‘मैं एकदिन बड़ा आदमी नहीं बल्कि बड़ी औरत बनूँगी।’ शकुंतला की ये बात हमारे पितृसत्तात्मक सामाजिक ढाँचें के लिए पागलपन जैसी लग सकती है। ऐसा लगना लाज़मी भी है क्योंकि पितृसत्ता ने औरत की परिभाषा और उसके दायरे पुरुषों के अधीन ही तो बनाए है। लेकिन शकुंतला ने तो मानो इस पितृसत्ता की हर ईंट को भेदना ही अपनी ज़िंदगी का फ़लसफ़ा बना लिया था। उसने ‘गणित’ को चुना, जिसे आमतौर पर औरतों के बस की बात नहीं मानी जाती। वो कभी किसी मर्द की मोहताज़ नहीं रही, न आर्थिक और न सामाजिक। वो दुनिया घूमी ‘अकेले’ और दुनियाभर में अपना नाम कमाया। समय-समय पर आलोचनाओं और व्यक्तिगत जीवन में क्लेश का भी दौर चला, लेकिन कोई भी हिस्सा शकुंतला की चमक को फीका न कर सका।
मैं बात कर रही हूँ ‘ह्यूमन कम्प्यूटर’ के नाम से प्रसिद्ध गणितज्ञ शकुंतला देवी की। हाल ही में, शकुंतला देवी के जीवन पर बनी फ़िल्म ‘शकुंतला देवी’ अमेजन प्राइम विडियो में रिलीज़ की गयी। विद्या बालन के बेजोड़ अभिनय वाली इस फ़िल्म का लेखन और निर्देशन किया है अनु मेनन ने।
जब भी महिला नेतृत्व की बात होती है तो हम हमेशा इसे राजनीति के संदर्भ में देखते-समझते है और पितृसत्ता की राजनीति में महिलाओं के सीमित प्रभाव को देख निराश होते और कम आंकते हैं। लेकिन मेरा मानना है कि महिला नेतृत्व चाहे किसी भी दिशा में हो, ये नेतृत्व हर दिशा की दशा बदल देता है। इस बात का जीवंत उदाहरण है ये फ़िल्म। शकुंतला देवी फ़िल्म का लेखन, निर्देशन और लीड रोल महिलाओं ने किया और यही वजह है कि फ़िल्म एक सशक्त महिला की कहानी को बेबाक़, बेजोड़ और संजीदगी से प्रस्तुत करती है। फ़िल्म का यही पहलू इस फ़िल्म को ज़रूरी बनाता है। ये एक मज़बूत वजह देता है इस बात की, कि समाज के हर तबके की महिलाओं और पुरुषों को ये फ़िल्म देखनी चाहिए। यों तो फ़िल्म के कई पहलू चर्चा, विवाद और विचार का विषय हो सकते है, लेकिन यही पहलू इस फ़िल्म को मज़बूत बनाते है। आइए चर्चा करते है ऐसे ही कुछ पहलुओं पर –
शकुंतला कहती कि ‘एकदिन मैं बड़ी औरत बनूँगी’
शकुंतला देवी कभी स्कूल नहीं गयी। किसी बड़े परिवार से ताल्लुक़ भी नहीं रखती थी। इन सबके बावजूद किशोरावस्था में वो ये बात अपनी बड़ी बहन से कहती है, जो बेहद असाधारण है। हम हमेशा ‘बड़ा आदमी’ बनने का सपना देखते है। क्योंकि पितृसत्तात्मक समाज में हमें इस बात की घुट्टी बचपन से दी जाती है कि बड़ा हमेशा ‘आदमी’ ही होता है। यानी कि ‘सत्ता’, ‘ताक़त’ और ‘प्रसिद्धि’ सिर्फ़ मर्द के पर्याय है। ‘बड़ी औरत’ बनने की बात हमारी कल्पना से भी परे है। क्योंकि औरत की तस्वीर हमेशा कमजोर और दूसरों पर आश्रित दिखायी गयी है। ऐसे में शकुंतला देवी की बात और विचार वाक़ई असाधारण थे पर हक़ीक़त में ये आज की ज़रूरत है, जिन्हें समझने और आत्मसात् करने की ज़रूरत है।
शकुंतला देवी फ़िल्म का लेखन, निर्देशन और लीड रोल महिलाओं ने किया है और इसे समाज के हर तबके की महिलाओं और पुरुषों को ये फ़िल्म देखनी चाहिए।
पितृसत्ता का ‘गणित’ हल करती शकुंतला देवी
‘गणित’ और ‘विज्ञान’ ये दो विषय हमेशा से पुरुषों के लिए बनाए विषय समझे जाते थे। ये पितृसत्तात्मक समाज की ही गणित थी, जिसके तहत तथ्य और तर्क से महिलाओं को दूर रखने के लिए इसके पास महिलाओं को नहीं आने दिया जाता, जिससे इनपर पुरुषों का वर्चस्व क़ायम रहे। लेकिन शकुंतला देवी ने पितृसत्ता की इस ईंट को भेदते हुए गणित के क्षेत्र में वो मुक़ाम पाया, जिसके पास पहुँचना तो दूर वो लोगों की कल्पना से भी परे था। बिना किसी स्कूल-कॉलेज में पढ़ाई के शकुंतला देवी ने कम्प्यूटर से भी तेज अपने दिमाग़ से दुनियाभर के लोगों को अपनी प्रतिभा से चौंका दिया था।
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‘माँ’ को ‘औरत’ होने का हक़ दिलाती शकुंतला देवी
इस फ़िल्म में एक माँ की भूमिका में शकुंतला देवी के संघर्ष को बेहद संवेदनशील तरीक़े से दिखाया गया है। आमतौर पर हम ये मानते है कि कोई भी सफ़ल महिला ‘अच्छी माँ’ नहीं बन सकती है और ये ‘अच्छी माँ’ की अवधारणा भी पितृसत्ता की राजनीति है जो अपने मानकों में ‘माँ के औरत होने का हक़’ उनसे छीनती है। हम कभी ये याद नहीं रखते कि एक माँ पहले एक औरत है। ‘औरत’ जिसकी अपनी ज़िंदगी, पहचान और अस्तित्व है। बस हम हमेशा ‘माँ’ से खुद को भूल अपने नामपर ख़ुद को झोकने की उम्मीद लगाते है। लेकिन शकुंतला देवी ने ऐसा नहीं किया, वो अपनी बेटी के लिए ‘परफ़ेक्ट माँ’ भी बनी और दुनिया की ह्यूमन कम्प्यूटर भी।
ये सब बेहद चुनौतीपूर्ण था, ठीक वैसे ही जैसे आज की कामकाजी महिलाएँ काम से आने बाद घर और बच्चे की ज़िम्मेदारी उठाती है। लेकिन शकुंतला ने कभी भी अपने करियर का साथ नहीं छोड़ा, उन्हें जब कभी भी खुद की पहचान घुलने का एहसास होता वो अपने काम को नए आयाम पर ले जाती। ये कहानी थोड़ी स्वार्थी लगती अगर इसमें बात सिर्फ़ शकुंतला देवी तक ख़त्म हो जाती है, लेकिन औरत की ज़िंदगी के पूरे चक्र और उसके इतिहास को समझने की दिशा शकुंतला की बेटी ‘अनु’ की ज़िंदगी बनती है। जो अपनी ‘माँ’ को एक ‘बुरी माँ’ मानती है, क्योंकि उसने ‘माँ’ की भूमिका को याद रखने के लिए ये कभी नहीं भुलाया कि वो एक ‘औरत’ है। लेकिन जब ‘अनु’ ख़ुद अपनी बेटी को जन्म देती है, तो उसे इसबात का एहसास होता है कि ‘माँ’ होन का मतलब ये भूल जाना नहीं है कि वो एक ‘औरत’ है और ‘अच्छी माँ’ जैसी कोई चीज नहीं है।
शकुंतला देवी फ़िल्म के तीन ऐसे पहलू थे जो बेहद मज़बूत है और हर आयाम में ये शकुंतला देवी के व्यक्तित्व को सशक्त बनाते है। यों तो हिंदी सिनेमा में तमाम महिला हस्तियों पर केंद्रित फ़िल्में बनायी जाती है, लेकिन पितृसत्ता की जड़ों से जूझती ‘औरत’ के व्यक्तिगत जीवन को इतने सशक्त, सहज और संजीदा तरीक़े से बहुत कम फ़िल्मों में भी दिखाया जाता है। महिला हिंसा और भेदभाव के लंबे इतिहास वाले पितृसत्तात्मक समाज में ऐसी फ़िल्मों का निर्माण वाक़ई में उम्मीद जगाता है। उम्मीद महिला नेतृत्व, विकास और नारीवाद की जिसकी नींव लैंगिक समानता पर धरी गयी है। क्योंकि इन सबके बीच शकुंतला देवी के साथी परितोष जैसे संवेदनशील और समझदार साथी का साथ भी शकुंतला देवी को समझता, स्वीकारता और सराहता है और ये सब लैंगिक समानता की बुनियाद है।
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