समाजख़बर कैसा है हमारा समाज, जहाँ औरत को स्कूटी चलाने पर आत्महत्या करनी पड़ती है ?

कैसा है हमारा समाज, जहाँ औरत को स्कूटी चलाने पर आत्महत्या करनी पड़ती है ?

केया दास सालों से स्कूटी चलाने का सपना देख रही थी। जब शादी नहीं हुई, तब माँ बाप ने रोक दिया और शादी हो गयी तो, पति ने अपनी स्कूटी उसे देने से इनकार कर दिया।

ख़बर तो आम सी थी, जैसे कि हर रोज़ अखबार के बीच के पन्नों में छपती रहती है। खबर थी – 29 जून, 2019 की। पश्चिम बंगाल के नैहाटी इलाके की 19 साल की हाउसवाइफ, केया दास की आत्महत्या की। दहेज के लिए उसपर अत्याचार नहीं हुए, न ही बांझ होने या लड़की जनने पर। न काले तन या ऊँचे दांतों के लिए मिले तानों के वजह से और न अधूरे प्रेम के खातिर उसने अपनी जान ले ली थी। तो क्या हुया था? केया दास कई सालों से स्कूटी चलाने का सपना देख रही थी। जब शादी नहीं हुई, तब माँ-बाप ने रोक दिया और शादी हो गयी तो, पति ने अपनी स्कूटी उसे देने से इनकार कर दिया। पर स्कूटी चलाने का कीड़ा केया के दिमाग से बिल्कुल ही नहीं निकला। उसने अपने छोटे भाई से स्कूटी सिखाने की विनती की और भाई राज़ी हो गया।

केया अगले दिन सुबह ससुराल के सारे काम निपटाकर अपने मायके गई और भाई के जीन्स टी-शर्ट पहनकर स्कूटी सीखने रास्ते पर निकली। केया की ससुराल भी एक ही मोहल्ले में होने के कारण ससुरालवालों ने उसे स्कूटी सीखते हुए देख लिया। रास्ते पर सबके सामने तो वे कुछ नहीं बोले लेकिन साड़ी पहनकर कुछ घण्टों बाद ससुराल लौटी तो उसे मारा-पीटा गया। वो चुप रही क्योंकि चुप रहना ही हमारे समाज के बताए ‘संस्कार’ है। बात वहीं पर थमी नहीं। उस शाम काम से पतिदेव के लौटते ही केया के मां-बाप को बुलाकर केया के कपड़े (जीन्स-टी शर्ट) और गलत आचरणों पर ससुरालवालों ने ढेरों अभियोग उगल दिए। अपनी बच्ची की करतूतों से शर्मसार मां-बाप भी केया को स्कूटी चलाने वाली ज़िद छोड़ने की नसीहत दी और घर लौट गए। अगले दिन केया मायके गयी और फैन से लटक कर खुदकुशी कर ली।

अब घटना ने तूल पकड़ा और पुलिस ससुरालवालों को पकड़ कर थाने पर ले आयी। वहाँ इस खबर को कवर करने पहुँचे स्थानीय पत्रकारों से केया की पति बांटी दास ने जो बोला उसे मैं कोट कर रही हूँ, “मैंने केया से कहा, झमेला क्यों बढ़ा रही हो? जब मेरे साथ बाहर घूमने जाओगी तो जीन्स टॉप पहनना। जो घर के बड़े नहीं चाहते वैसे काम क्यों करोगी? मुझे तो समझ में ही नहीं आ रहा कि मैंने केया से क्या गलत कहा के उसने ऐसा किया….।”

झमेला क्यों बढ़ा रही हो?

पुलिस ने ससुरालवालों के ख़िलाफ़ केया को आत्महत्या के लिए उकसाने का केस दर्ज किया है। अख़बार में ख़बर वही तक थी। पर खबर पढ़ने के बाद से बस अंदर यही बात चकरा रही थी कि -“झमेला क्यों बढ़ा रही हो?”

क्या वे लाचार नहीं हैं जो सदियों से मिली ‘संस्कार’ और आदतों के आगे, जो औरतों को प्रशिक्षित करती है पितृसत्ता के सबसे बड़े मोहरे के तौर पर?

जैसा आजकल होता है, इस खबर को मेरे एक दोस्त ने अपने फेसबुक पेज पर शेयर किया तो महिलाओं के ढेर सारे कमैंट्स आने लगे। एक गृहिणी ने लिखा, कैसे अपने हनीमून की जीन्स-टॉप वाली सबसे चहेती तस्वीरों को सालों तक उन्होंने सबसे छुपाकर रखा और फिर एक दिन उन्हें बस फेंक दिया।एक सरकारी ऑफिसर ने लिखा, ससुराल से ऑफिस के लिए ऊपर साड़ी- अंदर सलवार पहनकर निकलने और रोज़ सुबह शाम स्टेशन के वेटिंग रूम पर साड़ी उतारने पहनने के सिलसिलों के बारे में। एक सेल्सगर्ल ने लिखा,  कैसे उनकी माँ की सैनिटरी पैड से लेकर हर बुनियादी मांग को पिता ”एक और नया झमेला” बोलकर टाल देते थे।

किसी ने यह भी लिखा, कैसे पति के साथ बाइक पर बैठते समय टांगों को दो साइड कर बैठने में हमेशा मां और सासू मां की पाबन्दी रही। बिना दुपट्टे की कुर्ती पहनती एक कॉलेज छात्रा ने लिखा अपनी “अभद्र पोशाक” के लिए महिला प्रिंसिपल मिली फटकार की अनुभव। एक शिक्षिका ने लिखा, कैसे सरकारी स्कूलों सरकारी प्रोजेक्ट में बांटे गए साइकिल घर नहीं ले जाना चाहतीं हर साल कुछ छात्राएं, क्योंकि उनके बाप और भाई साइकिल पर लड़कियों का सवार होना अभी तक शालीन नहीं मानते।

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ऐसी भी प्रतिक्रियाएं थीं कि कम उम्र की लड़कियों पर पश्चिमी पहनावा शोभा चलता है, शादीशुदा औरतें या वयस्क महिलाओं पर नहीं। या फिर ऐसी कि, मैं जब भी बाहर निकलती हूँ तो सास मेरी साड़ी सलवार के रंग तक तय कर देती हैं पर मैं उनसे उलझती नहीं क्योंकि मेरे लिए मेरे मन की शांति इन झमेलों से ज़्यादा अहम है। और ऐसी भी कि केया दास एक बेवक़ूफ़ औरत थी। नहीं तो वो “स्मार्टली” और “स्पोर्टिंगली” इस झमेले को सुलझा लेती।

शायद केया बेवक़ूफ़ थी। सीधी और ज़िद्दी भी। क्योंकि केया को “स्मार्टली” और “स्पोर्टिंगली” हालात को संभालना नहीं था। उसे अपनी सही दिशा पर चोरी-छिपे बढ़ना नहीं था। उसे माँ बाप की गलत नसीहतें मंजूर नहीं था। उसकी इच्छाओं को ‘झमेला’ समझने वाला पति का प्रेम भी उसे नहीं चाहिए था। तो उसने सबसे हमेशा के लिए बगावत कर दिया। पर उसके या किसी के भी उठाये ऐसे फैसलों पर सही या गलत के टैग लगाना ठीक नहीं है। क्योंकि हर आत्महत्या असल में एक हत्या होती है। यह हम सब जानते हैं, जहाँ व्यक्ति के दुःखद अंत के लिए अप्रत्यक्ष तरीके से जितनी सामाजिक निष्ठुरता उतनी ही पारिवारिक उदासीनता भी ज़िम्मेदार होती हैं।

क्या रिवाजों की छोटी-बड़ी बेड़ियाँ तोड़ रहीं ऐसी औरतों को भी, ”झमेला क्यों बढ़ाती हो” जैसे वाक्य आए दिन नहीं सुनने को मिलते?

पर जिन अनगिनत औरतों ने केया जैसी विद्रोह नहीं किया उनका क्या?

जिन औरतों ने तस्वीर छिपाई,  सही ढंग’ से बाइक पर बैठीं, रोज़ वेटिंग रूम में साड़ी उतारी, मन की शांति के लिए चुप्पी साधी, घर और बाहर के ज़्यादातर कामों को रोज़ अपने थके हुए कंधों पर उठाया या फिर जिन्होंने स्मार्ट और स्पोर्टिंग तरीके से “झमेलों” को नज़रंदाज़ कर “सब कुछ” संभाला। क्या उन्हें भी रोज़ एक निःशब्द मृत्यु नहीं निगलती है?

क्या तमाम समझौतों के बाद भी उन्हें सम्पूर्ण सामाजिक सम्मान, प्रेम और समता मिली? क्या वे लाचार नहीं हैं जो सदियों से मिली ‘संस्कार’ और आदतों के आगे, जो औरतों को प्रशिक्षित करती है पितृसत्ता के सबसे बड़े मोहरे के तौर पर? क्या औरों (पितृसत्ता) के लिए सदा जीती, औरों के समझाए विचारों और दिखाए रास्तों पर खुद-को चलाती ‘सुशील’ औरतों को कभी नहीं लगता कि अपनी इच्छाओं को पहचानना। उन्हें खुद के लिए ज़रूरी मानना। उनकी पूर्ति के लिए आगे बढ़ना। मेहनत से ख्वाइशों को हासिल करना ‘स्वार्थ या झमेला’ नहीं होता है या बल्कि होता है हर मनुष्य का मौलिक अधिकार।

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ऐसे प्रश्नों के उत्तर मन ही मन ढूंढ रही थी मैं कि और कईं सवाल सामने आ खड़े हो गए जो केया दास जैसीं अल्पसंख्यक ज़िद्दी औरतों के थे। क्या रिवाजों की छोटी-बड़ी बेड़ियाँ तोड़ रहीं ऐसी औरतों को भी, ”झमेला क्यों बढ़ाती हो” जैसे वाक्य आए दिन नहीं सुनने को मिलते? क्या वो वाक्य सिर्फ पति-ससुराल और बाहरी समाज से आते हैं? क्या उनके अपने परिवार, दोस्त, रिश्तेदार भी उनसे किनारा नहीं कर लेते हैं? क्या जिस विशाल व्यवस्था के विरुद्ध वे लड़ रही है, उस ढांचे को क्या उनके तड़प का एहसास भी है?

क्या ऐसे ही अविराम संघर्ष करते हुए एक दिन वे थक नहीं जातीं? डगमगा नहीं जाते क्या कभी उनके हौसले और क़दम? समाज, परिवार और अंततः खुद से भी छूट नहीं जातीं वे एक दिन? रास्ते दो हैं। एक में अनगिनत ‘संस्कारी-समझदार-मुख्यधारा’ की औरतें और दूसरे में तमाम केया दास जैसीं ‘बेवकूफ़, बे-बाक और लड़ाकू’ महिलाएं। अपने सफ़र पर अपनी-अपनी विश्वास लिए बढ़ रहीं महिलाएँ क्या ‘मन की शांति’ या ‘समता के हक़’ जैसे लक्ष्यों तक पहुँच पातीं हैं? मेरे सामने अभी भी सिर्फ सवाल हैं। पर लग रहा है, खोजती रहूँगी तो कुछ उत्तर भी एक दिन मिल ही जायेंगे।

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यह लेख इससे पहले मेरा रंग में प्रकाशित किया जा चुका है।

तस्वीर साभार : india.com

Comments:

  1. Rafia says:

    It’s really pathatic .v hv to show courage n just break d all stereo type for this v need to b self depend financial ly n to be independent v need to education .

  2. Suchetana Mukhopadhyay says:

    Yes indeed

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