कल्पना पटोवारी
मुझे नहीं पता कि खलनायक फिल्म का वह गीत आपको कैसा लगता है जिसके बोल हैं – ‘चोली के पीछे क्या है, चुनरी के नीचे क्या है।’ मैं आपसे यह सवाल भी नहीं करने जा रही कि ‘लागल जोबनवा में चोट’ और ‘लागल करेजवा में चोट’ के बीच आप क्या अंतर समझते हैं। मेरे लिए यह सवाल भी बेमानी है कि आप योनि को किस निगाह से देखते हैं। मेरा सवाल समाज से है जो देश की राजधानी दिल्ली में आठ माह की बच्ची के साथ उसके चाचा द्वारा दुष्कर्म जैसी घटनाओं के बाद मौन हो जाती है।
कोई भी साहित्य व संस्कृति बिना महिलाओं के अधूरी है। फिर चाहे वह लोक संगीत ही क्यों न हो। स्त्री अलग-अलग रूपों में और बिम्बों में नजर आती है। मसलन एक बिम्ब सीता का है तो दूसरा बिम्ब शक्ति का। एक तीसरा बिम्ब भी है जिसका वर्णन न तो पौराणिक गाथाओं में मिलता है और न ही इतिहास में। यह बिम्ब है अनगिनत महिलाओं का जो पुरूष प्रधान समाज में बंद दरवाजों में अपना जीवन कब जी लेती हैं, पता भी नहीं चलता है। बंद दरवाजों में उनके साथ हुए जुल्म कभी-कभार सिसकियों के रूप में बाहर आती भी है तो यह पुरूष प्रधान समाज किसी दूसरे के घर का मामला कहकर अपने कान बंद कर लेता है। यह तो एक पक्ष है। दूसरा पक्ष तो और भी भयावह हैं। इस भयावह पक्ष को समाज चोली और योनि का पर्याय बता पुरूष प्रधान समाज अपनी सहुलियत के हिसाब से महिलाओं की यौन कुंठा तक करार देता है। लेकिन जाहिर तौर पर यह सच नहीं है।
लोक संगीत की सबसे खुबसूरती यही है कि वह महिलाओं को कहने की आजादी देती है। वह उन्हें जीने का हौसला देती है तो अपने अरमानों को अभिव्यक्त करने का तरीका भी सिखाती है। एक कलाकार के रूप में मेरा संबंध लोकगीतों से है। मेरा जन्म असम में हुआ और संगीत मुझे विरासत में मिली। साथ ही यह भी कहना चाहती हूं कि मेरा जन्म कौड़ी-कामख्या की धरती पर हुआ, जिन्हें योनि की देवी भी कहा जाता है। उस समय बहुत छोटी थी जब सार्वजनिक तौर पर मैंने गाना शुरू किया। पिताजी मुझे कार्यक्रमों में ले जाते और मुझे एक एक ऊंचे टेबल पर बिठा देते। उन दिनों एक कलाकार के रूप में मेरी परिवरिश भूपेन हजारिका के गीत-संगीत के साथ हुई, जिसकी बुनियाद ही प्रगतिशीलता थी। साहित्य और संस्कृति मेरे प्रिय विषय रहे। यहां तक कि स्नातक में भी मेरा यही विषय बना रहा। बाद के दिनों में जब मैं मुंबई आयी तब जाना कि लोक संगीत के दूसरे आयाम क्या हैं।
प्रारंभ में टी-सीरीज जैसी बड़ी म्यूजिक कंपनी से जुड़ने का मौका मिला। भोजपुरी में गीत गाने के लिए कहा गया। उन दिनों भोजपुरी मेरे लिए एक अजनबी भाषा थी। गीत के बोल अंग्रेजी में लिखे जाते और मुझे गाने के लिए कहा जाता था। तब हिन्दी भी मुझे नहीं आती थी। उन दिनों भी कई शब्द असमिया भाषा में भी थे। भोजपुरी से नजदीकियां बढ़ने लगीं। लेकिन उन दिनों ही मुझसे एक सोलो एलबम ‘गवनवा ले जा राजा जी’ गवाया गया। यह एलबम बहुत हिट हुआ। इसके पहले भोजपुरी भाषियों के बीच मेरी पहचान भक्ति गीतों को गाने वाली एक गायिका के रूप में ही थी। लेकिन तब मेरी पहचान में बड़ा बदलाव आया।
लोक संगीत की सबसे खुबसूरती यही है कि वह महिलाओं को कहने की आजादी देती है।
अपने अतीत के कुछ पहलु आपके सामने रखने का मेरा एक मतलब यह है कि आप मेरे और भोजपुरी के बीच के रिश्ते को समझ सकें। मैंने हिन्दी बोलना और लिखना सीखा। भोजपुरी बोली को सीखा। मेरे सामने संगीत की दो धारायें थीं। एक जिसके हर सुर में भूपेन हजारिका थे तो दूसरी और भोजुपरी में एक रिक्त धारा थी। रिक्त कहने का मेरा आशय यह कि उस समय तक मैं भोजपुरी में भूपेन हजारिका को तलाश रही थी। यही तलाश मुझे भिखारी ठाकुर के पास ले गयी। मैंने बिहार राजभाषा परिषद द्वारा प्रकाशित भिखारी ठाकुर रचनावली को पढ़ा। उसमें उद्धृत नाटकों और उसके पात्रों की सहायता से भोजपुरी संस्कृति के उस पक्ष को समझने का प्रयास कर रही थी जिसकी चर्चा ही नहीं की गई।
मसलन बेटी बेचवा नाटक को ही उदाहरण के रूप में लें। उस नाटक में नायिका अपने पिता से शिकायत करती है कि क्यों उसे एक बुढ़े के हाथों बेच दिया गया। गबरघिचोर की नायिका यौन स्वतंत्रता की बात करती है और अपने बच्चे पर अपना दावा ठोंकती है। वह तर्क देती है कि उसका बच्चा नाजायज नहीं है। ऐसी ही नारी स्वतंत्रता की झलक बिदेसिया में मिलती है। पलायन का दर्द झेलने वाली सुन्दरी उस समय भी पुरूष प्रधान समाज में अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करती है।
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भिखारी ठाकुर पर केंद्रित ‘द लीगेशी ऑफ भिखारी ठाकुर’ एलबम लांच करने के बाद मेरा हौसला बढ़ा। इसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सराहा गया। मैंने अपने आपको रोका नहीं। मेरी जिज्ञासा भोजपुरी गीत-संगीत के विभिन्न पहलुओं के प्रति बढ़ती रही। उदाहरणस्वरूप एक पुरबी है – देवरा तुड़ी किल्ली। पिछले वर्ष पैडी फेस्टिवल के दौरान जब मैंने इस गीत को गायी तब यह बात समझ में आयी कि यह गीत भारत के विभिन्न राज्यों में रहने वाली महिलाओं की पीड़ा को संबोधित करती है जो किसी न किसी रूप में पलायन के कारण होने वाली परेशानियों से जूझ रही हैं। जाहिर तौर पर उनकी परेशानियों में घर की चाहरदीवारी के अंदर होने वाले यौनिक जुल्म भी शामिल हैं।
नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़े भी कहते हैं कि महिलाओं के साथ सबसे अधिक अत्याचार करीब 85 फीसद उनके परिजन करते हैं। यौनिक हिंसा के मामले में भी अपराधी अधिसंख्य अपने ही होते हैं। ‘देवरा तुड़ी किल्ली’ भी एक प्रलाप है। इस गीत के माध्यम से एक महिला अपने पति से शिकायत करती है कि वह तो स्वयं परदेस कमाने गया है लेकिन घर में उसका छोटा भाई उसपर बुरी नीयत रखता है। इस गीत का एक पक्ष यह भी है कि वह अपने ऊपर हो रही हिंसा की शिकायत अपने गांव-समाज में भी नहीं कर सकती है। गांव-समाज उसे इसकी इजाजत नहीं देता है। मुंह खोलने पर मुमकिन है कि गांव-जवार के लोग उसे ही बदनाम कर दें।
नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़े भी कहते हैं कि महिलाओं के साथ सबसे अधिक अत्याचार करीब 85 फीसद उनके परिजन करते हैं।
असल में मेरे हिसाब से भोजपुरी लोक गीत के रूपों में श्रृंगार और प्रलाप का है। जब मैं श्रृंगार की बात कर रही हूं तो उसमें कई पहलू हैं। अब मेरी ही एलबम गवनवा ले जा राजा जी को देख लीजिए। एक नवविवाहिता अपने पति से अनुरोध करती है कि वह उसे मायके से ले जाय। वह उसके साथ जीना चाहती है। हिन्दी साहित्य में यौन इच्छा की अभिव्यक्ति के तौर-तरीकों पर नजर दौड़ायें, भोजपुरी लोक संगीत आपको सबसे अधिक स्वतंत्रता प्रदान करने वाला और उदार साबित होगा। अब इसकी आलोचना के कई बिंदु हो सकते हैं। लेकिन आलोचना के क्रम में इसका भी ख्याल रखा जाना चाहिए कि भोजपुरी अंचल में महिलाओं को हक ही कितना दिया गया है। वे किस तरह अपनी बात समाज के सामने रख सकती हैं। गांव की एक महिला अगर खड़ी हिन्दी में बात करे तो संभव है कि उसे कई तरह के लांछन सुनने पड़ते हैं जैसे कि उसने कोई बड़ा अपराध कर दिया हो।
इसी प्रकार भोजपुरी गीत का एक रूप प्रलाप का है। समाज का वंचित तबका रोजी-रोटी और इज्जत के साथ जीने के लिए प्रलाप करता है। सोचिए कि हिन्दी में इस तरह प्रलाप क्यों सामने नहीं आता? यह केवल लोकगीतों में ही क्यों प्रत्यक्ष होता है।
बहरहाल आप जवाब तलाशने की कोशिश करेंगे तो जवाब मिलेंगे भी। लोक संस्कृति कोई पेंडुलम नहीं है जो तत्समता और तद्भवता के बीच डोलती रहे। यह जनता की संस्कृति है जिसकी अपनी परिभाषायें हैं और अपने शब्द और सुर भी। इसमें महिलायें स्वतंत्र हो जीती हैं और मरती भी हैं। यही सकारात्मकता है लोक संस्कृति की। यहां योनि का भी गरिमामय अस्तित्व है और चोली भी भीख में दिया हुआ वस्त्र नहीं।
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यह लेख कल्पना पटोवारी ने लिखा है जो भारत की सुप्रसिद्ध लोक गायिका हैं।
तस्वीर साभार : thehealthy