर निश्चित रूप से कामोत्तेजक सामग्री से भरपूर फिल्में बनाई और दिखाई जाएँगी और यह सब अब केवल सिनेमाघरों तक ही सिमटा नहीं है, बल्कि इसका जाल अब आपके हमारे घरों के टेलीविज़न सेटों तक फैलता आ रहा है|
अश्लीलता एक अर्थ में पुरुषवादी वर्चस्व को कायम रखने का माध्यम है।
आज पारिवारिक कार्यक्रमों के बीच कंडोम, एनर्जी ड्रिंक, परफ्यूम,अन्तः वस्त्र,गर्भ-निरोधक के अन्य उपायों और वयस्कों के उपयोग में लाये जाने वाले तमाम विषयों पर बने विज्ञापनों का प्रस्तुतीकरण बदला है। यह दूरदर्शन के समय में बना ‘माला-डी’ का विज्ञापन नहीं, जहाँ ढलते सूरज का बिम्ब अप्रत्यक्ष रूप से अपनी बात कहे। बल्कि आज 3० सेकंड वाले बहुतेरे विज्ञापन बहुत कुछ स्पष्ट कर जाते हैं और उनके प्रस्तुतीकरण का ढंग पॉर्न कलाकारों की ‘मार्किट छवि’ के अनुसार गढ़ा जाता है। ऐसे में दर्शक का विवेक सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। वह किसी भी रचना से क्या प्रभाव ग्रहण करे|
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इससे पता लगता है कि उसकी आतंरिक चेतना कितनी सजग है। ‘मनुष्य वास्तव में किसी कलाकृति से क्या पाता है, यह इस बात पर निर्भर है कि वह किस दृष्टिकोण और उद्देश्य से कलाकृति के पास जाता है। किसी भी रचना की उत्पत्ति, उसका अस्तित्व और उसका जीवन समाज और इतिहास के बाहर नहीं होता। यह भी एक भ्रम ही है कि कोई भी रचना समाज के सभी वर्गों को अपने सम्पूर्ण रूप में सदैव एक समान प्रासंगिक लगती है। परिवर्तनशील समाज में कला बदलती है, उसकी रचना और बोध का स्वरुप बदलता है, कला का प्रयोजन बदलता है और उसकी प्रासंगिकता भी बदलती है।’
यह लेख इससे पहले मेरा रंग में प्रकाशित किया जा चुका है, जिसे नीतू तिवारी ने लिखा है|
तस्वीर साभार : 101xxx.xyz