हमारे देश में छात्रों का एक बड़ा हिस्सा बचपन से ये सुनता आ रहा होता है कि आगे जाकर साइंस की स्ट्रीम लेनी है। इंजीनियरिंग या मेडिकल के क्षेत्र में उच्च शिक्षा हासिल करके एक अच्छी खासी नौकरी करनी है। इसलिए देश में इतने बच्चे बहुत छोटी उम्र में ही तमाम इंजीनियरिंग और मेडिकल एंट्रेंस परीक्षाओं की तैयारी करने में लग जाते ताकि आगे जाकर उन्हें अच्छे कॉलेज में एडमिशन मिले। पर इस बीच हम शायद ये पूछना भूल जाते हैं कि क्या हमारे देश में विज्ञान शिक्षा की संस्थाएं समावेशी हैं? क्या हर तबके से आनेवाले छात्र को विज्ञान में आगे की पढ़ाई करने के लिए बराबर मौक़ा मिलता है? कहीं वंचित वर्गों के छात्र पीछे तो नहीं छूट रहे?
शोध से पता चला है कि आज भी हमारे देश में ‘स्टेम’ यानी साइंस, टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग, मैथ्स के विषयों की पढ़ाई ज़्यादातर अभिजात वर्गों तक ही सीमित रह गई है। हालांकि आज हर संस्था में आरक्षण है और संवैधानिक रूप से हर वर्ग को शिक्षा का समान अधिकार है लेकिन वास्तव में हक़ीक़त काफ़ी अलग है और देश की सबसे बड़ी संस्थाओं में भी छात्रों और शिक्षकों को जाति के आधार पर भेदभाव का शिकार होना पड़ता है।
साल 2017 से साल 2018 के बीच आईआईटी मद्रास में सिर्फ़ 7 फ़ीसद पीएचडी के छात्र ऐसे थे जो अनुसूचित जाति या एससी के थे। एसटी या अनुसूचित जनजाति के पीएचडी छात्रों की संख्या इससे भी कम निकली। मात्र 0.8 फ़ीसद। यही नहीं, 8856 शिक्षकों में से भी 4876 जनरल केटेगरी से हैं। 329 अन्य पिछड़े वर्गों यानी ओबीसी से हैं। 149 एससी हैं और महज़ 21 एसटी हैं। यही नहीं, 8856 शिक्षकों में से भी 4876 जनरल केटेगरी से हैं। 329 अन्य पिछड़े वर्गों यानी ओबीसी से हैं। 149 एससी हैं और महज़ 21 एसटी हैं। ये वैषम्य चौंका देने वाला है और सोचने पर मजबूर करता है कि क्या आज़ादी के इतने सालों बाद हमारे समाज में बराबरी है?
इसे हम महज़ इत्तेफ़ाक़ कह सकते थे अगर ये सिर्फ एक संस्था की बात होती। पर देश के सारे 23 आईआईटीयों में यही हाल है। इन सभी संस्थाओं में कुल मिलाकर 9 फ़ीसद शिक्षक ही एससी/एसटी/ओबीसी हैं और 23 में से 15 संस्थाओं में तो एसटी का कोई शिक्षक है ही नहीं। क्या वजह हो सकती है इसकी? ऐसा क्या कारण हो सकता है जिसकी वजह से समाज के शोषितवर्ग विज्ञान में उच्च शिक्षा प्राप्त करने से वंचित रह जा रहे हैं?
शोध से पता चला है कि आज भी देश में साइंस, टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग, मैथ्स के विषयों की पढ़ाई ज़्यादातर अभिजात वर्गों तक ही सीमित रह गई है।
सीधा जवाब है ब्राह्मणवाद। आज 21वीं सदी में भी हम महाभारत के ज़माने से बहुत आगे नहीं बढ़ पाए हैं, जब एकलव्य को अपना अंगूठा काटकर गुरु द्रोणाचार्य को देना पड़ता था। नीची जाति से आनेवाले छात्रों, रिसर्च स्कॉलर्स और शिक्षकों को हर क़दम पर भेदभाव का मुक़ाबला करना होता है। उन्हें अच्छे अवसरों से वंचित किया जाता है। उनकी प्रतिभा के विकास के लिए उपयुक्त समय नहीं दिया जाता। उन पर जाति के आधार पर आक्रमण भी किया जाता है। ऐसे में ज़्यादातर उन्हें इस क्षेत्र में आगे की पढ़ाई या नौकरी करने की इच्छा नहीं रहती और थोड़ी बहुत प्राथमिक शिक्षा के बाद वे इसे आगे नहीं बढ़ाते।
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समाज की मुख्यधारा में नैरेटिव ये है कि सवर्ण छात्र ‘मेरिट’ की वजह से आगे बढ़ते हैं। उन्हें आरक्षण लेने जैसी ‘मुफ़्तख़ोरी’ करने की ज़रूरत नहीं है। पर हम अक्सर ये भूल जाते हैं कि अभिजात सवर्ण वर्ग के छात्र दलितों, आदिवासियों से कहीं ज़्यादा प्रिविलेज्ड या विशेषाधिकार मिला हैं और पहले से ही उनसे कई कदम आगे हैं। इसलिए दोनों में बराबर ‘मेरिट’ होने के बावजूद सदियों की सामाजिक व्यवस्था की वजह से एक दूसरे से हमेशा आगे रहा है। और जहां आज ज़रूरत है इस वैषम्य को कम करके प्रतियोगिता को बराबर बनाने की, ये बढ़ता ही चला जा रहा है क्योंकि सवर्ण समाज अपने पूर्वाग्रहों से, अपनी जातिवादी मानसिकता से उभरने को तैयार नहीं है।
दलित पिछड़ों के साथ विज्ञान के क्षेत्र में महिलाओं की भी कमी नज़र आती है। एक तरफ़ ये सच है कि विज्ञान में भारतीय महिलाओं ने बहुत झंडे गाड़े हैं, पर फिर भी ये बहुत छोटी संख्या है। हर रोज़ विज्ञान पढ़तीं महिलाएं ऊंचे पद की नौकरियों या उच्च शिक्षा से केवल इसलिए पीछे हट जाती है क्योंकि उन्हें घर परिवार का ध्यान रखना होता है। क्योंकि पढ़ाई या नौकरी के साथ घर की ज़िम्मेदारी संभालना उनके लिए मुश्किल हो जाता है। कॉलेज या कार्यस्थल में भी उन्हें भेदभाव का सामना करना पड़ता है। उन्हें तनख्वाह कम मिलती है। उन्हें पुरुषों से कम क़ाबिल समझा जाता है। उनकी शारीरिक कठिनाइयों को अहमियत नहीं दी जाती। और अक्सर उन्हें महज़ एक यौन वस्तु की तरह ही देखा जाता है। महिलाएं इन सब चीज़ों से पीड़ित होकर भी पढ़ाई या नौकरी छोड़ने के लिए मजबूर हो जाती हैं।
समाज के विभिन्न तबकों से आनेवाले छात्रों को वंचित करके भारत में विज्ञान सिर्फ़ अभिजात सवर्ण पुरुषों का क्षेत्र ही बन गया है। अगर हम चाहते हैं कि हमारा देश विज्ञान में प्रगति करे तो वैज्ञानिक शिक्षा एक ख़ास वर्ग के लिए सीमित नहीं रह जानी चाहिए। हमें कोशिश करने की ज़रूरत है कि समाज के हर वंचित वर्ग को ये शिक्षा लाभ हो ताकि एक समाज के तौर पर हम आगे बढ़ पाएं और ज़्यादा तरक्की कर सकें।
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