हम एक बहुत मुश्किल समय से गुज़र रहे हैं। एक वैश्विक महामारी हमारी रोज़ की ज़िंदगी को तबाह करती नज़र आ रही है और अभी तक इसका कोई इलाज नहीं निकला है। कोरोना वायरस से जूझने के लिए फ़िलहाल हमारे पास स्वास्थ्य का ध्यान रखने और स्वच्छता के नियम पालन करने के सिवा और कोई विकल्प नहीं है। फिर भी इस बीमारी के खिलाफ़ जंग जारी है और इस जंग में डॉक्टरों के साथ मिलकर सबसे आगे लड़ रही हैं हमारी सामाजिक स्वास्थ्यकर्मी जिन्हें हम ‘आशा’ (ASHA) कार्यकर्ता कहते हैं।
यहां ‘आशा’ का मतलब है ‘ऐक्रेडिटेड सोशल हेल्थ ऐक्टिविस्ट’। यह वे महिलाएं हैं जो भारत सरकार के एक गांव या इलाके में स्वास्थ्य-संबंधित जागरूकता बढ़ाने और लोगों की स्वास्थ्य-संबंधित ज़रूरतों की देखभाल के लिए नियुक्त की जाती हैं। उनका ध्यान खासतौर पर महिला और बच्चों के स्वास्थ्य पर रहता है। आशा कार्यकर्ता की मुख्य जिम्मेदारियां सुरक्षित प्रसव, परिवार नियोजन, बच्चों के पोषण जैसे विषयों पर आधारित होती हैं।
कोरोना वायरस महामारी के आने के बाद से उन्हें घर-घर जाकर इस बीमारी के बारे में लोगों को जागरूक करने और इससे बचने में मदद करने की ज़िम्मेदारी दी गई है। एक आशा कार्यकर्ता को एक दिन में लगभग 25-30 घरों में जाकर यह काम करना होता है। उनका मासिक वेतन 2000 से 4000 रुपए के बीच होता है। मगर अफ़सोस की बात यह है कि इस माहमारी के दौरान उनके खुद के बचाव के लिए कोई व्यवस्था नहीं है। जो इस बीमारी के बारे में जागरूकता फैला रही हैं और इससे डरे हुए मरीज़ों की सहायता कर रही हैं, वे इस वायरस से अपनी ही रक्षा नहीं कर पा रही हैं।
सरकार की तरफ़ से उनके लिए ‘पीपीई’ (पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट) किट भी उपलब्ध नहीं कराए गए हैं। यहां तक कि मास्क भी नहीं दिए गए। चेहरे पर दुपट्टा बांधकर वे कोविड-19 प्रभावित क्षेत्रों में प्रवेश करती हैं और वहां मरीज़ों की देखभाल करतीं हैं। दिल्ली की अमृत पाल कौर का कहना है, ‘हमें रोज़ सरकारी अफ़सरों से बुलावा आता है कि फ़लानी जगह में पॉज़िटिव केस पाया गया है, वहां जाकर सर्वे और क्वारंटीन का बंदोबस्त करना है पर पीपीई किट के बगैर ऐसा करना बहुत मुश्किल होता है। पीपीई किट तो छोड़ो, हमें मास्क, ग्लव्स और सैनिटाइजर तक नसीब नहीं होते और दिनभर हम इतने लोगों के संपर्क में आते हैं कि कम से कम दो-तीन बार मास्क बदलने की ज़रूरत होती है। ऊपर से हमें पैसे भी दिहाड़ी मजदूरों से कम मिलते हैं।’
कोरोना के खिलाफ जंग में डॉक्टरों के साथ मिलकर सबसे आगे लड़ रही हैं हमारी सामाजिक स्वास्थ्यकर्मी जिन्हें हम ‘आशा’ कार्यकर्ता कहते हैं।
छह साल से आशा कार्यकर्ता के तौर पर काम कर रही मंजीत कौर की भी ऐसी ही शिकायत है, वे कहती हैं कि ‘हम लगभग हर क्षेत्र में जाते हैं और लोगों के संपर्क में आते हैं। फिर भी हमारे लिए कोई हेल्थ इंश्योरेंस नहीं है। यहां तक कि 24 घंटे की ड्यूटी करते वक़्त अगर हमें कुछ हो जाए तो सरकारी अस्पताल भी हमारा इलाज करने से मना कर देते हैं।’
आंकड़ों के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में हर 1000 लोगों के लिए एक आशा कार्यकर्ता है। वहीं, शहरी क्षेत्रों में हर 1500 लोगों पर एक कार्यकर्ता। हम सोच सकते हैं एक इंसान पर इतने सारे लोगों की ज़िम्मेदारी कितना बड़ा भार है। यह भार उन्हें अपना स्वास्थ्य जोखिम में डालकर उठाना पड़ता है क्योंकि कमी सिर्फ़ पीपीई किट जैसी चीज़ों की नहीं है बल्कि दूसरी बुनियादी सुविधाओं की भी है। कर्नाटक की साजिदा कहती हैं कि, ‘हम सुबह साढ़े नौ बजे तक निकल जाते हैं और कम से कम दोपहर के दो बजे से पहले हमारा काम ख़त्म नहीं होता। इतनी गर्मी में भी ड्यूटी के दौरान हम पानी नहीं पीते हैं क्योंकि यहां ढंग के शौचालयों की कमी है।’
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एक और समस्या भी है जो एक समाज के तौर पर हमारे लिए बेहद शर्म की बात है, वह है आशा कार्यकर्ताओं के प्रति लोगों का व्यवहार। कई जगहों पर कार्यकर्ताओं को शारीरिक और मानसिक शोषण का सामना करना पड़ता है। कई लोग उन्हें घर के अंदर नहीं आने देते, उनसे बदतमीज़ी से पेश आते हैं या चिल्लाकर उन्हें भगा ही देते हैं। एक आशा कार्यकर्ता को स्थानीय लोगों ने लाठियों से मारा था जिसके कारण वह बुरी तरह से घायल हुईं थीं। इस तरह की परिस्थितियों में काम करने पर क्या इन कार्यकर्ताओं को सही वेतन मिलता है? नहीं। जैसा कि नांदेड में ‘सेंटर फॉर इंडियन ट्रेड यूनियन्स’ की अध्यक्ष, उज्ज्वला का कहना है, ‘जहां स्वास्थ्यकर्मियों को आमतौर पर पचास हज़ार रुपए मिलते हैं, वहां आशा कार्यकर्ताओं को इसका दस प्रतिशत भाग भी नहीं मिलता।’
आशा कार्यकर्तियों की इन परिस्थितियों के लिए हमारे समाज की पितृसत्तात्मक मानसिकता भी ज़िम्मेदार है क्योंकि वे महिलाएं हैं, उनके काम को ‘काम’ नहीं, ‘प्राकृतिक कर्त्तव्य’ माना जाता है। इसीलिए उनकी तनख्वाह और उनके लिए सामग्री पर ज़्यादा खर्चा भी नहीं किया जाता क्योंकि आखिर वे हैं तो औरतें और अपनी ‘प्राकृतिक भूमिका’ निभाने के अलावा कुछ और नहीं कर रही। अपने काम के लिए सही तनख्वाह न मिलने के कारण आशा कार्यकर्ताओं की आर्थिक स्थिति बहुत बुरी है। सातारा की निर्मला माने कहती हैं, ‘कोरोनावायरस से भी ज़्यादा ख़तरनाक है भूख का वायरस। मेरी ज़िंदगी की कीमत सिर्फ़ तीस रुपए प्रति दिन है। मुझे कैसे भी करके जितना ज़्यादा हो सके पैसे कमाना है।’
कोरोनावायरस के ख़िलाफ़ इस जंग में आशा कार्यकर्तियों का योगदान अमूल्य है। ‘कोरोना वॉरियर्स’ के तौर पर उनका काम सचमुच उल्लेखनीय है। हमें उनकी इस मेहनत के प्रति कृतज्ञ होना चाहिए और वेतन, सामग्री, और अधिकारों के लिए उनकी लड़ाई में उनका साथ देना चाहिए।
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तस्वीर साभार: newindianexpress