समाजख़बर निर्भीक कश्मीरी पत्रकारों का है ये पुलित्ज़र पुरस्कार

निर्भीक कश्मीरी पत्रकारों का है ये पुलित्ज़र पुरस्कार

बेशक पुलित्जर पुरस्कार की अपनी आलोचनाएं हैं। यहां अहम है कश्मीरी पत्रकारों के काम को अतंरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिलना।

ये पुलित्ज़र है उन तमाम पत्रकारों का, जिन्होंने सत्ता के प्रौपेगैंडे में शामिल होने से कर दिया है इनकार

5 मई को खबर आई कि कश्मीर के तीन पत्रकारों मुख्तार ख़ान, डार यानी और चन्नी आनंद को पत्रकारिता के सर्वोच्च सम्मान पुलित्ज़र से नवाज़ा गया है। ये तीनों फोटो जर्नलिस्ट असोसिएटेड प्रेस (एपी) के साथ जुड़े हैं। इन्हें फीचर फोटोग्राफी पुलित्ज़र मिला है। यह उस देश के लिए गौरव की बात होनी चाहिए थी जहां की आवाम की राजनीतिक ट्रेनिंग कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग मानने की हुई है। लेकिन हुआ इसका उल्टा। 

देश के तथाकथित राष्ट्रीय न्यूज़ चैनलों के लिए यह खबर ही नहीं रही। खबर तब बनी जब विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने सम्मानित पत्रकारों को बधाई दी। चैनल बताने लगे कि भारत की छवि करने वाली तस्वीरों को पुलित्ज़र अवार्ड मिला है। चैनलों ने राहुल गांधी को ही एंटी-नेशनल घोषित कर दिया। राइट विंग आइटी सेल ने राहुल गांधी और पत्रकारों को ऐंटी-नेशनल साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

बीते वर्षों में  भारतीय पत्रकारिता के मायने बदल चुके हैं। अधिकांश मीडिया संस्थानों में पत्रकारिता का अर्थ सत्ता से सवाल पूछने, जनसरोकार की बातें करने की जगह सत्ता के हर फैसले को सही ठहराना हो गया है। ये पुलित्ज़र वाली घटना भारतीय मीडिया के पतनकाल की फेहरिस्त में एक और उदाहरण के रूप में जुड़ गया। सनद रहे कि पुलित्ज़र जीतने वाले तीनों कश्मीरी पत्रकारों ने कश्मीर का हाल-ए-बयां तब किया था जब भारतीय मीडिया का एक बड़ा हिस्सा कश्मीर से अनुच्छेद 370 रद्द किए जाने के फैसले को मास्टरस्ट्रोक बता रहा था।

दुनिया के सबसे ज्यादा मिलिटराइज़्ड ज़ोन से पत्रकारिता करना कोई बच्चे का खेल नहीं है। उसके अपने खतरे और चुनौतियां हैं। यह शायद बड़े चैनलों के वे प्राइम टाइम एंकर्स नहीं समझ सकेंगे जिन्होंने श्रीनगर के एक कोने में खड़े होकर ये दिखाने की कोशिश की कि कश्मीर अब असल मायने में ‘जन्नत’ बन चुका है। जिस दौरान आम कश्मीरी अपने परिवार से मिलने के लिए बेचैन था, जब उन्हें बुनियादी सुविधाएं नहीं मिल पा रही थी, वे आर्थिक रूप से टूट रहे थे तब भारतीय मीडिया का एक बड़ा हिस्सा कश्मीर के हालात को सामान्य बताने में दिन-रात एक कर रहा था। मानो कश्मीरियों के लिए जैसे सिर्फ सांस लेते रहना ही सामान्य होने के दायरे में आ गया।

सत्ता के प्रौपगैंडे का विस्तार किया है भारतीय मीडिया ने। नतीज़ा यह हुआ है कि आम भारतीयों में   कश्मीरियों के प्रति नफरत भर दी गई है। कश्मीरी होने का पर्याय ‘आतंकवादी’ और ‘पत्थरबाज़ी’ कर दिया गया है। देशविरोधी और देशद्रोही जैसे शब्दों में कश्मीरियों को परिभाषित किया जाने लगा है। कश्मीर का मतलब आम भारतीयों के लिए एक ज़मीन का टुकड़ा भर हो गया। गौरतलब है कि धारा 370 हटाया जाना एक राजनीतिक फैसला था। उस फैसले पर तर्क किए जा सकते हैं। पर जो सबसे पहले प्रतिक्रिया हुई, वह थी कश्मीरी लड़कियों से ब्याह करने की ख्वाहिश। ख्वाहिश शायद सही शब्द नहीं, भाषा और प्रतिक्रियाएं कुंठा से लैस थीं। कश्मीर में ज़मीन खरीदने और बसने की बातें होने लगी। देश के कई हिस्सों में कश्मीरियों के साथ हिंसा की घटनाएं सामने आने लगी। एक ऐसा नैरेटिव तैयार किया गया जैसे कश्मीरियों के खिलाफ चल रही कोई जंग जीत ली गई हो। और इनसब में मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका रही।

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तस्वीर- ज़ी न्यूज़

पत्रकार को कश्मीर के हालात दिखाने के लिए पहचान और सम्मान मिले तो भारतीय मीडिया के लिए यह  एक चुनौती साबित होती है। मीडिया दर्शकों के लिए कश्मीरियों की वही छवि बनाए रखना चाहता है जो छवि सत्ता ने तय की है। ऐसे में इन पत्रकारों को पुलित्ज़र मिलने पर बधाई देना सत्ता के विरुद्ध खड़े होने जैसा है। उससे भी ज्यादा पत्रकारों को बधाई देने का मतलब होगा कि उनकी खींची तस्वीरों को भी ओन करना पड़ेगा। इसीलिए उनके काम को डीमीन करना ही बेहतर समझा होगा मीडिया ने।

बेशक पुलित्जर पुरस्कार की अपनी आलोचनाएं हैं। यहां अहम है कश्मीरी पत्रकारों के काम को अतंरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिलना।

बीजेपी के प्रवक्ता संबित पात्रा ने पत्रकारों के सम्मान को भारत की संप्रुभता से जोड़ते हुए कहा है कि पुरस्कार जरूरी है कि भारत की संप्रुभता? भारत ने कश्मीर को हमेशा अंदरूनी मसला बताया है। 370 पर लिए गए फैसले के बाद कश्मीर में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उठ रहे मानवाधिकार हनन के सवालों पर भी भारत सरकार ने इसे अंदरूनी मामला बताया। जिस कश्मीर मसले में आज अनेकों स्टेकहोल्डर मालूम पड़ते हैं, उसे भारत का अंदरूनी मामला बताना एक कूटनीतिक पहल है। उसका मतलब यह नहीं होता कि कश्मीर में मानवाधिकारों हनन की अनगिनत कहानियां पर टिप्पणी करने का अधिकार छीन लिया जाता है। विदेश से आए पत्रकारों ने कश्मीर में जो देखा वह लिखा। भारत सरकार का इसे दुष्प्रचार कहने से भी उन्हें ज्यादा फर्क़ नहीं पड़ता।

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बेशक पुलित्जर पुरस्कार की अपनी आलोचनाएं हैं। यहां अहम है कश्मीरी पत्रकारों के काम को अतंरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिलना। कश्मीर देश के लिए हमेशा वह जगह रहा है जहां से सिर्फ एक ही तरह की खबरें आती रही हैं- एनकाउंटर में इतने जवान शहीद या इतने मिलिटेंट्स मारे गए। यहां पत्थरबाज़ी हुई और वहां बम धमाके हुए। कश्मीर पिछले 6 महीनों से ज्यादा से एक अघोषित कर्फ्यू के साये में जीने को मजबूर है। कोरोनावायरस महामारी के दौर में भी कश्मीर को 4G इंटरनेट जैसी बुनियादी जरूरत से दूर रखा गया है। सीमित इंटरनेट कन्नेक्टविटी का मतलब है कश्मीर को सूचनाओं से दूर रखना। कश्मीर के पत्रकार जिन हालातों में काम करते हैं, उनके कैमरे में जो कैद होता है, ज़ाहिर है वह सत्ता पक्ष को पसंद नहीं आता होगा। लेकिन पत्रकारिता क्या है? पत्रकारिता को सत्ता पक्ष को अच्छा लगने या लगवाने में कब उलझना था? पत्रकारिता तो उसे कहा जाता है जो सत्ता छिपाने की कोशिश करती है।

कश्मीरी पत्रकार ऐसे माहौल में काम करते हैं जहां उनपर सत्ता का दबाव कहीं ज्यादा है। यहां पत्रकारों पर सुरक्षाबलों और एजेंसियों की निगरानी में काम करने को मजबूर होते हैं। इंटरनैशनल प्रेस इंस्टिट्यूट की एक रिपोर्ट कहती है कि कश्मीर में सुरक्षबलों से प्रेस की आज़ादी को खतरा है। ज्यादातर पत्रकार वहां बतौर फ्रीलांसर काम करते हैं जिनका मेहनताना बेहद कम होता है। कश्मीर में एनकाउंटर साइट्स पर, प्रदर्शनों के दौरान आपको फोटो पत्रकार बिना किसी सुरक्षा के अपने कैमरे के साथ दौड़ते भागते नज़र आ जाते हैं। पेलेट से घायल लोगों की तस्वीरें, गोलियों और ग्रेनाड से छलनी हुई घर की दीवारें, मातम मनाती औरतें, सुरक्षाबलों के ऑपरेशन की तस्वीरें, एनकाउंटर के दौरान धू-धूकर जलते घरों की तस्वीरें हम तक इसीलिए पहुंच पाती हैं क्योंकि ये पत्रकार वहां मौजूद होते हैं। अगर ये  बेखौफ़ कैमरे कश्मीर में न हों तो शायद मानवाधिकार हनन की अनगिनत कहानियां कश्मीर हम तक न पहुंच पाएं। इन पत्रकारों को खतरा सुरक्षाबलों और मिलिटेंसी दोनों से है। दोनों उन्हें टारगेट करते हैं।

एकतरफ सत्ता के गढ़े नैरेटिव के विरुद्ध खबरें दिखाने पर एजेंसियों के दमन का डर। दूसरी तरफ आम लोगों और मिलिटेंट्स के बीच सरकार का बिचौलिया कहलाए जाने का खौफ़। ताजा मामला महिला पत्रकार मसरत जहरा और गौहर गिलानी पर यूएपीए लगाए जाने का है। तकरीबन दो साल पहले राइजिंग कश्मीर के संपादक शुजात बुखारी को बाइक सवार (अनआइडेंटिफाइड गनमेन) ने गोली मार दी। ये सिर्फ उदाहरण हैं। इन तमाम चुनौतियों के बीच कश्मीरी पत्रकार अपना काम कर रहे हैं। उनके साथियों को पुलित्ज़र मिलने में वे सब अपनी हौसला अफज़ाई देखते हैं। ये उन तमाम पत्रकारों का सम्मान है जिन्होंने सत्ता के प्रौपेगैंडे में शामिल होने से इनकार कर दिया है।

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तस्वीर साभार : thewire

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