समाजख़बर लॉकडाउन में महिलाओं पर बढ़ता अनपेड वर्क का बोझ

लॉकडाउन में महिलाओं पर बढ़ता अनपेड वर्क का बोझ

लॉकडाउन के दौरान कामकाजी महिलाओं के लिए समस्या बढ़ गई। उन पर 'घर से काम' और 'घर का काम', दोनों की मार झेलनी पड़ी।

रश्मि की ऑनलाइन मीटिंग अभी खत्म ही हुई थी। शाम के सात बज चुके थे। दिन खत्म होने को था लेकिन उसे ऐसा लग नहीं रहा था जैसे कई काम अभी भी बाकी थे। रसोई में गंदे बर्तन साफ़ होने का इंतज़ार कर रहे थे, स्टडी रूम में बच्चे खाने का इंतज़ार कर रहे थे, बालकनी में पौधे पानी का इंतज़ार कर रहे थे और भी न जाने क्या क्या। ये कहानी है न जाने कितनी ही औरतों की, दिन खत्म हो जाता लेकिन उनके काम खत्म नहीं होते। महिलाओं के यही कभी खत्म न होने वाले काम अनपेड केयर वर्क की श्रेणी में आते हैं

अफ़सोस की बात ये है कि लोगों को ये कोई कहानी लगती ही नहीं है। वे तो ये मानते है कि घर का काम पूरी तरह औरतों की ही जिम्मेदारी है। इसी सोच का नतीजा है कि कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान कामकाजी महिलाओं के लिए समस्या काफी बढ़ गई। उन पर ‘घर से काम’ और ‘घर का काम’, दोनों की मार पड़ी।

आम दिनों में भी पुरुषों की तुलना में औरतों पर घर के काम का बोझ ज्यादा पड़ता है। हाल ही में ऑर्गनाइज़ेशन फॉर इकॉनमिक को-ऑपरेशन एंड डेवलपमेंट के आंकड़ों के मुताबिक भारतीय महिलाएं हर दिन औसतन छह घंटे घर का काम करती है, जिसमें खाना बनाना, बर्तन धोना, कपड़े धोना, बच्चों और बूढ़ों का ध्यान रखना जैसे काम शामिल हैं। हम इसे ‘अनपेड केयर वर्क/ हाउसहोल्ड वर्क’ भी कह सकते हैं। वहीं दूसरी ओर भारतीय पुरुष औसतन एक घंटे से भी कम समय हाउसहोल्ड वर्क को देते हैं।

आर्थिक मौके मिलने के बाद भी परेशानियां औरतों के लिए कम नहीं होती। वे घर और ऑफिस के बीच में बुरी तरह से पिसती रहती है।

घर के कामों में उलझकर और समय की कमी के कारण लड़कियां हर आर्थिक अवसर के लिए तैयारी नहीं हो पाती। इसी वजह से हमें शिक्षा, नर्सिंग, खेती-किसानी जैसे पेशों में महिलाएं ज्यादा नज़र आती है और पुरुष कम। आर्थिक मौके मिलने के बाद भी परेशानियां औरतों के लिए कम नहीं होती। वे घर और ऑफिस के बीच में बुरी तरह से पिसती रहती है। इस दोहरे बोझ के तले वे इतनी दब जाती है की उन्हें खुद के लिए, खुद की सेहत के लिए, खुद की इच्छाओं के लिए वक्त ही नहीं मिलता। 

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समस्या तो तब और भी बढ़ जाती है जब शादी और बच्चे हो जाते हैं। घर की जिम्मेदारियां इतनी बढ़ जाती है कि कितनी ही महिलाएं नौकरी तक छोड़ देती है। कुछ अपनी नौकरी में वापसी करती हैं तो कुछ कभी नहीं कर पाती और हमेशा के लिए अर्थव्यवस्था के चक्र से बाहर हो जाती है। साल 2018 की इंस्टिट्यूट फॉर द स्टडी ऑफ़ लेबर की रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले तीन दशकों से भारतीय ग्रामीण विवाहित महिलाओं की भागीदारी लेबर फोर्स में घटी है। हालांकि इसी दौरान उनका घरेलू काम में योगदान लगातार बढ़ा है। साल 2014 की OECD की रिपोर्ट के मुताबिक, जहाँ भी महिलाओं का ज्यादा वक़्त घरेलू कामों में जाता है, वहां महिलाओं का लेबर फाॅर्स में पार्टिसिपेशन कम होता है। इन दोनों के बीच एक नकारात्मक सम्बन्ध है।   

परंपरागत तरीकों से कैसे बढ़े महिलाओं का लेबर फोर्स ?

अक्सर सरकार और समाज ये सोचते हैं कि महिला साक्षरता दर बढ़ने से महिलाओं की लेबर फोर्स में भागीदारी बढ़ जाएगी लेकिन आंकड़े बताते हैं कि ये सच नहीं है। आइये देखते हैं कैसे।  

साल 1991 से 2011 के बीच ग्रामीण महिलाओं की साक्षरता दर लगातार बढ़ी है। वहीं दूसरी और फीमेल लेबर फाॅर्स पार्टिसिपेशन रेट (FLFPR) लगातार कम हुई है। साल 2018 की डेलिओट रिपोर्ट के अनुसार, पिछले एक दशक में FLFPR 36 फ़ीसद से 26 फ़ीसद तक गिर चुकी है। ऐसा ही कुछ नैशनल सैंपल सर्वे ऑफिस का डेटा कहता है। NSSO के डेटा के मुताबिक, साल 1993-94 में FLFPR 43 फ़ीसद थी, जो गिर कर 32 फ़ीसद हो गयी साल 2011-12 में। असल में FLFPR, साल 2004-05 को छोड़कर, हर साल कम हो रही है।              

यही वजह रही कि यूनाइटेड नेशंस ने सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल 5.4 के जरिये सदस्य देशों से ये अपील की है कि वे अनपेड वर्क को पहचाने, उसके महत्व दें और घर के काम में सभी सदस्यों की भागीदारी को बढ़ावा दें।

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ज़ाहिर है कि गिरती हुई FLFPR की वजह सिर्फ अनपेड वर्क नहीं है। लेकिन आंकड़ों से ये भी स्पष्ट होता है कि मात्र साक्षरता दर बढ़ाने से FLFPR को नहीं बढ़ाया जा सकता। साक्षरता दर के अतिरिक्त और भी कई फैक्टर्स है जिन्हे हम नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते, जिन पर हमें काम करने की जरूरत है और उनमें से एक फैक्टर है अनपेड वर्क। भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया के लगभग हर देश में यही माना जाता है की घर का काम मूल रूप से औरतों की जिम्मेदारी है। यही वजह रही कि यूनाइटेड नेशंस ने सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल 5.4 के जरिये सदस्य देशों से ये अपील की है कि वे अनपेड वर्क को पहचाने, उसके महत्व दें और घर के काम में सभी सदस्यों की भागीदारी को बढ़ावा दें। ये लक्ष्य सदस्य देशों को याद दिलाता है कि महिला आर्थिक सशक्तिकरण में एक बहुत बड़ा रोड़ा ‘घर का काम’ है। आइए उम्मीद करें कि भारत इस रिमाइंडर कॉल को सुनेगा। हमें ये सुनिश्चित करना चाहिए कि घर के काम की जिम्मेदारी सिर्फ महिलाओं पर नहीं पड़ेगी अगर कोरोना वायरस लॉकडाउन जैसा कुछ दोबारा हो तो और इस बराबरी की शुरुआत सबसे पहले हमारे घरों से हो।

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तस्वीर साभार: thewire

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