एचआईवी/एड्स की महामारी के शुरू होने के बाद के तीसरे दशक में आते समय हमारे सामने अब भी यौन प्रसार से एचआईवी संक्रमण रोक पाने के बहुत कम विकल्प मौजूद है| साल 2002 के अंत तक करीब 38.6 मिलियन वयस्क, जिनमें से 11.8 मिलियन की उम्र 15-24 साल के थे और 3.2 मिलियन बच्चे एचआईवी/एड्स से ग्रसित हो चुके थे| हालांकि पुरुषों और महिलाओं से इस संक्रमण से बाधित होने की आशंका करीब एक समान होती है| अफ्रीका के कुछ हिस्सों में यौनिक संबंधों के रुझानों की वजह से कम उम्र के लड़कों की तुलना में अधिक लड़कियां इस संक्रमण से ग्रसित होती हैं| कुछ शहरों में तो 15-19 साल की उम्र की किशोर लड़कियों में संक्रमण की दर लड़कों की तुलना में 2 से 8 गुना अधिक पाई गयी है|
एड्स की महामारी के कारण और इस जानकारी के कारण कि यौन संचारित संक्रमण से एचआईवी संक्रमण के प्रसार को बढ़ावा मिलता है, पूरी दुनिया में नई कार्यक्रम योजनायें और रोकथाम की विधियाँ विकसित करने के काम ने बहुत जोर पकड़ा है| एचआईवी और यौन संचारित संक्रमण प्रमुख रूप से असुरक्षित सेक्स से फैलते है| हालांकि यह दोनों महामारियां बहुत अलग हैं और भौगोलिक रूप से इनके प्रसार और उत्पन्न होने की दर में अंतर के कारण सभी लोगों में उपचार किये जा सकने वाले यौन संचारित संक्रमण लोगों में बढ़ने के प्रमुख कारण होते हैं और इनके स्वास्थ्य से संबंधित, सामाजिक और आर्थिक परिणाम बेहद नकारात्मक होते हैं|
असुरक्षित सेक्स, अनचाहे गर्भधारण और संक्रमण की समस्याओं और जोखिम में गहरा संबंध होता है|
इसके अलावा महिलाएं सामाजिक, आर्थिक और शारीरिक रूप से पुरुषों की अपेक्षा यौन संचारित संक्रमण के प्रति ज्यादा संवेदनशील होती हैं| यह देखा गया है कि महिलाओं में इन रोगों के लक्षण लंबे समय तक दिखाई नहीं पड़ते, वे उपचार भी देर से शुरू करती हैं और एचआईवी को छोड़कर अन्य यौन संचारित संक्रमण जैसे ग्रीवा का कैंसर, गर्भनलिकाओं में गर्भधारण और प्रजननहीनता के अधिक गंभीर दुष्प्रभावों का सामना करती हैं|
असुरक्षित सेक्स, अनचाहे गर्भ और संक्रमण की समस्याओं और जोखिम में गहरा संबंध होता है| जल्दी शादी कर दिए जाने और दहेज जैसी भेदभावपूर्ण सांस्कृतिक प्रथाओं, यौन हिंसा और पुरुषों के ऊपर महिलाओं की आर्थिक निर्भरता के कारण बहुत सी महिलाएं खासकर युवा महिलाएं ज्यादा संवेदनशील हो जाती हैं| पुरुषों और महिलाओं के बीच शक्ति के इस असंतुलन को बदलने की ज़रूरत है इसे उच्चतम प्राथमिकता दी जानी चाहिए|
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दुनियाभर में यौन संचारित संक्रमण और एचआईवी की महामारी और अनचाहे गर्भ की समस्याओं को देखते हुए यह ज़रूरी है कि युवा महिलाओं की जटिल सुरक्षा ज़रूरतों को पूरा करने के लिए नये सिरे से संकल्प किये जाएँ| इसके लिए एचआईवी/एड्स कार्यक्रमों के साथ-साथ परिवार नियोजन और दूसरे प्रजनन स्वास्थ्य कार्यक्रम के सहयोग की ज़रूरत होगी| इसके साथ-साथ प्रजननहीनता जो एक प्रमुख लेकिन अनदेखी समस्या है, इसका भी समाधान करना ज़रूरी होगा| आईसीपीडी की कार्ययोजना में प्रजननहीनता की रोकथाम और उपचार कामों को प्रजनन स्वास्थ्य देखभाल के कामों के प्रमुख घटक के रूप में स्वीकार किया गया है : ‘किशोरों को जानकारियां और सेवाएं दी जानी चाहिए ताकि वे अपनी यौनिकता को समझ सकें और अनचाहे गर्भ, यौन संचारित संक्रमण और इस वजह से बाद में आने वाली प्रजननहीनता के जोखिम से सुरक्षित रह सकें|’
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इतना सब कुछ होने के बाद भी प्रजनन स्वास्थ्य कार्यक्रमों के अंतर्गत प्रजननशीलता को साफ़ रूप से न तो स्वीकार किया जाता है और न ही इससे जुड़ी समस्याओं को हल करने के प्रयास किये जाते हैं| आंशिक रूप से इसका कारण यह है कि प्रजनन स्वास्थ्य सेवाएं छिन्न-भिन्न हो गयी हैं और दूसरे नीति निर्माताओं और कार्यक्रम प्रबंधकों को अनचाहे गर्भधारण और यौन संचारित संक्रमणों/एचआईवी के खतरे के सामने प्रजननहीनता एक साधारण सी समस्या लगती है| लेकिन ये देखते हुए कि प्रजननशीलता और प्रजननहीनता बहुत सी महिलाओं के जीवन में बेहद ख़ास जगह रखती हैं, इन समस्याओं का सामना कर, इन्हें समय रहते हल न करना वास्तव में तंग नजरिया है|
पुरुषों और महिलाओं के बीच शक्ति के इस असंतुलन को बदलने की ज़रूरत है इसे उच्चतम प्राथमिकता दी जानी चाहिए|
इस विषय पर सामाजिक और जीव वैज्ञानिक शोधों से पता चलता है कि प्रजननहीनता के डर या इससे प्रभावित लोगों का जीवन बहुत अधिक कष्टों और तकलीफों में गुजरता है| वे इसके उपचार के लिए बहुत पैसा खर्च करते हैं लेकिन उन्हें, खासकर महिलाओं को प्रभावी उपचार नहीं मिल पता| इसके अलावा ऐसे भी साक्ष्य मौजूद हैं कि प्रजननहीनता का इलाज अब एक ख़ास भूमिका अदा कर रहा है और डॉक्टरों की मदद से गर्भधारण करने का बाज़ार बहुत से विकासशील देशों में फल-फूल रहा है| प्रजननहीनता को सामुदायिक स्वास्थ्य समस्या के रूप में महत्व दिया जाना चाहिए – जिसके लिए सही जांच और उपचार मिल सके, उपयुक्त रोकथाम कार्य-योजनायें बनें और इससे पीड़ित लोगों के दुखों को समझते हुए सही परामर्श और सहयोग दिया जाए|
यह लेख क्रिया संस्था की वार्षिक पत्रिका एचआईवी/एड्स और मानवाधिकार : एक विमर्श (अंक 4, 2009) से प्रेरित है| इसका मूल लेख पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें|
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तस्वीर साभार : nationalgeographic
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