बच्चा कोई भी ग़लती करे घर हो या बाहर हमेशा यही कहा जाता है ‘लगता है इसकी माँ ने इसे कुछ नहीं सिखाया!’ अगर कोई बड़ी उम्र का व्यक्ति तक कोई ग़लती करे तब भी यही कहा जाता है। आज कितने विज्ञापनों में माँ ही बच्चे को डाइपर पहनाने से लेकर, अच्छी आदतें सिखाना, उसके कपड़े साफ़ कैसे धोने हैं और उसके दिमाग की शक्ति के लिए उसे हेल्थ ड्रिंक पिलाना सबकुछ माँ ही करती हुई नज़र आती है। मां को ही डॉक्टर, शेफ़, टीचर और हर काम मैनेज करने वाली सुपरवुमन बनाकर पेश किया जाता है। एक तरह से पूंजीवादी पितृसत्ता ने माँओं को एक ऐसी संस्था बना दिया है जो हर तरीक़े से बच्चे के विकास के लिए ज़िम्मेदार है।
इस बात में कोई शक नहीं कि पितृसत्ता ने हमेशा से औरतों को अपने काबू में रखना चाहा है। एक लड़की के बड़े होते ही उसे उसके छोटे भाई-बहनों की ज़िम्मेदारी थमाई जाती है। साथ ही घर के सभी कामकाज भी उनसे कराये जाते हैं और ये सारे भेदभाव सिर्फ़ जेंडर की तर्ज पर किए जाते है। हमेशा से लड़कियों के खिलौनों से लेकर उनके पहनावे तक में ये जेंडर का भेद उन्हें दिखाया-समझाया जाता है। उनके लिए पूंजीवादी पितृसत्ता किचन सेट जैसे खिलौने भी तैयार करके रखती है। ये बहुत ही गहरा भेद-भाव है जेंडर में। उसे गुलाबी और नीले रंगों में बांटना, दो खाकों में बांटना। इस तरह ये पितृसत्तात्मक समाज एक माँ का निर्माण करता है।
सिर्फ़ माँ ही क्यों है ज़िम्मेदार
एक बच्चे के जन्म से लेकर, उसके बड़े होने तक, एक माँ को ही उसका कर्ता-धर्ता बना दिया जाता है। उसकी सारी ज़िम्मेदारी, उसका खानापान-पढ़ाई सबकुछ की डोर माँ के हांथो सौंप दी जाती है। और इस बीच महिलाओं को लगातार मीडिया और अलग-अलग विज्ञापनों से सिखाया-समझाया जाता है कि वो अपने बच्चे की देखरेख कैसे करें। फ़िल्मों में भी एक समय था जब माँ का किरदार कितना प्रचलित था। वहीँ टीवी के सीरियल्स भी ये सिखाने से नहीं चूके कि एक अच्छी माँ के क्या-क्या गुण होते हैं। ये समझना समाज में इतना मुश्किल क्यों है कि बच्चा अकेला माँ की ही ज़िम्मेदारी नहीं है, बल्कि माता-पिता दोनों ही उसके विकास के लिए उत्तरदायी है। बच्चे की पूरी स्कूली जीवन में भी माँ सारा काम और पूरा किरदार निभाती हुई नज़र आती है, उसके लंच बॉक्स से लेकर पैरेंट टीचर मीटिंग तक के सारे काम मां ही पूरी करती हुई हम सभी को नज़र आती है।
समाज बच्चे की हर उलटी बात पर यही कहता है की इसकी मां ने इसे कुछ नहीं सिखाया, हम जब किसी बच्चे की परवरिश पर सवाल उठाते हैं तो सीधा-सीधा उसकी माँ पर ही धावा बोलते है।
माँ की ज़िम्मेदारी पर क्या है विचारधारा?
ऐसी विचारधारा पितृसत्ता के ढांचें से होकर निकलती है, जो यही बतलाती है की घर और बच्चों की सारी ज़िम्मेदारी महिलाओं की होती है और घर के बाहर के सभी काम पुरुषों के। ऐसा कोई क्यों नहीं सोचता की बच्चों को संभालना उनमें नैतिकता लाना ये सब अकेले माँ नहीं कर सकती क्योंकि ये धारणा बनाना की माँ भगवान के समान होती है ऐसे में उन्हें हम एक पूजनीय स्थान पर बिठाकर ये भूल जाते हैं की वो भी एक इंसान है कि उनकी भी इच्छाएं होती है। अपनी खुद की भावनाएं होती है, बल्कि ये समझना की उनका अपना एक जीवन होता है। लेकिन घर और बच्चों की सारी ज़िम्मेदारियाँ उन्हें सौंप कर उनके जीवन का एकमात्र यही मरकज़ बना दिया जाता है।
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पिता से क्यों नहीं करता सवाल?
हर बार हर सवाल मां पर ही क्यों उठायें जाते हैं? समाज क्यों इस बात को गले से लगाएं बैठा है कि हाँ, बच्चा तो मां की ज़िम्मेदारी है और इसीलिए एक मां ही जवाबदेही है बच्चे की हर करनी की! सोचने वाली बात ही यही है की समाज बच्चे की हर उलटी बात पर यही कहता है की इसकी मां ने इसे कुछ नहीं सिखाया, हम जब किसी बच्चे की परवरिश पर सवाल उठाते हैं तो सीधा-सीधा उसकी माँ पर ही धावा बोलते है। जैसे-तैसे हर सवाल मां तक आकर रुक जाता है। इसतरह एक ही इन्सान को वो संस्था बना देना, जिसके माध्यम से एक बच्चा हर बात सीख समझ जाएगा ये बच्चे के विकास के लिए बुरा तो है ही साथ ही पितृसत्ता के द्वारा थमाया गइ वो डोर है जो एक महिला को ही बोझिल करती है।
कैसे टूटेगा ये रिवाज़?
ये विचारधारा एक रिवाज़ सी बनती नज़र आती है, लेकिन इसे तोड़ना मुश्किल नहीं है। लैंगिक समानता के छोटे-छोटे कदमों से हम इसमें सुधार कर सकते हैं। क्योंकि हर बार ज़रूरत नहीं की मां ही बच्चे के स्कूल जाए या जब वो कोई ग़लती करे तो उसे सिर्फ़ वही समझाएं। एक कदम पीछे लें और उनके पिता को इस बात की याद दिलाएं की वो भी इतने ही ज़िम्मेदार हैं जितनी आप है। समाज आपके इस फ़ैसले में ज़रूर बीच में आकर बार-बार बोलेगा लेकिन, इसे तोड़ना बेहद ज़रूरी है। जिससे अगली बार कोई भी किसी बच्चे को टोके तो इसमें आप दोनों की साझी ज़िम्मेदारी हो। ना की एकमात्र सिर्फ़ मां की ज़िम्मेदारी हो।
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