“पुलिसवाले को ठोकने का अंजाम पता है क्या है? 21 साल जेल और ठुकाई अलग से। और उसी पुलिसवाले ने अगर तुम्हें ठोका, तो प्रोमोशन अलग से और बहादुरी का मेडल भी।”
-‘दबंग’ फ़िल्म में सलमान ख़ान
19 जून 2020। तमिलनाडु के तूतुकुडी में 58 वर्षीय जयराज एमानुएल को शाम के 7:30 बजे के आसपास उनकी दुकान से गिरफ़्तार कर लिया जाता है। इसका कारण यह बताया जाता है कि निर्दिष्ट समय से पांच मिनट ज़्यादा देर तक दुकान खुली रखकर उन्होंने लॉकडाउन के नियम तोड़े हैं। उन्हें स्थानीय पुलिस स्टेशन के लॉकअप में डाल दिया जाता है। जब उनके बेटे, 30 वर्षीय फेनिक्स को पता चलता है, वह अपने पिता की गिरफ़्तारी का कारण पता करने के लिए थाने पहुंचता है, जहां उसे भी गिरफ़्तार कर लिया जाता है।
बाप-बेटे को थाने से क़रीब 1000 किलोमीटर दूर एक जेल में ले जाकर उनका यौन शोषण, बलात्कार, और उन पर असहनीय शारीरिक ज़ुल्म किया जाता है। यह ज़ुल्म इतना ही ज़्यादा होता है कि उनके खून से लथपथ कपड़ों को लगभग छह बार बदलना पड़ता है। 22 और 23 जून को दोनों की मृत्यु हो जाती है और पुलिसकर्मी इस मृत्यु का कारण हार्ट अटैक बताते हैं। इस मामले में दो पुलिसकर्मियों को गिरफ़्तार कर लिया गया है। जांच अभी भी जारी है।
हमारे देश में पुलिसिया दमन हर रोज़ की आम बात है। जो पुलिस हमारी सुरक्षा के लिए बनी है, हम उसी पर रत्तीभर भी भरोसा नहीं कर सकते। आए दिन पुलिसकर्मी अपनी वर्दी का फ़ायदा उठाकर निर्दोष आमजनता को फ़र्ज़ी मामलों में गिरफ़्तार करते हैं और पूछताछ के नाम पर उनका शारीरिक उत्पीड़न करते हैं। ख़ासकर दलित, अल्पसंख्यक, आदिवासी, एलजीबीटीक्यू जैसे वंचित तबके की जनता पर। पिछले ही साल नागरिकता संशोधन कानून के ख़िलाफ़ प्रदर्शनों के दौरान पुलिस पर नाबालिगों के शारीरिक और यौन उत्पीड़न का इल्ज़ाम लगा था। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय जैसे शैक्षणिक संस्थाओं में भी पुलिस ने निहत्थे छात्रों को खदेड़ा था और कैंपस में अंधाधुंध गोलियां बरसाईं थीं। हम चुपचाप देखते रह गए थे क्योंकि पुलिस कभी ग़लत कैसे हो सकती है भला?
पुलिसकर्मी का किसी को ‘ठोक देना’ हमेशा न्यायसंगत नहीं होता। ‘बहादुरी का मेडल’ जीतनेवाले हर अफ़सर का करियर निष्कलंक नहीं होता।
अंतरराष्ट्रीय राजनैतिक व सामाजिक अधिकार प्रतिज्ञापत्र (आईसीसीपीआर) के अनुसार किसी भी देश में किसी व्यक्ति को सज़ा या पूछताछ के नाम पर शारीरिक तौर पर उत्पीड़ित करना वर्जित है। इसके बावजूद हमारे समाज में पुलिसिया दमन व हिंसा इतना स्वाभाविक क्यों है? हम क्यों हमेशा यह मान लेते हैं कि पुलिस बिना सबूत के किसी पर अत्याचार या किसी की हत्या कर दे तो वह सही ही है? मुजरिम का बयान सुने बिना हम कैसे तय कर लेते हैं कि उसे मार डालना या उस पर ज़ुल्म करना उचित है?
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ऐसा संभव है कि पुलिस द्वारा अमानवीय हिंसा को ‘नॉर्मलाईज़’ करने के लिए काफ़ी हद तक ज़िम्मेदार बॉलीवुड है। 70 के दशक से आज तक ऐसी अनगिनत फ़िल्में बनती आ रहीं हैं जिनमें नायक पुलिस अफ़सर होता है और ‘बुरे’ लोगों को ‘सबक’ सिखाने के लिए सारी हदें पार कर देता है। वह बीच रास्ते में लोगों को उठा-पटककर मारता है। दो-तीन एनकाउंटर कर देता है। लॉकअप में मुजरिमों पर अमानवीय हिंसा करता है। सीधे सीधे बताएं तो कानून अपने हाथों में लेता है और वे सारी चीज़ें करता है जो एक कानून के रक्षक को आमतौर पर नहीं करनी चाहिएं।
‘दबंग’, ‘राऊडी राठौड़’, ‘सिंघम’, ‘मर्दानी’, ‘सिंबा’ जैसी इस तरह की कई फ़िल्में हैं जो पूरे देश में खूब हिट हुई हैं। सिवाय ‘मर्दानी’ के, जिसमें मुख्य किरदार रानी मुखर्जी ने निभाया था, इन सभी फ़िल्मों में नायक आमतौर पर पुरुष होता है, और हिंसा व दमन से ओतप्रोत मर्दानगी का एक नया ‘ब्रैंड’ हमें आदर्श के रूप में परोसता है। ‘मर्दानी’ में यही हिंसा हमें ‘नारी सशक्तिकरण’ के नाम पर परोसी गई थी। कई बार इस तरह की कानूनी हिंसा को जस्टिफाई करने के लिए संवादों का भी इस्तेमाल होता है, जैसे ‘दबंग’ में सलमान ख़ान के किरदार का यह उल्लेखित डायलॉग, जो एक खुलेआम धमकी से कम नहीं है।
आप कह सकते हैं कि मनोरंजन को मनोरंजन की तरह ही लेना चाहिए। फ़िल्म की दुनिया असली दुनिया से अलग है और हमें याद रखना चाहिए कि यह काल्पनिक है। आप ग़लत नहीं हैं, पर हमारे यहां ऐसे कितने ही लोग होंगे जो कल्पना और हकीकत का यह फ़र्क़ समझते हैं? एक बहुत बड़ी संख्या मानती है कि जो फ़िल्मों में दिखाया जाता है वही सच है। कोई ऐसी फ़िल्में देखकर बड़ा हुआ हो तो वह पुलिस द्वारा हिंसा की आलोचना करने की जगह हमेशा उसका समर्थन ही करेगा, चाहे वह कितनी ही ग़लत हो।
पुलिसकर्मी का किसी को ‘ठोक देना’ हमेशा न्यायसंगत नहीं होता। ‘बहादुरी का मेडल’ जीतनेवाले हर अफ़सर का करियर निष्कलंक नहीं होता। कई बार इन मेडलों, पुरस्कारों, और प्रोमोशनों के पीछे निर्दोष, वंचित, गरीब जनता के शोषण का काला इतिहास होता है। इस बात को अगर हम हमेशा याद रखें, अगर हम स्वीकार करें कि हकीकत में बहुत कम पुलिसकर्मी ही सिंहम या राऊडी राठौड़ होते हैं, और समझ लें कि पुलिस की आलोचना करना भी ज़रूरी है, तो शायद हम कानूनी ताकतों द्वारा शोषण से आज़ादी की उम्मीद कर सकते हैं।
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तस्वीर साभार : amarujala