विकास की दौड़ में भागते अपने समाज में आपसे अगर कोई ये कहे कि आज भी जात-पात की व्यवस्था वैसी ही है, तो आपका जवाब क्या होगा?
जाहिर है आपका जवाब आपकी जाति पर निर्भर करेगा| हो सकता है कि आप मेरे इस जवाब से नाखुश या हैरान हों| पर सच्चाई यही है| अगर आप किसी ऊँची जाति से ताल्लुक रखते हैं तो आप गर्व से कहेंगें ‘नहीं, अब कोई जात-पात वाली बात नहीं है| अब सब बदल चुका है|’ पर अगर इस सवाल को हम किसी पिछड़ी, अनुसूचित, जाति-जनजाति से करेंगें तो उनका जवाब इससे ठीक उल्ट होगा – क्योंकि वास्तविकता ये है कि ऊंची जाति (जिसे हमारे समाज में सामान्य जाति भी कहा जाता है|) के लोगों को अक्सर इसबात का एहसास ही नहीं होता कि वे किस जाति से ताल्लुक रखते हैं, क्योंकि उनसे उनकी जाति को लेकर कोई सवाल नहीं किये जाते| उनके लिए सब सामान्य होता है, जो दूसरों के लिए नहीं होता| लेकिन अगर आपका ताल्लुक नीची जाति से है तो जन्मपत्री से लेकर राशन कार्ड तक स्कूल के फॉर्म से लेकर नौकरी के आवेदन तक आपको अपनी जाति बतानी पड़ती है|
हमारा पूरा सिस्टम हमें याद दिलाता है कि हम नीची जाति से है| ये सुनने में भले ही असामान्य लगे, पर ये सामान्य है| जाति की व्यवस्था हमारे समाज में जितनी पुरानी है उतनी ही जटिल भी है| और उससे कहीं ज्यादा संवेदनशील भी| जाति से संबंधित हम ढ़ेरों हिंसा के बारे में रोज खबरों में सुनते और अपने आसपास देख सकते हैं| ऐसे में इस संवेदनशील विषय पर फिल्म बनाना अपने आप में साहसिक, जोखिम भरा और ज़रूरी काम है|
इन दिनों अनुभव सिन्हा की फिल्म ‘आर्टिकल 15’ अपनी इसी ख़ासियत से सुर्ख़ियों में है| मैंने जब आर्टिकल 15 का ट्रेलर देखा तो लगा कि ये फिल्म सिर्फ जाति व्यवस्था के ऊंच-नीच के भेदभाव को उजागर करेगी| पर फिल्म को देखने के बाद मालूम हुआ ये फिल्म जाति व्यवस्था से जुड़े हर पक्ष के नासूरों को बखूबी सामने रखती है| यों तो फिल्म की बहुत सी बातें मन को भा गयी| काफी समय के बाद समाज के मतलब की देखने को मिली, जो दर्शकों के मन में सवाल छोड़ती है| बिना किसी तड़क-भड़क के जितनी सादगी और संजीदगी से इस फिल्म के माध्यम से बातें कही गयी वो इन्हें और भी प्रभावी बनाती है|
अभिनेता आयुष्मान ख़ुराना और साथी कलाकारों की एक्टिंग भी कम प्रभावी नहीं रही| ये इन कलाकारों की एक्टिंग ही रही जिसने इस विषय और कहानी को प्रभावी, जिंदा और संवेदनशील बना दिया|
‘हमारे यहां काम करने वालों की औकात वही होती है, जो हम तय करते हैं’
किसी इंसान की औकात क्या होती है? आर्टिकल 15 के एक सीन में जब एक पुलिस वाला एक ठेकेदार से ये सवाल करता है तो वो कहता है कि ‘हमारे यहां काम करने वालों की औकात वही होती है, जो हम तय करते हैं| सबकी कोई ना कोई औकात होती ही है|’
फिल्म का ये डायलाग ब्राह्मणवाद वाली मठाधीशी की संस्कृति को उजागर करने के लिए काफी है| ध्यान रहे कि ये संवाद आज के समय का है, जब हम खुद को विकसित और समृद्ध संस्कृति का बतलाने लगे है| ऐसे में ये कहना गलत नहीं है कि कोई ऊंची जाति का इंसान अपने विशेषाधिकारों से दूसरे इंसान की औकात तय करें तो ये हमारी समृद्धि के काले धब्बे हैं|
आर्टिकल 15 एक तरफ से जाति व्यवस्था के नासूरों को खोलती है|
‘मैं और तुम इन्हें दिखाई नहीं देते’
फिल्म के एक सीन में निषाद (जो फिल्म में एक दलित नेता है|) अपनी महिला मित्र से जाति व्यवस्था को लेकर समाज में दलितों के चले आ रहे लंबे संघर्ष को लेकर कहता है कि – मैं और तुम इन्हें दिखाई ही नहीं देते| हम भी हरिजन बन जाते हैं, कभी बहुजन हो जाते हैं बस जन नहीं बन पा रहे कि जन गण में हमारी भी गिनती हो जाए|’
सच्चाई है कि जब हम खबरों में किसी नीची जाति के दूल्हे को घोड़े पर बैठने के लिए बेरहमी से मारने की खबर देखते हैं या फिर नीची जाति का होने की वजह से बड़ी यूनिवर्सिटी में शौचालय साफ़ करने के लिए स्टूडेंट्स को मजबूर करने की खबर देखते-सुनते हैं तो निषाद की ये बात एकदम सटीक लगती है कि वाकई में आज भी हम समाज के निचले पायदान में रहने वाले लोगों का इंसान के रूप में स्वीकारने के लिए तैयार नहीं है|
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‘उनको मारकर पेड़ में टांग दिया गया ताकि पूरी जात को उनकी औकात याद रहे’
फिल्म आर्टिकल 15 की कहानी मुख्य रूप से दलित लड़कियों के बलात्कार और उनकी हत्या पर केन्द्रित केस पर है| फिल्म के अभिनेता अयान रंजन (आयुष्मान खुराना) उन लड़कियों के बारे में अपने सीनियर अधिकारी को बताते हुए कहते हैं कि ‘ये तीन लड़कियां अपनी दिहाड़ी में सिर्फ तीन रुपया एक्स्ट्रा मांग रही थी ‘तीन रुपया’….जो आप मिनरल वाटर पी रहे हैं, उसके दो या तीन घूंट के बराबर| उनकी इस गलती कि वजह से उनका रेप हो गया सर उनको मारकर पेड़ पर टांग दिया गया ताकि पूरी जात को उनकी औकात याद रहे|’
बलात्कार हिंसा का वो रूप है जिसका उद्देश्य हिंसा से ज़्यादा अपनी सत्ता का दिखावा करना होता है| वो सत्ता, जिसमें लड़की की जगह निचले पायदान पर होती है| हिंसा का ये रूप तब और भी वीभत्स और दोहरा हो जाता है जब इसमें जाति का जहरीला विष घुल जाता है| तब वहां बलात्कार से सिर्फ अपना वर्चस्व नहीं दिखाया जाता है बल्कि बलात्कार के बाद उन्हें पेड़ पर लटका उनके पूरे समाज को उनकी औकात दिखाने की कोशिश की जाती है| हिंसा के इन घिनौने चेहरों को हम किसी भी दलित महिला के साथ होने वाले बलात्कार की घटना में देख सकते है, जिसमें न केवल महिला को बल्कि उसकी पूरी जाति को निशाना बनाया जाता है|
पर वहीं दूसरी तरफ कहीं न कहीं हम खुद भी इन खबरों के इतने अभ्यस्त हो चुके हैं कि ये खबरें हमपर फ़र्क नहीं डालती| मॉल में तीन सौ रूपये टिप में देना भले में हमें कूल लगे पर मजदूरी के तीन रूपये अधिक देने की बात को हम अपने स्वाभिमान से जोड़ने लगते हैं| खासकर तब जब वो मजदूर हमसे नीची की जाति का हो|
‘फ़र्क बहुत कर लिया, अब फ़र्क लायेंगें’
फिल्म एक तरफ से जाति व्यवस्था के नासूरों को खोलती है वहीं दूसरी तरफ फिल्म के अभिनेता (यूरोप में पढ़ा-लिखा आधुनिक नौजवान) के माध्यम से एक उम्मीद भी जगाती है| उम्मीद फ़र्क की| वो फ़र्क नहीं, जिसे करते-करते और निभाते-निभाते हमारे यहाँ पीढियां बदल गयीं, बल्कि वो फ़र्क जिससे उन फर्कों को दूर करना है|
जाति की व्यवस्था हमारे समाज में जितनी पुरानी है उतनी ही जटिल भी है| और उससे कहीं ज्यादा संवेदनशील भी|
स्थायी बदलाव की बात संविधान के साथ
फिल्म के एक सीन में अभिनेता संविधान के आर्टिकल 15 (समानता एक अधिकार पर केन्द्रित अनुच्छेद) को पुलिस स्टेशन के नोटिस बोर्ड पर लगाता है| मुझे ये फिल्म का बेहद मजबूत सीन लगा| वरना आमतौर पर किसी भी समस्या को दूर करने के लिए हमारी फिल्मों में हीरो कुछ ऐसी नायाब तरकीबें इस्तेमाल करता है, जो सिर्फ एक हीरो ही कर सकता है| माने जादुई जैसे उपाय| पर यहाँ हीरो ने कुछ भी जादुई नहीं किया, उसने वही किया जो पुख्ता है, सही है और सबके हाथ में है|
हमारा देश जो संविधान से चलता है| वो संविधान जिसकी शपथ ली जाती है, उसे अब अपनी ज़िन्दगी से जोड़ना ज़रूरी है| सिर्फ अपने मतलब अपने अधिकारों के लिए ही नहीं बल्कि दूसरों के अधिकार सुरक्षित करने के लिए भी|
समाज से जुड़े तमाम उतार चढ़ावों को दिखाती इस फिल्म में आज भी समाज में बनी जाति-व्यवस्था की जटिल समस्या को दिखाते हुए जाने-अनजाने फिल्म ये संदेश देती है कि इन परिस्थितियों को बदलने के लिए अब हमें किसी हीरो का इंतज़ार नहीं करना है| हमारी एक छोटी पहल से बहुत से बदलाव लाये जा सकते है| बाकी फिल्म के संदर्भ में यही कहूंगी कि ‘ऐसी फिल्मों का बनना| चर्चा में आना| इसपर लिखा जाना| ढ़ेरों दर्शकों तक पहुंचना| ये सब समाज के लिए शुभसंकेत है| शुभसंकेत इसबात कि – जिन्दा है हम| शुभसंकेत इसबात का कि – फ़िल्में समाज का आईना है और इस आईने में विदेशों की सीन और आइटम सॉंग नहीं बल्कि बहुत से ऐसे मुद्दे हैं, जिनसे हम हर पल दो-चार होते है और जूझते रहते हैं|’
Also read in English: Article 15 Review: On Why Is It A Problem To Call It Just A Problematic Film
तस्वीर साभार : timesofindia
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