समाजख़बर एक केस में फांसी देने से नहीं, लड़कों को संवेदनशील इंसान बनाने से आएगा बदलाव !

एक केस में फांसी देने से नहीं, लड़कों को संवेदनशील इंसान बनाने से आएगा बदलाव !

हमने महिला को उनके अधिकारों के बारे जागरूक किया है। लेकिन उनके अधिकारों का सम्मान कैसे करना है, ये बात अपने बेटों को नहीं बताया।

यक़ीन कीजिए, अनुभव के आधार पर कह रही हूं बेटी नहीं, बेटा पैदा करना एक बड़ी ज़िम्मेदारी है। ज़िम्मेदारी उसे बराबरी सीखाने की, दूसरे लिंग को अपनी संपत्ति, खुली-तिजोरी या कोई चीज़ नहीं बस अपने बराबर इंसान समझने की समझ रखने की। घर से ही उसे अपनी माँ, बहन, भाभी पर नज़र रखने की जग़ह खुद के चाल-चलन पर नज़र रखना सीखने की। वो तो आदमी है ऐसा करेगा ही, वो लड़का है नंगा भी घूम लेगा और लड़का तो कुल का दीपक होता है जैसी रोज़मर्रा की अनगिनत बातें, बचपन से ही एक बच्चे को ‘पुरुष’ बनाने में अपनी अहम भूमिका अदा कर उसे सत्ता करना और दूसरे लिंग का शोषण करना सीखाती आ रही हैं और कमोबेश आज भी सिखा रही हैं।

आप कह रहे हैं बलात्कारियों को फांसी मिलने के बाद ज्योति सिंह को इंसाफ़ मिल गया! हम कब अपने लड़कों को पितृसत्ता का तोहफ़ा देना बंद कर उनके साथ इंसाफ़ करना शुरू करेंगे? ज्योति सिंह को तो रात में फिल्म देखकर घर लौटना उसका अधिकार है, सीखा दिया। आज़ाद ज्योति सिंह की आज़ादी को स्वीकार कर पाएं यह कब अपने लड़कों को सिखाएँगे? यह कब सिखाएंगे कि, उनके घर का चिराग़ अपनी और दूसरों की ज़िंदगी रौशन करने के लिए है न की उनकी ज़िंदगी में आग लगाने के लिए। हम हर स्तर पर अपनी पूरी ऊर्जा सदियों से सिर्फ़ महिलाओं पर झोंकते आ रहे हैं। कभी उन्हें पितृसत्ता के ढाँचे में ढालने के लिए तो कभी उन्हें इससे उभारने के लिए। आज हमने महिला को उनके अधिकारों के बारे जागरूक किया है, उन्हें ‘आज़ादी’ और ‘इंसान’ होने के मौलिक अधिकारों का पाठ भी पढ़ाया है। लेकिन उनके अधिकारों का सम्मान कैसे करना है, ये बात अपने बेटों को नहीं बताया। हमने ये नहीं सिखाया है कि महिलाएँ भी इंसान है, जिनके मौलिक अधिकार है और किसी को भी उनके अधिकारों का हनन करने का अधिकार नहीं है।

ऐसे में जब दिल्ली गैंगरेप पीड़िता ज्योति सिंह के दोषियों को सात साल बाद फांसी की सज़ा होती है और जब इन चारों दोषियों के घरों का चिराग़ बुझा तो पूरी दुनिया ने इसका जश्न मनाया, लोग कह रहे हैं अब बलात्कारी सुधर जाएँगे! पर हम कब सुधरेंगे ये नहीं मालूम। उनको फांसी से पहले हर दूसरा पुरुष उन्हें तड़पा-तड़पा के मारने की बात कर रहा था।

हमें समझना होगा कि घर की बेटी के साथ हिंसा हो या घर के बेटे को सज़ा मिले, दुःख दोनों हालत में होता है। इसलिए अब हमें अपनी ऊर्जा शिफ़्ट करने की ज़रूरत है।

ध्यान रहे कि यही पुरुष अपने घरों की महिलाओँ पर हाथ उठाते हैं, उन्हें जानवरों की तरह पीटते हैं, महिलाओं पर आते-जाते भद्दी टिप्पणियाँ करते हैं। तो क्या वे खुद के लिए भी इसी सज़ा की माँग करेंगे? इस पर कुछ कहेँगे इसमें क्या तुक है, “निर्भया को इन्होंने बहुत बेरहमी, क्रूरता से मारा।” तो क्या हर रोज़ अपने पति, भाईयों, पिता से महिलाएं यह क्रूरता नहीं झेल रही हैं? बस इतना की अपनी मर्दानगी को सुकून पहुंचाने के लिए उन चारों के लिए यह याचना मत कीजिए। ख़ुद के अंदर झाकिये और गहरा आत्मचिंतन कीजिए की आपके लिए क्या सज़ा होनी चाहिए।

ज्योति सिंह के परिवार के लिए दुखी होना लाज़मी है। लेकिन उन पाँचों अपराधियों जिन्हें फांसी मिली उनके परिवार वालों के लिए भी दुख और तक़लीफ़ है, इस संवेदनशीलता को मत ख़त्म होने दीजिए। बलात्कार और महिला हिंसा का ये कोई एक मामला नहीं है। आए दिन हम अख़बारों में ढेरों ख़बर पढ़ते है, कभी बलात्कार तो कभी घरेलू हिंसा तो कभी दहेज उत्पीड़न की। हमें समझना होगा कि घर की बेटी के साथ हिंसा हो या घर के बेटे को सज़ा मिले, दुःख दोनों हालत में होता है। इसलिए अब हमें अपनी ऊर्जा शिफ़्ट करने की ज़रूरत है। तभी हम किसी सकारात्मक सामाजिक बदलाव की कल्पना कर सकते हैं।

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बचपन से संवेदनशीलता का बीज़ अपने घर के लड़कों में डालिए। ये कोई एकदिन की बात या काम नहीं है। हमें इसे अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में शामिल करना होगा। हमें बच्चों को बताना होगा कि घर का क़ाम बहनों के साथ भाई की भी ज़िम्मेदारी है। इसके साथ ही, जैसे पुरुष अपने काम की अहमियत समझते हैं वैसे ही आप पत्नी के कामों की क़द्र कीजिए। बच्चों को सीख देने से पहले खुद सड़क पर चलते हुए आती-जाती महिलाओं को देख उन पर गन्दी टिप्पणी करना बंद कीजिए। बेटी के पैदा होने पर शोक मना कर, बेटा पैदा करने की तैयारी में लग जाने की जग़ह पैदा हुई बच्ची को प्यार, अधिकार और उसे सम्मान दीजिये। तब जाकर कुछ बदलने की उम्मीद भर कर सकते हैं।

वैसे मुकेश सिंह, पवन गुप्ता, विनय शर्मा और अक्षय कुमार सिंह यह सभी आरोपी बहुत ग़रीब तबके से थे लेकिन चिन्मायानंद और कुलदीप सिंग सेंगर विशेषाधिकार के साथ उच्च वर्ग से थे और इन्होने भी वही किया था जो ज्योति सिंह के आरोपियों ने किया था। तो इन्हें फांसी क्यों नहीं दी गई? क्या यहाँ आपका ख़ून नहीं खोला?

 सोचिएगा! इसलिए कह रही हूँ, आत्मचिंतन कीजिए और सोचिए कि न्याय पर सबका अधिकार है।

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यह लेख किरन राय ने लिखा है, जो दिल्ली में रहती हैं और महिला स्वास्थ्य व जेंडर अधिकार पर कई सालों से काम कर रही हैं।

तस्वीर साभार : Business Today

Comments:

  1. Aman Srivastava says:

    ये एक सिलसिला है जो कभी न खत्म होने वाली वारदातों के रूप में प्रकट होता है
    गलती किसकी, सजा किसको किसको, परिवार और समाज दोनों
    ये तभी रुकेगा जब सत्ता का पूर्ण रूप से बदलाव हो जाये

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