समाज में एक आम धारणा बनी हुई है कि नारीवाद केवल महिलाओं के हक के लिए लड़ता है। ये एक मिथ्य है, क्योंकि वास्तव में नारीवाद की असली लड़ाई इस समाज की पितृसत्तात्मक व्यवस्था से है जो न केवल महिलाओं के लिए हानिकारक है बल्कि पुरुषों का जीवन भी बर्बाद कर रही हैं। इसी तर्ज़ पर, आज हम ऐसे पाँच बिंदुओं को जानेंगे, जिसके कारण एक पुरुष को भी नारीवादी होना चाहिए –
मर्दानगी के खाँचे में पिसता पुरुष
मर्द होना हमारे समाज में पुरुषों के लिए बेहद ज़रूरी समझा जाता है। ढेरों विशेषाधिकारों से लैस ये मर्दानगी जितनी सुनहरी दिखती है, वास्तव में ये बिलकुल भी वैसी नहीं होती। क्योंकि ये एक पुरुष के इंसान होने के गुणों को छीन लेती है। पितृसत्ता में पुरुषों ने अपने प्रभुत्व को बरकरार रखने के लिए पुरुषत्व के कई ऐसे रूढ़िवादी मानदंडों के पहलू बना रखे है जो कि पुरुषों को अपने जीवन, मन और व्यक्तित्व के कुछ हिस्सों की खोज करने में असहज महसूस कराते हैं।
मर्दानगी के मानदंडों को बनाए रखने का एक बड़ा पहलू यह है कि पुरुष अक्सर ऐसे मानदंडों पर सवाल उठाने का अधिक प्रयास नहीं करते हैं। जब पुरुषों को लैंगिक समानता की पैरवी करने पर अलग-अलग नाम से बुलाया जाता है तो ऐसे में वे मर्दानगी के रूढ़िवादी दोषों को स्वीकार करने की बजाय उसका विरोध नहीं करते। भले ही इसका मतलब हानिकारक, विनाशकारी और घृणा से भरे मानदंडों को बनाए रखना है जो नकारात्मक रूप से उन लोगों को प्रभावित करते हैं। नारीवाद पितृसत्ता के इन्हीं मूल्यों पर सवाल करता है, इसलिए एक पुरुष को भी नारीवादी होना चाहिए, न केवल दूसरे के लिए बल्कि अपने लिए भी।
तथाकथित ‘पुरुषत्व’ की होड़ में पिछड़ता ‘पुरुष’
पुरुषत्व के पितृसत्तात्मक मानदंडों के सबसे नकारात्मक पहलुओं में से एक पुरुषों की एक-दूसरे के साथ लगातार प्रतिस्पर्धा में रहने की प्रवृत्ति है। कई पुरुषों के जीवन का लगभग हर पहलू खुद को अन्य पुरुषों, या सामान्य रूप से अन्य लोगों की तुलना में बेहतर देखने की ज़रूरत से प्रभावित होता है। इसमें शारीरिक रूप से ताकतवर दिखना शामिल हैं, जैसे कि बड़ी मांसपेशियों के विशिष्ट इरादे के लिए बाहर काम करना,सिक्स पैक एप्स,ताकि दूसरों पुरुषों की तुलना में अधिक ताकतवर दिख सके। जहां पुरुष महिलाओं को एक वस्तु की तरह देखते है, जिन्हें हासिल करने के लिए ये सब हथकंडे अपनाते है।
इस दिशा में नारीवाद एक ऐसी जगह बनाने में अधिक रुचि रखते हैं जो यथासंभव कई लोगों के लिए सुरक्षित और आरामदायक महसूस करता है। यह उन कई पुरुषों के लिए फायदेमंद हो सकता है, जिन्हें अपने जीवन में दूसरों को स्वीकार करने में परेशानी होती है, बिना उनसे बेहतर होने की ज़रूरत महसूस किए — वे हर दिन खुद को घेरने वाली प्रतियोगिता से वास्तव में खुद को अलग करने का एक तरीका खोज सकते हैं।
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इंसानी गुणों का पैरोकार ‘नारीवाद’
पुरुषों को इस बात का एहसास नहीं है कि पितृसत्तात्मक समाज के पुरुषत्व वाले जाल में खुद को गिरने देना न केवल उन लोगों को चोट पहुँचा रहा है जो वे जीवन में शामिल होना चाहते हैं। बल्कि यह खुद उन्हें भी चोट पहुँचा रहा है। जैसे कि वे वास्तव में खुद को तलाश नहीं सकते हैं और समझ सकते हैं कि लिंग की यथास्थिति को बनाए रखने की तुलना में अधिक जीवन है । ऐसे में नारीवाद उन्हें पुरानी धारणाओं से छुटकारा पाने की कोशिश करता है जो ‘वास्तविक पुरुष’ या ‘वास्तविक महिला’ होने का मतलब रखती हैं। नारीवादी उन मानदंडों को खत्म करने का प्रयास है, जो किसी भी इंसान को इंसानी गुणों के इतर चंद खाँचों में ढालने की बात करत है।
सत्ताधारी पितृसत्ता को चुनौती
पितृसत्ता ने इस धारणा का समर्थन किया है कि पुरुष दूसरों की तुलना में स्वाभाविक रूप से बेहतर हैं, बस एक पुरुष होने के नाते। इसी धारणा के चलते घर के लेकर समाज तक और हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी से लेकर तीज-त्योहार तक, इन सभी में ऐसे लैंगिक भेदभाव को बढ़ावा दिया जाता है, जिसमें पुरुष को शक्तिशाली, योग्य और मालिक की भूमिका में रखा जाता है। वहीं अन्य जेंडर को निचले पायदान पर। ऐसे में नारीवाद लैंगिक समानता की बात करत है, जो किसी भी घर-समाज-देश के विकास और उत्थान के लिए बेहद ज़रूरी है।
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इंटरसेक्शनल वाला नारीवाद
हालांकि, पितृसत्ता सभी पुरुषों को एक या दूसरे तरीके से फायदा पहुंचाती है। लेकिन यह सभी पुरुषों को समान तरीके से समर्थन नहीं करती है। क्योंकि आप एक गोरे आदमी के विपरीत एक काले आदमी हैं? या एक अमीर आदमी के विपरीत एक गरीब आदमी? एक ट्रांस मैन, एक विकलांग आदमी, एक आप्रवासी आदमी, या एक अशिक्षित आदमी के रूप में एक सीआईएस आदमी, एक सक्षम आदमी, एक पुरुष नागरिक, या एक शिक्षित आदमी के विपरीत हैं? तो ऐसे में पितृसत्ता के सुर बदल जाते है।
ऐसे में नारीवाद, इंटरसेक्शनल विचार के आधार पर लैंगिक समानता की पैरवी करता है, जो यह मानती है कि हर इंसान की पृष्ठभूमि, शारीरिक संरचना, धर्म, जाति या यों कहें कि उसकी यौनिकता समाज में उसके विशेषाधिकारों को सीधेतौर पर प्रभावित करती है। इसलिए उन सभी भेदों को ध्यान में रखकर हमें लैंगिक समानता को देखना-समझना और लागू करना होता।
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तस्वीर साभार : indiamike