कितना मुश्किल होता होगा जब कोई महिला समाज की रूढ़िवादी बेड़ियों को तोड़कर ऐसे उदाहरण पेश करती है जिससे दूसरी महिलाएं भी भविष्य में प्रेरणा ले सकें। जैसे स्वतंत्रता सेनानी रानी लक्ष्मीबाई ने जो साहस दिखाया था वही साहस आगे चलकर कैप्टन लक्ष्मी सहगल के लिए प्रेरणा बना। भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के समय एक तरफ महात्मा गांधी का अहिंसावादी खेमा था जो सत्याग्रह, आंदोलन और बहिष्कार के माध्यम से भारत को आजादी दिलाने के प्रयासों में लिप्त था। वहीं दूसरी तरफ था नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का खेमा जो अंग्रेजों को बाहर का रास्ता दिखाने के लिए फौज का निर्माण कर रहा था। इसी फौज में शामिल थी लक्ष्मी सहगल जिनके साहस को देखते हुए नेताजी ने उन्हें आज़ाद हिंद फौज में कैप्टन के पद पर नियुक्त किया था।
कैप्टन लक्ष्मी सहगल का मूल नाम लक्ष्मी स्वामीनाथन था, इनका जन्म 24 अक्टूबर 1914 को चेन्नई के एक शिक्षित परिवार में हुआ था। जिसके कारण इनकी शिक्षा भी बेहतर ढंग से हो पाई थी। लक्ष्मी के पिता डॉ एस स्वामीनाथन हाईकोर्ट में वकील और मां अमुक्कुट्टी एक सामाजिक कार्यकर्ता और स्वतंत्रता सेनानी थी। लक्ष्मी की शिक्षा-दीक्षा मेडिकल से क्षेत्र से जुड़ी थी। उन्होंने साल 1932 में विज्ञान में स्नातक की परीक्षा पास की थी। वह शुरू से ही थोड़ी भावुक मिजाज़ की थी जिसके कारण किसी भी गरीब को बीमार देख दुखी हो जाया करती थी। गरीबों के दुखों को देखते हुए ही उन्होंने डॉक्टर का पेशा चुना और साल 1938 में मद्रास के एक मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस की डिग्री प्राप्त की। लक्ष्मी सहगल ने गायनॉकॉलजी (महिला रोग विशेषज्ञ) में डिप्लोमा भी किया और महिलाओं की बीमारियों का इलाज करने लगी।
समाज सेवा से लगाव होने के कारण लक्ष्मी को साल 1940 में सिंगापुर जाने का अवसर मिला। जहां उन्होंने कार्यरत भारतीय प्रवासी मजदूरों की निशुल्क सेवा की। यहीं से उनका एक सेनानी बनने का सफर भी शुरू हुआ। साल 1942 में द्वितीय विश्वयुद्ध में हो रहे जनसंहार और पीड़ाओं को देखते हुए उन्होंने अपने वतन की आज़ादी से जुड़ी सोच को बुलंद किया। लक्ष्मी अगर मां के नक्शेकदम पर चलती तो वह जल्द ही कांग्रेस दल और आंदोलनों में अपनी सक्रिय भूमिका निभाकर लोकप्रियता बटोर सकती थी लेकिन वह नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के विचारों से अधिक प्रभावित थी।
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उनका मानना था कि अहिंसा के रास्ते पर चलकर आज़ादी की लड़ाई लंबी हो सकती थी इसलिए हिंसा का रास्ता ही सही विकल्प था। उनकी इस सोच को वास्तविकता में बदलने का काम नेताजी सुभाष चन्द्र ने किया, जब 2 जुलाई 1943 को नेताजी सिंगापुर आए तो लक्ष्मी उनके विचारों से इतनी अधिक प्रभावित हुई कि मात्र एक घंटे की मुलाकात में उन्होंने आज़ादी की लड़ाई में शामिल होने की इच्छा ज़ाहिर कर डाली।
कैप्टन लक्ष्मी सहगल ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक विमेन एसोसिएशन के संस्थापक सदस्यों में से एक थीं, जिसका गठन साल 1981 में किया गया था।
लक्ष्मी सहगल के अद्भुत साहस और समाज सेवा के भाव को देखते हुए उन्होंने रानी लक्ष्मीबाई नाम के रेजिमेंट की घोषणा कर दी जिसमें सभी साहसी वीरांगनाओं को शामिल किया जाने लगा। इसी कड़ी में 22 अक्टूबर 1943 को लक्ष्मी ने कैप्टन का पदभार संभाला। वह उस समय एशिया की पहली ऐसी महिला रही जिसे कर्नल का भी पद मिला। इतना ही नहीं वह आज़ाद हिंद फौज में महिलाओं से जुड़े मामलों की मंत्री और आज़ाद हिन्द सरकार ने कैबिनेट सदस्य भी रहीं। आज़ाद हिन्द फौज में कैप्टन के पद पर रहते हुए उन्हें बहुत मुश्किल काम सौंपा गया। वह काम था महिलाओं को लक्ष्मीबाई रेजिमेंट में शामिल करना जो देश के लिए लड़ो या मरो का साहस दिखा पाएं। उन्होंने अपनी इस जिम्मेदारी को भी बखूबी निभाया। उन्होंने अपनी बटालियन में ऐसी 500 वीरांगनाओं को शामिल किया जो देश के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार थी, यह लक्ष्मी सहगल की सबसे बड़ी उपलब्धि थी।
कैप्टन लक्ष्मी सहगल ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक विमेन एसोसिएशन के संस्थापक सदस्यों में से एक थीं, जिसका गठन साल 1981 में किया गया था। आगे चलकर उन्होंने इसकी कई गतिविधियों और अभियानों का नेतृत्व भी किया। दिसंबर 1984 में भोपाल गैस त्रासदी की भयावह घटना के बाद, उन्होंने शहर में एक मेडिकल टीम का नेतृत्व किया और गर्भवती महिलाओं पर गैस के दीर्घकालिक प्रभावों पर एक रिपोर्ट लिखी। साल 1984 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए सिख विरोधी दंगों के दौरान, लक्ष्मी कानपुर की सड़कों पर निकली, सिख विरोधी भीड़ का सामना किया और साथ ही यह भी सुनिश्चित किया कि उनके क्लिनिक के पास भीड़भाड़ वाले क्षेत्र में कोई सिख या सिख प्रतिष्ठान पर हमला न हो। वामपंथी विचारधारा से प्रभावित होने के कारण 1996 में बैंगलोर में आयोजित मिस वर्ल्ड प्रतियोगिता के खिलाफ AIDWA के एक अभियान में भाग लेने के लिए उन्हें गिरफ्तार भी किया गया। साल 2002 के राष्ट्रपति चुनाव में डॉ एपीजे अब्दुल कलाम के सामने वामपंथी दल की ओर से राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार कैप्टन लक्ष्मी सहगल थीं। पर इस चुनाव में जीत एपीजे अब्दुल कलाम की हुई।
कैप्टन लक्ष्मी सहगल ने 98 वर्ष की आयु में 23 जुलाई 2012 को कानपुर के अस्पताल में अंतिम सांस ली। दिल का दौरा पड़ने के कारण जब उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया तो वह 5 पांच दिन तक ज़िन्दगी और मौत से जूझती रही और आखिरकार 23 जुलाई को उन्होंने अंतिम सांस ली। पेशे से डॉक्टर, सेना में कैप्टन, एक समाज सेवी लक्ष्मी सहगल अपने आखिरी वक़्त तक गरीबों और मजदूरों के हक के लिए संघर्ष करती रहीं।
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तस्वीर साभार: thehindu