फ़ातिमा शेख़ आधुनिक भारत की पहली मुस्लिम शिक्षिका और समाज सुधारक थी। इनके जन्म के बारे में ठीक-ठीक जानकारी उपलब्ध नहीं है, हालांकि वे सावित्रीबाई फूले, ज्योतिबा फूले और सर सैयद अहमद खान की समकालीन थी। हालांकि कुछ लोग 9 जनवरी को उनका जन्मदिवस मनाते हैं। लोग यह भी मानते हैं कि वे पसमंदा समुदाय (कुर्मी) से थी जिनकी आजीविका कृषि से चलती थी। फ़ातिमा शेख़ एक सामान्य मुस्लिम परिवार से आती थी, जो पुणे के गंज पेठ इलाके में रहता था। उनके जीवन में भाई उस्मान शेख़ के अलावा किसी और पुरुष के बारे में जानकारी नहीं मिलती। इससे वैवाहिक संस्थान, महिला शोषण और व्यवस्थाओं में अंतर्निहित पित्तृसत्ता के खिलाफ़ उनका रूख़ स्पष्ट हो जाता है। उनके निजी जीवन के बारे में बहुत कम जानकारी मिलती है क्योंकि उन्होंने सावित्री बाई फुले और ज्योतिबा फुले की तरह पत्र, लेख और निजी ब्यौरे नहीं लिखे हैं।
उस दौरान का समाज और भी अधिक रूढ़िवादी, परंपरावादी और पितृसत्तात्मक था। धर्म और जाति के साथ लिंग के दायरे समाज में मौजूद थे। हिंदू और इस्लाम दोनों ही प्रमुख धर्मों को मानने वाले लोगों में महिला की हैसियत घरों से बाहर अधिक नहीं थी। पुणे का समाज हिंदू बहुसंख्यक और ब्राह्मणवादी मूल्यों पर चलने वाला था। उस समाज में दलितों और अल्पसंख्यकों को अक्सर बाहरी और निचले स्तर का माना जाता था। उनके साथ हर जगह शोषण और भेदभाव होता था। शिक्षा, केवल उच्च वर्गों तक ही सीमित थी। समाज के उच्च जाति समूह के लोग नहीं चाहते थे कि निचले वर्गों, ख़ासकर महिलाएं शिक्षित हो। असल में, उनके शोषण और भेदभाव का आधार ही अज्ञानता पर टिका हुआ था। वे जानते थे कि धर्म-ईश्वर और पवित्रता और ऊंच-नीच का जो आवरण उन्होंने रचा है, वह शिक्षा का प्रसार होते ही टूट जाएगा। उनकी पूरी सत्ता ध्वस्त हो जाएगी। इसीलिए, जब फूले ने तय किया कि वे सावित्री बाई के साथ-साथ निचले तबके के लोगों को भी पढ़ाएंगे, तब उच्च जाति के लोगों ने तमाम रुकावटें पैदा कर उन्हें रोकने की कोशिश की। उन्होंने उनके पिता के साथ मिलकर फूले दंपत्ति को घर से निकलवा दिया। उस समय, फ़ातिमा शेख़ और उनके भाई उस्मान शेख़ ने फूले दंपत्ति को रहने के लिए आसरा दिया।
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फूले ने फ़ातिमा शेख़ और सावित्री बाई को एक साथ शिक्षा दी। ऐसा भी माना जाता है कि उस्मान शेख़ ने फ़ातिमा शेख़ को पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया। दोनों महिलाओं ने पढ़कर समाज में मौजूद जाति-धर्म आधारित भेदभाव और लिंग के सामने मौजूद चुनौतियों को देखते हुए महसूस किया कि इस भेदभाव को खत्म किए जाने के लिए प्रयास किए जाने चाहिए और इसी दिशा में उन्होंने महिलाओं के लिए स्कूल खोलना तय किया। साल 1848 में फ़ातिमा शेख़ और सावित्रीबाई फुले के साझे प्रयास और ज्योतिबा फूले के सहयोग से आधुनिक भारत में लड़कियों के लिए पहला स्कूल ‘इंडिजिनीयस लाइब्रेरी’ नाम से खोला गया। इस स्कूल के लिए फ़ातिमा ने अपने घर की ज़मीन मुहैया करवाई थी।
फ़ातिमा शेख़ ने शिक्षा को निचले स्तर तक ले जाने का बीड़ा उठाया था। उन्होंने दलितों और अल्पसंख्यकों के घर जाकर उन्हें पढ़ने के लिए प्रेरित किया।
आज से उलट, लगभग 150 साल पहले के भारतीय समाज में स्त्री शिक्षा मुख्यधारा की सामाजिक-आर्थिक बहसों का भाग भी नहीं थी। उस समय फ़ातिमा शेख़ ने शिक्षा को निचले स्तर तक ले जाने का बीड़ा उठाया था। उन्होंने दलितों और अल्पसंख्यकों के घर जाकर उन्हें पढ़ने के लिए प्रेरित किया। लोगों से उनकी बेटियों को पढ़ने भेजने की सिफ़ारिश करते हुए शिक्षा का फ़ायदा बताया। शुरुआत में उन्हें उपेक्षा मिली। कट्टरपंथी हिंदू और मुसलमान दोनों ही उनके ख़िलाफ़ हो गए। हिंदू नही चाहते थे कि शिक्षा सभी तक पहुंचे, वहीं मुसलमानों के अनुसार स्त्री शिक्षा ग़ैर-धार्मिक कृत्य थी। उन्हें और सावित्री बाई को दूसरे कपड़े रखकर स्कूल जाना होता था क्योंकि रास्ते में उनपर गोबर और पत्थर फेंके जाते थे ताकि परेशान होकर वे पढ़ाना छोड़ दें, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। वे दोनों की महिलाएं जुटी रहीं और साथ मिलकर 5 स्कूल खोल दिए। उन्होंने मिलकर 1850 के दशक में दलित-मुस्लिम एकता गठित की, जिसमें दोनों ही एकसाथ समाज में जाति-धर्म और लिंग के आधार पर होने वाले शोषण के खिलाफ़ मोर्चा ले रही थी। और शिक्षा का प्रसार कर संस्थागत रूढ़िवाद को ख़त्म करने का प्रयास कर रही थी।
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फ़ातिमा शेख़ के इन योगदानों के बावजूद भारत और मुसलमान समाज उन्हें भूल जाते हैं। वह सर सैयद अहमद खान के समकालीन थी। सर सैयद अहमद खान एंड मुस्लिम फीमेल एडुकेशन: अस्टडी इन कंट्राडिक्शन― नामक एक शोध के अनुसार सैयद अहमद खान महिलाओं की आधुनिक शिक्षा के खिलाफ़ थे जबकि भारत और मुसलमान समाज फ़ातिमा शेख़ को भूल जाते हैं। इतने संघर्षों और उल्लेखनीय प्रदर्शन के बावजूद भी फ़ातिमा शेख के विषय में व्यापक जानकारी उपलब्ध नहीं है। महाराष्ट्र सरकार ने बाल भारती महाराष्ट्र स्टेट ब्यूरो जिसमें सैयद अहमद खान, ज़ाकिर हुसैन और अबुल कलाम आज़ाद आदि के बारे में विस्तृत जानकारी दर्ज की है। वहीं साल 2014 में फ़ातिमा शेख का एक संक्षिप्त परिचय जोड़ा। आज भी फ़ातिमा शेख को अपने समकालीन लोगों के बराबर दर्जा नहीं मिला है।
साल 1850 के बाद के समय में सावित्री बाई की स्वास्थ्य समस्याओं के बाद फ़ातिमा शेख़ के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती। सावित्री बाई और फ़ातिमा के संबंध में एक दूसरे के प्रति सम्मान था। सावित्री बाई अक्सर ही अपने पत्रों में फ़ातिमा का उल्लेख करती थी, इसलिए उनके बीमार होने के बाद फ़ातिमा के बारे में कोई जानकारी नहीं उपलब्ध हो पाई। आज का भारत, जहां पिछड़े और निचले तबके के लोग भी आगे बढ़ रहे हैं, उनकी स्मृतियों और संघर्षों में फूले दंपत्ति, अंबेडकर मौजूद हैं। नेताओं के भाषणों में भी आधुनिक भारतीय शिक्षा के पुरोधाओं के रूप में फूले दंपत्ति और बाद में सामाजिक परिवर्तन की दिशा में अंबेडकर का नाम यदा कदा आ जाता है लेकिन अभी भी फ़ातिमा शेख़ को उनके महान कृत्यों के बराबर सम्मान नहीं मिल पाया है। यह निश्चित तौर पर अल्पसंख्यकों के प्रति हमारी भेदभावपूर्ण नीतियों और व्यवहार का स्पष्ट उदाहरण है।
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तस्वीर साभार : feminisminindia