28 सितंबर 2018, यह वह तारीख है जिस दिन सबरीमाला मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट ने एक बड़ा फैसला सुनाया था। सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अगुआई वाली पांच जजों की बेंच ने सबरीमाला मंदिर मामले में 4-1 के बहुमत से फैसला सुनाया था। अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने सबरीमाला मंदिर में 10 से 50 साल तक की महिलाओं के प्रवेश पर लगी रोक को असंवैधानिक करार दिया था। तब सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुनाने के दौरान कहा था- पितृसत्ता के नामपर समानता से खिलवाड़ की छूट नहीं दी जा सकती। सुप्रीम कोर्ट के इस वक्तव्य को लैंगिक समानता की एक अहम जीत के रूप में देखा जा रहा था। देश के सर्वोच्च न्यायालय ने हमें ये कानूनी तौर पर उम्मीद दी थी कि हां, हमें बराबरी का अधिकार मिला है। पीरियड्स के चंद दिन जो कि पूरी तरह से एक बायॉलॉजिकल प्रक्रिया है उसके आधार पर हमें अछूत मानना संविधान के खिलाफ है। यह फैसला सिर्फ मंदिर में प्रवेश करने की लड़ाई नहीं थी। इसे सिर्फ मंदिर में प्रवेश से जोड़कर देखना गलत है। यह फैसला था उस धारणा के खिलाफ जिसके आधार पर मंदिर में महिलाओं के जाने पर रोक थी। हालांकि उस वक्त भी पांच जजों की बेंच में शामिल जस्टिस इंदु मल्होत्रा ने बाकी के जजों से अलग फैसला देते हुए कहा था कि ये तय करना अदालत का काम नहीं है कि कौन सी धार्मिक परंपराएं खत्म की जाएं। लेकिन फिर भी जजों ने 4-1 की बहुमत से फैसला सुनाया था।
हर फैसले की तरह सबरीमाला पर भी पुनर्विचार याचिकाएं दाखिल की गई थी जिनपर कोर्ट ने अपना फैसला सुनाने के लिए 14 नवंबर की तारीख मुकर्र की थी। अयोध्या जमीन विवाद पर आए फैसले के बाद ज़हन में ये सवाल बार-बार उठ रहा था कि ये देश आस्था से चलेगा या तर्क से। मन में एक उम्मीद थी कि सुप्रीम कोर्ट अपने फैसले पर बरकरार रहेगा। 14 नवंबर को चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने 3-1 की बहुमत से सबरीमाला फैसले पर दाखिल सभी पुनर्विचार याचिकाओं को बड़ी बेंच के हवाले कर दिया। यानी अब इन याचिकाओं पर फैसला 7 जजों की बेंच करेगी। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने 14 नवंबर के फैसले पर कोई रोक नहीं लगाई है। हम उम्मीद जता रहे थे कि कोर्ट सबरीमाला पर एक स्पष्ट फैसला देगा। 28 सितंबर को लैंगिक समानता और बराबरी के अधिकार का तर्क देने वाला सुप्रीम कोर्ट एकबार फिर सबरीमाला के फैसले को एक मिसाल की तरह पेश करेगा। लेकिन इस दौर में हर संवैधानिक संस्था से मानो निराशा ही हाथ लगनी बाकी रह गई है। सबरीमाला पर एक कड़ा फैसला दे चुका सुप्रीम कोर्ट इस बार यह फैसला नहीं ले पाया कि सबरीमाला मंदिर की प्रथा की नींव पितृसत्ता की बुनियाद पर ही टिकी हुई है।
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सबरीमाला पर दाखिल पुनर्विचार याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट ने जो बड़ी बातें कही वे कुछ इस प्रकार हैं
3 जजों ने इस मामले में यह पाया कि पूजास्थलों पर महिलाओं के प्रवेश का मामला सिर्फ मंदिर से नहीं जुड़ा है।
दरगाह और मस्जिदों में मुस्लिम महिलाओं, अग्यारी में पारसी महिलाओं और बोहरा समुदाय में महिलाओं का खतना जिसे हम Female Genital Mutilation जैसे मामले भी इससे जुड़े हैं।
चीफ जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस इंदू मल्होत्रा और जस्टिस खानविलकर ने कहा कि धार्मिक गतिविधियों में कोर्ट दखल दे सकता है या नहीं यह मामला बड़ी पीठ को सौंपा जाए।
जबकि जस्टिस नरीमन और जस्टिस चंद्रचूड़ ने बहुमत से अलग राय दी। जस्टिस नरीमन ने कहा कि पुनर्विचार याचिका में कही गई बातों पर 28 सितंबर 2018 को ही बहस की जा चुकी है। जस्टिस नरीमन ने सबरीमाला से दूसरे मामलों को जोड़े जान के खिलाफ भी राय दी।
कोर्ट ने एकबार फिर से सबरीमाला को आधार बनाते हुए हम वहां लाकर खड़ा कर दिया है जहां हम ये सोचते थे कि लैंगिक समानता की कानूनी लड़ाई हम संविधान को हाथ में लेकर लड़ सकते हैं।
सुप्रीम कोर्ट सबरीमाला से जुड़ी याचिकाएं बड़ी बेंच के पास भेजते हुए शायद यह भूल गया कि मस्ज़िदों/दरगाह में मुस्लिम महिलाओं के प्रवेश और दाउदी बोहरा समुदाय में महिलाओं के खतने से जुड़ी याचिकाएं भी कोर्ट में दाखिल की जा चुकी हैं। जबकि दूसरी ओर सबरीमाला मंदिर एक ऐसा मामला है जिस पर कोर्ट पहले ही फैसला सुना चुका है। ऐसे में कोर्ट का इस केस पर स्पष्ट फैसला न देना बराबरी की लड़ाई को कानूनी रूप से कमज़ोर बनाता है। जिस कोर्ट परिसर में पहले यह बयान दिया कि संविधान के अनुच्छेद 17 और अनुच्छेद 14 के आधार पर महिलाओं के साथ हो रहा भेदभाव असंवैधानिक है वही कोर्ट अपने फैसले पर टिक नहीं पाया। हमें उम्मीद थी कि 28 सितंबर की तरह ही इस बार कोर्ट संविधान को सर्वोपरि मानते हुए अपने फैसले पर कायम रहेगा, पुनर्विचार याचिकाओं के तर्क जो गैरबराबरी पर आधारित हैं उन्हें खारिज किया जाएगा।
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सबरीमाला पर स्पष्ट फैसला न देना और फिर इसके साथ दूसरे मामलों को जोड़ना निराश करता है। जस्टिस नरीमन और जस्टिस चंद्रचूड़ ने भी अलग राय देते हुए यही कहा कि जो मामले हमारे सामने है ही नहीं उनसे सबरीमाला को जोड़ना सही नहीं है। 14 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट ने जो तर्क दिए उससे बार-बार यह सवाल ज़हन में उतरता है कि चूंकि यह मामला आस्था से जुड़ा था और 28 सितंबर के फैसले के बाद केरल में बड़े पैमाने पर हिंसा भड़की थी तो क्या सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले पर बचने की कोशिश की है? संविधान ही वह किताब है जिसने पहली बार ये माना था कि इस देश में सब बराबर हैं। किसी भी व्यक्ति के साथ लिंग, रंग, जाति, भेष, जन्म के स्थान आदि के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाता।
यह फैसला न सिर्फ सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश से जुड़ा है बल्कि एक राजनीतिक पार्टी की बहुसंख्यकवाद की राजनीति और एक खास धर्म की आस्था से जुड़ा है।
मी लॉर्ड यहां याद दिलाना ज़रूरी है कि सबरीमाला में महिलाओं के प्रवेश पर रोक का आधार पीरियड्स है, माहवारी है। हमारे समाज में आज भी पीरियड्स के दौरान लड़कियों को अछूत माना जाता है, अपवित्र माना जाता है जो कि पूरी तरह अतार्किक है, दकियानूसी है। लेकिन हम देश के सर्वोच्च न्यायालय से स्पष्ट न्याय की उम्मीद करते हैं, तर्क की उम्मीद करते हैं, संविधान में प्रदत्त बराबरी की भावना की उम्मीद करते हैं। लेकिन कोर्ट ने एकबार फिर से सबरीमाला को आधार बनाते हुए हम वहां लाकर खड़ा कर दिया है जहां हम ये सोचते थे कि लैंगिक समानता की कानूनी लड़ाई हम संविधान को हाथ में लेकर लड़ सकते हैं। या हम यह मानकर चले कि सर्वोच्च न्यायालय भी अब इस बात को लेकर स्पष्ट नहीं है कि इस देश में महिलाएं संवैधानिक तौर पर बराबरी की हकदार हैं, ज़मीनी हकीकत में भले ही आसमान-ज़मीन का फर्क हो। केरल की उन महिलाओं तक क्या संदेश गया होगा जो लैंगिक समानता के हक में एकसाथ खड़ी थी? उन उपद्रवियों का क्या होगा, राजनीति से प्रेरित उन कार्यकर्ताओं का क्या होगा जो हिंसा दोहराने की ताक में होंगे? किस मुंह से हम कहेंगे पीरियड्स के आधार पर हमें अछूत नहीं माना जा सकता।
इस बात में कोई दो राय नहीं है कि यह फैसला न सिर्फ सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश से जुड़ा है बल्कि एक राजनीतिक पार्टी की बहुसंख्यकवाद की राजनीति और एक खास धर्म की आस्था से जुड़ा है। लेकिन यहां सवाल यह है कि क्या संविधान को लागू करना जिस संस्था की ज़िम्मेदारी है वह भी लैंगिक समानता को लेकर स्पष्ट राय नहीं देगा? क्या वह भी इस बात से कहीं न कहीं सहमत होता दिखेगा कि आस्था से जुड़े मामलों में तर्क और विवेक को वरीयता नहीं दी जाएगी? कुल मिलाकर बस इतना कि आपके फैसले ने हमें बेहद निराश किया है।
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तस्वीर साभार : worsonlinenews
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