ऐमेज़ॉन प्राईम की नई वेब सीरीज़ ‘पाताल लोक’ पर खूब चर्चा हो रही है। अभिनेत्री अनुष्का शर्मा के प्रोडक्शन हाउस ‘क्लीन स्लेट फ़िल्मस’ की ये पेशकश सोशल मीडिया पर आलोचना का एक बड़ा विषय बन चुकी है और तारीफ़ें और निंदा बराबर बटोर रही है। क्या ख़ास है ‘पाताल लोक’ में? नौ एपिसोड्स की ये सीरीज़ क्या महज़ एक क्राईम थ्रिलर है, या राजनैतिक और सामाजिक व्यवस्था पर एक टिप्पणी भी? इसका एक छोटा सा विश्लेषण हमने करने की कोशिश की है।
शुरुआत में ये बता देना ज़रूरी है कि इस सीरीज़ में रेप, बाल यौन शोषण, हत्या, और दलित, अल्पसंख्यक और ट्रांसजेंडर व्यक्तियों पर नृशंसता के कई दृश्य हैं। कई दर्शक ऐसे दृश्य सहन नहीं कर पाते और इन्हें देखने से उन्हें तनाव महसूस हो सकता है, ख़ासकर अगर उन्हें ख़ुद इन चीज़ों का अनुभव रहा हो। इसलिए इस तरह की हर फ़िल्म या सीरीज़ में एक ‘ट्रिगर वॉर्निंग’ होनी चाहिए ताकि दर्शक दिमाग़ी तौर पर इन दृश्यों के लिए तैयार रह सकें या इन्हें न देखने का फ़ैसला कर सकें।
‘पाताल लोक’ में ऐसी कोई ट्रिगर वॉर्निंग नहीं है जबकि इसकी बेहद ज़रूरत थी। इसलिए ये सीरीज़ सिर्फ़ उन्हीं को देखनी चाहिए जो ऐसे दृश्य देखने के बाद अपनी दिमागी हालत पर काबू रख सकते हों। तो कहानी की पृष्ठभूमि पूर्वी दिल्ली है। मशहूर प्राईम टाईम पत्रकार संजीव मेहरा (नीरज कबि) को जान से मारने की कोशिश में चार लोग रंगे हाथ पकड़े जाते हैं। ये चार हैं तोप सिंह (जगजीत संधु), कबीर एम. (आसिफ़ ख़ान), भारत के उत्तर-पूर्व से आने वाली मेरी ‘चीनी’ लिंगडो (माइरेंबाम रोनाल्डो सिंह) और
चित्रकूट का खूंखार गैंगस्टर विशाल ‘हथौड़ा’ त्यागी (अभिषेक बैनर्जी)। आउटर जमुना पार पुलिस स्टेशन के इंस्पेक्टर हाथी राम चौधरी (जयदीप अहलावत) और उनके जूनियर इमरान अंसारी (इश्वक सिंह) को इस मामले के इंवेस्टिगेशन की ज़िम्मेदारी सौंपी जाती है। संजीव मेहरा पर इस हमले की क्या वजह थी, इसके पीछे कौन था, और ये चार इसमें कैसे शामिल हुए, यही आगे आगे पता चलता है।
ये कहानी है दो दुनियाओं की, जो एक दूसरे से बिल्कुल अलग होने के बावजूद भी एक दूसरे के बहुत करीब हैं। एक तरफ़ है संजीव मेहरा की आलीशान दुनिया जो उनके न्यूज़रूम, पॉश बंगले, और लट्येन्स दिल्ली में उनकी शानदार उच्चवर्गीय ज़िंदगी में सीमित है। दूसरी तरफ़ है वो दुनिया जो उन सैकड़ों लोगों के लिए हर रोज़ की जीती जागती सच्चाई है, जो संजीव मेहरा जितने संभ्रांत और विशेषाधिकार-प्राप्त नहीं हैं। ये दुनिया जाति, नस्ल, लिंग, धर्म, वर्ग के विभाजनों में बंटी हुई है। यहां ख़ून-ख़राबा, बलात्कार, शोषण और भेदभाव हर रोज़ का मामला है। यहां ज़िंदा रहना हर रोज़ की लड़ाई है। ये दुनिया भारतीय समाज का वह खौफ़नाक रूप है जिसे संजीव मेहरा जैसे लोग अपनी एयर-कंडिशंड गाड़ी के काले शीशों से नहीं देख पाते।
पाताल लोक’ जैसी सीरीज़ और फ़िल्में बनती रहनी चाहिए। हमारे आसपास की दुनिया का इतना सटीक चित्रण बहुत कम देखने को मिलता है।
अपने पात्रों के ज़रिए ‘पाताल लोक’ इस दुनिया के अंदर तक जाकर इसकी कठोर सच्चाई की पोल खोलता है। हम देखते हैं कैसे सांप्रदायिक और नस्लीय भेदभाव इस तरह हमारे नस नस में भरा हुआ है कि कहानी के नायक हाथी राम चौधरी भी अपने मुस्लिम सहकर्मी के सामने एक कैदी को इस्लामोफ़ोबिक गालियां देने से नहीं कतराते। कैसे एक नॉर्थ-ईस्टर्न मुजरिम को इंटेरोगेशन के दौरान ‘नेपाली रांड’ बुलाया जाता है। ये भेदभाव और ज़्यादा सामने आने लगता है जब हम अलग अलग पात्रों के नज़रिए से पंजाब, उत्तर प्रदेश, दिल्ली के गांव-देहात की सैर करते हैं, जहां जाति और धर्म के आधार पर बलात्कार और हिंसा हर रोज़ का मामला है।
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जहां एक तरफ़ गांवों-कस्बों में हर रोज़ का भेदभाव और हिंसा है, संजीव मेहरा के न्यूज़रूम की दुनिया में है वह हिपोक्रेसी, वह कूटनीति जो समाज की सच्चाई को छिपाने का अजेंडा चलाने में लगी रहती है, जिससे वैषम्य बढ़ता ही रहता है। हम करीबी से देखते हैं कैसे मीडिया संगठनों द्वारा एक ख़ास नैरेटिव को ‘देश की आवाज़’ बताकर प्रसारित किया जाता है। कैसे ये नैरेटिव चैनल के आकाओं के मुताबिक बदलता रहता है। कैसे अपने फ़ायदे के लिए झूठी खबरें फैलानेवाले ‘सच्चाई का मसीहा’ बन जाते हैं, और सच्चे, ईमानदार पत्रकारों को सिर्फ़ जान से मारने की धमकियां मिलती हैं या उनके दफ़्तर तोड़ दिए जाते हैं।
इन सभी मुद्दों को ‘पाताल लोक’ ने काफ़ी दिलचस्प तरीके से पेश किया है। स्क्रिप्ट अच्छी है, किरदार यादगार हैं, और ऐक्टिंग लाजवाब है। जयदीप अहलावत का अभिनय सबसे बेहतरीन रहा है और ठेठ हरियाणवी बोली में उनके मज़ेदार डायलॉग देर तक कानों में गूंजते हैं। अभिषेक बैनर्जी ने भी कमाल कर दिया है और खलनायक की भूमिका उनसे अच्छा शायद और कोई नहीं निभा सकता था। सीरीज़ का एक एक दृश्य बड़ी खूबसूरती से शूट किया गया है, ख़ासकर ऐक्शन के दृश्य, जिसकी वजह से यह और भी यादगार हो गई है।
सीरीज़ की एक बुराई यही है कि हिंसा के दृश्य कुछ ज़्यादा ही हैं और उनके लिए ट्रिगर वॉर्निंग का इस्तेमाल भी नहीं किया गया है। भविष्य के फ़िल्म निर्माताओं को इस बात पर गौर करना चाहिए और ऐसे दृश्यों के लिए एक चेतावनी ज़रूर रखनी चाहिेए। ‘पाताल लोक’ जैसी सीरीज़ और फ़िल्में बनती रहनी चाहिए। हमारे आसपास की दुनिया का इतना सटीक चित्रण बहुत कम देखने को मिलता है। निर्देशक अविनाश अरुण और प्रोसित रॉय को सलामी।
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तस्वीर साभार : navodayatimes
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