कानून के रक्षा करने वाले ‘वकील एवं न्यायपालिका’ ‘कानून के मंदिर’ में ही कानून की रक्षा नहीं कर पाते। जहां हमारे देश के संविधान के अनुच्छेद 15 के तहत महिलाओं के लिए विशेष कदम उठाने की गई है। वहीं, दूसरी और कोर्ट-कचहरी में आज भी महिलाओं के प्रति भेदभाव खत्म नहीं हुआ है। कहने को तो बातचीत में बड़े गर्व से ये कह दिया जाता है कि देश में महिला वकीलों की संख्या बढ़ी है, लेकिन ये आंकड़े पूरी सच्चाई नहीं बताते। कभी यह सवाल क्यों नहीं किया जाता कि कितनी महिला वकील अंत तक अदालतों में टिक पाती है?
एक महिला वकील कोर्ट-कचहरी में कई तरह के भेदभाव झेलती है
कोई भी वो व्यक्ति जो वकालत करना चाहता है उसे पहले किसी सीनियर वकील के दफ्तर में काम करना होता है। अक्सर जाने-माने सीनियर वकीलों के दफ्तरों में महिलाओं को काम का मौका नहीं दिया जाता फिर भले ही वे कितनी ही काबिल क्यों न हो। इस प्रकार की ‘ऑल मेन पॉलिसी’ महिला वकीलों से अच्छे दफ्तरों में काम करने का मौका छीन लेती है। वकालत के इस पेशे में इससे बहुत फ़र्क़ पड़ता है कि आप अपनी वकालत किस सीनियर वकील के दफ्तर से शुरू करते हैं।
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इसके अतिरिक्त, अक्सर कोर्ट में महिला वकीलों को बड़ी ही ‘कैजुअली’ लिया जाता है, जो पुरुष वकीलों के साथ होता नहीं दिखता। महिलाओं को तवज्जो उनके काम के लिए कम और वे कैसी दिखती हैं इसके लिए ज्यादा दी जाती है। यहीं नहीं, कई बार न्यायाधीशों के सामने बहस के समय भी एक महिला वकील को खुद अपने बोलने के अधिकार के लिए जद्दोजहद करनी पड़ती है क्योंकि साथी वकील भी पुरुष होते है और इन वकीलों की बहस सुनने वाला जज भी अक्सर पुरुष ही होते हैं। ऐसा लगता है कि सब मिलकर जिस तरीके एक पितृसत्तामक समाज जिस तरीके से स्त्रियों का मुंह बंद करता है, ठीक वैसे ही अपनी महिला वकीलों का भी मुंह बंद करने की कोशिश की जाती है। इतना ही नहीं, कोर्ट-कचहरी में भी महिला वकीलों को हर मौके पर ये ज्ञान दिया जाता है कि कैसे तैयार होकर आना चाहिए, कैसे बैठना चाहिए, कैसे बोलना चाहिए, वगैरह वगैरह।
अक्सर जाने-माने सीनियर्स के दफ्तरों में महिलाओं को काम का मौका नहीं दिया जाता फिर भले ही वे कितनी ही काबिल क्यों न हो। इस प्रकार की ‘ऑल मेन पॉलिसी’ महिला वकीलों से अच्छे दफ्तरों में काम करने का मौका छीन लेती है।
इसके अतिरिक्त, कोर्ट में महिला वकील भी यौन हिंसा और उत्पीड़न की शिकार होती है। हद तो तब हो गयी जब इस प्रकार की हिंसा का मामला उच्चतम न्यायलय में भी भी पाया गया। ऐसे में हम निचली अदालतों से तो क्या ही उम्मीद रख सकते है।
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महिला वकीलों की समस्याएं यहीं खत्म नहीं होती। एक वकील के लिए खुद अपने केस लाना एक बहुत बड़ा संघर्ष होता है। ये संघर्ष उन लोगों के लिए और भी ज्यादा होता है जिनके परिवारों में कोई वकील नहीं होता। ऐसे नए वकीलों के करियर के शुरुआती साल बहुत कठिन होते है जब उनके पास एक भी केस नहीं होता। ये समस्या पुरुष और महिला वकील दोनों ही झेलते हैं। इस समस्या से निपटने के लिए वकालत के प्रोफेशन में ‘नेटवर्किंग’ कथित रूप से बहुत जरूरी होती है। ऐसे में महिलाओं के लिए इस तथाकथित ‘नेटवर्किंग’ का उपयोग करना बेहद मुश्किल होता है और वे अपने खुद के केस उतनी आसानी से नहीं ला पाती है जितनी आसानी से पुरुष वकील।
ये समस्या अपना विकराल रूप तब दिखाती है जब कोई महिला आपराधिक केस लड़ना चाहती है। इस प्रकार के मामलों में लगातार पुलिस और अपराधियों से बातचीत करनी होती है। कमजोर हो, कोमल हो, पुलिस वालों और अपराधियों से कैसे बात कर पाओगी, ये कहकर न जाने कितनी ही महिला वकीलों को आपराधिक केस अपने हाथ में लेने से रोक दिया जाता है। जिस प्रकार का कोर्ट का इंफ्रास्ट्रक्चर है वह भी महिला वकीलों के प्रति सवेदनशील नहीं नज़र आता है। कितने ही न्यायलयों में महिला वकीलों के लिए अलग से शौचालय ही नहीं होते और अगर देश की उच्च न्यायलयों की बात करें तो वह महिलाओं की सिर्फ न्यूनतम जरूरतों को ही पूरा किया जाता है। वहां भी सेनेटरी पैड्स की जरूरतों को पूरा करने की कोई व्यवस्था नहीं होती। पुरुषों के द्वारा बनाई गई ये व्यवस्थाएं आज भी सिर्फ पुरुषों की ही जरूरतों को पूरा करती है।
ऐसे में यह सवाल उठना जायज़ है कि कहीं ये सारी समस्याएं मिलकर तो नहीं रोकती महिला वकीलों को आगे बढ़ने से? जवाब शायद हां में होगा क्योंकि हमारी कोर्ट-कचहरी, हमारी न्यायिक प्रणाली भी इसी पितृसत्तात्मक समाज का हिस्सा हैं।
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