बिहार के रहने वाले आकाश ने मीना से दो साल पहले शादी की। साइंटिस्ट आकाश ने अपने लिए बड़ी कम्पनी में काम करने वाली इंजीनियर मीना को चुना। शादी अरेंज मैरिज हुई। तोहफ़ों और शान-शौक़त के नामपर दहेज का जमकर लेन-देन हुआ। ख़ुद को बेहद प्रोग्रसिव बताने-दिखाने वाले आकाश ने शादी के तीसरे महीने में ही मीना को नौकरी छोड़ने के लिए कह दिया। मीना ने इसपर कोई एतराज नहीं किया। सालभर बाद मीना ने बेटे को जन्म दिया और पूरे परिवार में ख़ुशियों की लहर दौड़ पड़ी। जश्न में सभी एक-दूसरे को बताने-जताने में लगे कि घर का पहला बच्चा है तो जश्न तो करना ही था। बाक़ी हमलोग लड़का-लड़की में कोई फ़र्क़ नहीं करते है।
एक साल बाद जब आकाश के बड़े भाई के घर बेटी ने जन्म लिया तो पूरे घर में मातम पसर गया। प्रिंसिपल भाई ने भी मुँह सिकोड़ना शुरू किया, फिर ख़ुद को सांत्वना देते हुए कहा कि ‘बेटी हुई तो क्या हुआ, कौन-सी काली है? इतनी गोरी और सुंदर है। अब हमें भला क्या चिंता।’
बता दें ये कोई काल्पनिक कहानी नहीं बल्कि एक सच्ची घटना है। एक परिवार जहां देश की नामी यूनिवर्सिटी से पढ़ाई करने के बाद साइंटिस्ट और प्रिंसिपल बनने के बाद भी देश के युवा लैंगिक भेदभाव, रंगभेद और दहेज प्रथा जैसी तमाम कुरीतियों के वाहक बन रहे है। हो सकता आपको ये जानकर थोड़ा अजीब लगे लेकिन हाँ ये सच है। एक कड़वा सच। हमारी शिक्षा और समाज व्यवस्था का। कहते हैं ‘शिक्षा’ इंसान के विकास और बेहतरी के लिए बेहद ज़रूरी है। ये इंसान की सोच को सही दिशा देती है। तमाम संकीर्ण मानसिकता और अंधविश्वास के ख़िलाफ़ शिक्षा तार्किक सोच को बढ़ावा देती है। लेकिन जब तथाकथित पढ़े-लिखे लोग लैंगिक भेदभाव, रंगभेद और दहेज प्रथा जैसी कुप्रथाओं को बढ़ावा देने लगे तो ये समाज के लिए और भी घातक है।
ग़ौरतलब है कि लैंगिक भेदभाव, रंगभेद और दहेज प्रथा जैसी कुप्रथाओं को दूर करने के लिए हमेशा से शिक्षा को एकमात्र प्रभावी साधन माना गया है, ऐसे में जब उच्च शिक्षा पाने वाले लोग ही इन कुप्रथाओं के पोषक बन जाए तो हमारी शिक्षा और सामाजिक व्यवस्था पर बड़ा सवाल खड़ा होता है। आज जब हम एक तरफ़ पर चाँद पर जाने की बात कर रहे। आधुनिकता, विकास और शिक्षा की खोल ओढ़कर हम कहते फिरते हैं कि अब लड़का-लड़की में कोई भेदभाव नहीं होता है। अब दहेज नहीं लिया जाता है। वग़ैरह-वग़ैरह। पर सच्चाई इसकी ठीक उलट है, जिसपर हमें रुककर सोचने की ज़रूरत है।
दहेज़ के नामपर लैंगिक भेदभाव पर ज़ोर
अगर हम भारतीय समाज में लैंगिक भेदभाव की वजहों का विश्लेषण करें तो हम यह पाएँगें कि दहेज प्रथा इसमें प्रमुख है। ये दहेज ही तो है जिसने लड़की को बोझ और लड़के को ब्लैंक चेक की संज्ञा दी है। हो सकता है आप कहें कि अब कहाँ कोई दहेज लेता है, तो आपसे कहूँगीं इसपर थोड़ा और सोचिए, पर इससे पहले अपने आसपास गंभीरता से देखिए और विश्लेषण करिए शादी में फ़िल्मों की तरह बड़े ख़र्चों वाली रस्मों का, उनके ख़र्चों का।
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बिहार के एक गाँव की रहने में स्नेहा बताती है कि, ‘उनकी बहन की शादी में दहेज के लिए उनके पिता को अपना खेत बेचना पड़ा। ज़्यादा दहेज न देना पड़े इसलिए लड़कियों को ज़्यादा पढ़ाया नहीं गया। क्योंकि अगर लड़की ज़्यादा पढ़-लिख लेगी तो लड़का भी उसके हिसाब का चाहिए और ज़्यादा पढ़ा-लिखा नौकरी वाला लड़का का मतलब ‘ज़्यादा दहेज।’
लड़की का काली होना ज़्यादा पीड़ादायक कैसे?
हमारे समाज में लड़की का जन्म अपने आप में मातम मनाने जैसा है, ऐसे में लड़की अगर काली यानी कि समाज के बनाए सुंदरता के खाँचे से कम सुंदर हुई तो ये ज़्यादा पीड़ादायक माना जाता है। इस विचार और व्यवहार के तार भी दहेज प्रथा से जुड़े है, जहां लड़की की काली या कम सुंदर दिखना कमी माना जाता है और जब लड़की में कोई कमी है तो उसकी भरपाई ज़्यादा दहेज से की जाएगी। और ये बात सिर्फ़ शादी तक ही नहीं बल्कि लड़की में माता-पिता को हमेशा बाक़ी लोगों के सामने समाज की बतायी इस कमी पर सिर झुकाने और आवाज़ नीचे करने को मजबूर किया जाता है।
जब तथाकथित पढ़े-लिखे लोग लैंगिक भेदभाव, रंगभेद और दहेज प्रथा जैसी कुप्रथाओं को बढ़ावा देने लगे तो ये समाज के लिए और भी घातक है।
और होती रहती है भ्रूण कन्या हत्या
समाज की तथाकथित ऊँची जाति से ताल्लुक़ रखने वाली स्नेहा बताती है कि ‘उनके परिवार में महिलाओं के दायरे बेहद सीमित है। पढ़ने-बढ़ने के बारे लड़की ज़्यादा सोचे नहीं इसके लिए बचपन से ही उसे चूल्हे-चौके के साथ-साथ व्रत-पूजा के सारे इतिहास-भूगोल-विज्ञान पढ़ाए जाते है। इतना ही नहीं, घर की बुनियादी चीजों की बजाय काम-प्रयोजनों में ज़्यादा कपड़े-गहने पर ज़ोर दिया जाता है।’
स्नेहा अपने परिवार के बारे में बताती है कि नौ लड़कियों के बाद उसके भाई ने जन्म लिया और इन नौ में से चार की भ्रूण कन्या हत्या की गयी। बिहार के गाँव में तथाकथित ऊँची जातियों ने लिंग जाँच करवाकर गर्भसमापन करवाना बेहद आम चलन है। ऐसा नहीं कि प्रशासन को इसबात की भनक नहीं है। पर प्रशासन भी समाज के व्यवहारिक पक्ष को दकहते हुए इसे सही ठहराता है और अपनी आँख मूँद लेता है। ताज्जुब की बात ये है कि इसमें आज के युवा दम्पति भी पीछे नहीं है।
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ऊँची जाति और शिक्षा से लैंगिक भेदभाव तक
ऊँची जाति, यानी समाज की तथाकथित अच्छे गुणों, अवसरों और संसाधनों का मालिक। किसी भी सामाजिक समस्या को संदर्भ में यह बेहद आसानी से मान लेते है कि सब निचली, पिछड़ी जातियों या फिर हाशिए पर बसने वाले समुदायों का पर्याय है। पर वास्तव में ऐसा कोई तबका नहीं है जो सामाजिक समस्याओं से अछूता है। हाँ, ये अलग बात रही है कि समाज की तथाकथित ऊँची जातियों के ढोंगी क़िले इतने ऊँचें बनाए और दिखाए गये कि उनकी समस्याओं को उजागर करने की बात कभी हुई ही नहीं।
पर अब बेहद ज़रूरी है कि आम धारणाओं के निकल विश्लेषण के दायरे में हम हर तबके के शामिल करें। हो सकता है कि एक झलक में सब बेहद चमकदार, आदर्शात्मक और भला लगे, लेकिन यक़ीन मानिए जब आप विचारों और व्यवहारों की तह तक जायेंगें तो समस्या के स्वरूप भले ही बदले से लगे, लेकिन मूल एक ही पाएँगें।
पर इन सभी चर्चाओं के बाद हमें ये समझना होगा कि बेशक लैंगिक भेदभाव और रंगभेद के कई कारक होंगें, लेकिन इन सभी का उपाय समझे जानी वाली शिक्षा के ऊँचे स्तर पर जाकर जब आज के युवा इन सभी कुप्रथाओं के वाहक बनने लगे है तो वाक़ई में ये बेहद घातक है। ये घातक है समाज के लिए। ये घातक है परिवार के लिए। क्योंकि ये अपने साथ-साथ सभी कुप्रथाओं को आगे बढ़ा रहे हैं। दूसरों को भी इससे प्रभावित कर रहे है। इसलिए ये ज़रूरी समय है अपनी शिक्षा और सामाजिक व्यवस्था पर सोचने का, क्योंकि विचार की बातें हम शिक्षा से और व्यवहार की बातें हम समाज से सीखते है। बाक़ी नियम-क़ानून चाहे जितने भी बन जाए, ऐसे घातक शिक्षित लोगों के सामने सब बेकार है।
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तस्वीर साभार : thenewsminute
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