अमेरिका से शुरू हुआ नारीवादी आंदोलन और इसकी वैचारिकी धीरे-धीरे दुनियाभर में पहुंची। वैश्विक स्तर पर नारीवादी चेतना का प्रसार होना शुरू हुआ। अलग-अलग भौगोलिक, आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक परिवेश में स्त्रियों ने अपनी मूल समस्याओं और शोषणकारी पितृसत्तात्मक नियमों को पहचानते हुए उनके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना शुरू किया। अमेरिका और यूरोप में नारीवादी लहरें पितृसत्ता के स्थापित स्तंभों पर चोट करते हुए नए आयाम तलाशने लगी। नारीवादी आंदोलन के पहले दौर में जहां महिलाओं को ‘नागरिक’ के रूप में राजनीतिक मान्यता दिलाने के लिए संघर्ष करते हुए निहित रूढ़ मूल्यों जैसे ‘घरेलूपन’ (यानी कल्ट ऑफ डोमेस्टिसिटी) इत्यादि पर प्रहार किया गया। विवाह और संपत्ति से जुड़े अधिकार महिलाओं ने प्राप्त किए। जबकि दूसरे दौर में (1960 के बाद) पितृसत्तामक-पुरुष प्रभुत्व वाले समाज में,संस्थागत और सांस्कृतिक रूप से होने वाले शोषण और भेदभाव (लैंगिकता, परिवार और कार्यस्थल से संबंधित मुद्दों) पर ज़ोर दिया गया। नारीवादी आंदोलन के दूसरे चरण का अंत आमतौर पर 1980 के दशक को माना जाता है। इस समय इंट्रा फेमिनिस्ट डिस्प्यूट्स यानी नारीवादियों के बीच विभिन्न मुद्दों पर असहमतियां और बहसें बढ़ने के कारण और ‘लैंगिकता और पॉर्नोग्राफी’ जैसे मसलों पर नवीन विचारों और भिन्न रायों से 1990 के दशक में नारीवादी आंदोलन की तीसरी लहर की शुरुआत हुई।
पहले और दूसरे चरण के सबसे महत्वपूर्ण हासिल में से एक नारीवादी विमर्श और चेतना का विकास था। पहले दौर में जहां अग्रेज़ी भाषा के ‘सेक्सिस्ट’ चरित्र को पहचानते हुए उसे विभेदक मानकर बदलने के लिए प्रयास किए जाने लगे। वहीं दूसरे चरण में ‘ पर्सनल इज़ पॉलिटिकल’ की अवधारणा ने संबंधों के भीतर निहित पितृसत्ता को निजी न मानकर वृहद पुरुष निर्मित राजनीति का खुलासा किया गया। ये दोनों ही दौर महिलाओं के सामूहिक हितों की लड़ाई लड़ते हुए पुरुषों के समान अधिकार देने के हिमायती थे।
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नारीवादी आंदोलन की तीसरी लहर पहले और दूसरे दौर से अपने स्वरूप, लक्ष्यों और मूल्यों की प्रकृति में भिन्न थी। जहां पहले के दोनों चरण सामूहिक तौर पर महिला हितों की बात करते थे। वहीं, तीसरे चरण में व्यक्तिगत महिला उद्देश्यों और आकांक्षाओं को महत्व दिया गया। इस दौरान विविधता और व्यक्तिवादी मूल्यों को समझते हुए यह माना गया कि महिलाओं के भीतर अलग-अलग समूहों के भिन्न हित हैं और उन्हें भी समान रूप से समझने और स्वीकारने की आवश्यकता है। पहले और दूसरे दौर में श्वेत नारीवादियों द्वारा आंदोलन का नेतृत्व किया गया और मूलतः उनकी मांगों और ज़रूरतों पर ध्यान दिया गया। आंदोलन का सीधा लाभ भी उन्हें ही मिला, अश्वेत महिलाओं को अभी भी दोहरा शोषण झेलना पड़ रहा था। तीसरे चरण में परस्पर-व्यापी सामाजिक पहचानों और शोषण के भिन्न कारकों जैसे वर्ग, नस्ल, जाति इत्यादि को भी विमर्श में स्थान देते हुए आंदोलन को अधिक व्यक्तिपरक बनाने का प्रयास किया गया।
नारीवादी आंदोलन की तीसरी लहर नारीवादी आंदोलन की वह यात्रा है, जो 1990 के अमेरिका में शुरू हुई और 2010 तक चौथे चरण की शुरुआत तक खत्म हुई। यह दौर मूल रूप से इस तथ्य को दोबारा परिभाषित करने का प्रयास है कि ‘ नारीवादी होने के क्या मायने हैं।’ इसकी शुरुआत 1990 में ओलम्पिया के ‘रायट गर्ल’ (Riot grrrl) नाम के एक नारीवादी उपसंस्कृति समूह (Feminist Punk Subculture) के उद्भव से मानी जाती है। असल में, समाज में महिलाएं सदैव बाहरी और दोयम दर्जे की मानी जाती रही हैं। उन्हें कभी भी अभिव्यक्ति के लिए समान ‘स्पेस’ नहीं दिया गया, ऐसे समूहों के माध्यम से एक प्रचलित संस्कृति के बरक्स एक उपसंस्कृति विकसित की गई, जहां महिलाएं पितृसत्ता, बलात्कार, भेदभाव, स्त्री सशक्तिकरण इत्यादि पर अपनी बात रख सकती थी।
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एक महत्वपूर्ण घटना से नारीवादी आंदोलन की तीसरी लहर को तेज़ी मिली जब अनिटा हिल ने अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के नामित अफ्रीकी-अमेरिकी जज क्लेरेंस थॉमस के ख़िलाफ़ यौन हिंसा का आरोप लगाया। थॉमस ने आरोपों को ‘हाई टेक लिंचिंग’ कहते हुए खारिज़ कर दिया। मामला बढ़ने पर, टेलीविज़न पर हिल की गवाही के बावजूद सीनेट की वोटिंग हुई जिसमें अमेरिकी सीनेट ने 52-48 के आंकड़ें से थॉमस को बरी कर दिया। इसके विरोध में पत्रिका-Ms. Magazine में रेबेका वॉकर ने शीर्षक ‘बीकमिंग द थर्ड वेव’ से एक लेख लिखते हुए कहा, “आई एम नॉट पोस्ट-फेमिनिज़्म फेमिनिस्ट। आई एम द थर्ड वेव।” यानी नारीवाद का तीसरा दौर शोषणयुक्त सामाजिक गतिविधियों की प्रतिक्रिया भर नहीं था, बल्कि यह अपने आप में एक आंदोलन था, यह सीधे तौर पर महसूस किया गया कि अभी भी समाज में संस्थागत पितृसत्ता है और आने वाले समय के लिए नारीवादी मूल्यों और लक्ष्यों को संयोजित किया जाना आवश्यक है।
संस्थाओं के पितृसत्तात्मक चरित्र के पीछे अधिक संख्या में पुरुषों की संख्या अथवा प्रभुत्व था। धीरे-धीरे यह समझा गया कि सामाजिक पूंजी और राजनीतिक साख हासिल करके ही आंदोलन के निहित लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सकता है, इसीलिए महिलाएं इस ओर बढ़ीं। साल 1992, महिलाओं का साल कहा जाता है क्योंकि इस दौरान अमेरिकी सीनेट की कुल महिला संख्या 6 थी। 1990 के दशक में ही पहली बार अटॉर्नी जनरल तथा राज्य सचिव का पद महिलाओं को मिले थे, जिससे राजनीतिक, वैधानिक और एक्टिविस्ट क्षेत्रों में महिलाओं की स्वतंत्र व महत्वपूर्ण भागीदारी हुई थी। 31 जुलाई, 1991 में विमानन क्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी के पक्ष में सीनेट ने वोट किया। इस तरह, रक्षा से लेकर नेतृत्वकर्ता की भूमिका में महिलाएं पहुंचकर रूढ़ मापदंडों को ध्वस्त कर रही थी।
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1992 में रेबेका वॉकर और शैनन लिस रिऑर्डन द्वारा युवा नारीवादियों के सहयोग के लिए थर्ड वेव डायरेक्ट ऐक्शन कॉरपोरेशन नामक समूह बनाया गया। शैनन जो कि श्रमिक अधिकारों के लिए संघर्ष करती हैं, उन्होंने इस समूह के बनाने के पीछे लक्ष्य था अश्वेत लोगों और महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी, लेकिन क्योंकि वे उपेक्षित और बाहरी समूह माने जाते हैं, इसलिए उनके लिए इसमें भाग ले पाना आसान नहीं है। इस दौरान कुछ फिल्मों में भी समाज की स्थापित परंपरा के ख़िलाफ़ नए विमर्श व कहानियां दिखाई जाने लगीं। मई 1991 में रिलीज़ फ़िल्म थेल्मा एंड लूसी (Thelma & Lousie) ऐसी ही फ़िल्म थी जिसमें महिलाओं के रोड ट्रिप और अनअपेक्षित परिस्थितियों को दर्शाया गया है। इस फ़िल्म का व्यापक विरोध इस बात पर हुआ था कि यह पुरुषों की गलत छवि प्रस्तुत करती है।
नारीवादी आंदोलन की तीसरी लहर समाज के मौजूद विविधता को महत्व देती है। इस दौरान समाज में मौजूद विभिन्न धाराओं और उनकी आकांक्षाओं को लेकर बात हुई। साल 1989 में प्रोफेसर किम्बरले क्रेंशॉ ने ‘इंटरसेक्शनैलिटी’ की बात करते हुए कहा कि नारीवाद के भीतर बहुत सारी अदृश्य मान्यताएं मौजूद हैं जो अल्पसंख्यकों विशेषकर अश्वेत महिलाओं को विमर्शों, किताबों, इतिहास की घटनाओं और नारीवादी शोधों से बाहर कर देते हैं। इस दौरान विभिन्न सामाजिक पहचानों को नारीवादी विमर्शों में शामिल किया गया और यह स्पेस दिया गया कि प्रत्येक महिला नारीवाद को अपने हिसाब से परिभाषित कर सके। इस विचार को मूल रूप से ‘यंग वीमेन,फेमिनिज़्म एंड द फ्यूचर,2000’ में जेनिफ़र बॉमगॉर्डन और एमी रिचर्ड्स द्वारा प्रेषित किया गया था। इसके माध्यम से नारीवाद को व्यक्तिगत विमर्श के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया गया।
इस दौरान ही मेल-फीमेल बाइनरी को बनावटी सांस्कृतिक संरचना माना गया जो सत्ता प्राप्ति और संसाधनों पर कब्ज़े के लिए सदियों से चलता आ रहा था। 1990 के बाद और इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में इंटरनेट क्रांति ने तीसरे चरण को विशेष सफ़लता दी जिसमें दुनिया भर की नारीवादी एक दूसरे के संघर्ष में न केवल लिखकर अथवा बोलकर (सॉलिडेरिटी) सहयोग दे सकती थी, बल्कि अपने मुद्दे भी एक दूसरे से साझा कर सकती थी। इसके कारण वैश्विक स्तर पर अपने उद्देश्यों और मूल्यों को संप्रेषित करना आसान हुआ। साथ ही, संस्कृति में निहित लैंगिक रूढ़ भूमिकाएं और नस्लीय भेदभाद के ख़िलाफ़ एक साथ दुनिया भर की दूसरी आबादी ने आवाज़ उठाई।
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नारीवाद का तीसरा चरण पहले दोनों की अपेक्षा बिखरा और असंगठित था। इस दौर की नारीवादियों ने पहले और दूसरे चरण के संघर्षों और उनके द्वारा पाई गई सफलताओं को उतना महत्व नहीं दिया जितना दिया जाना चाहिए था। उन्हें पुराने विमर्श कहकर खारिज़ करते हुए यह भी नहीं सोचा गया कि जो स्वायत्तता तीसरे दौर की महिलाओं को मिली है, वह उनकी ‘फोरमदर्स’ के संघर्षों का परिणाम है। तीसरा दौर अधिक खुला हुआ और बहसों के लिए तैयार था। इस दौर में बहुत हद तक समाज तक अपनी बात पहुंचाने की कोशिश की गई। दुनिया भर में सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक क्षेत्रों में महिलाओं ने महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभायीं। हर क्षेत्रक में महिलाओं ने अपने आप को सिद्ध कर रूढ़ियों तोड़ दिया है। फिर भी, पितृसत्ता की जड़ें समाज में भीतर तक गड़ी हैं। इनपर लगातार ठोकर मारने की ज़रूरत है। अभी भी धर्म लोगों के जीवन को नियंत्रित कर रहा है और इस तरह विवाह और परिवार जैसे संस्थानों में महिला शोषण मौजूद है। 2010 के बाद नारीवाद का चौथा चरण शुरू हुआ है। दुनिया खुली है। बहसें और संवाद ज़ारी हैं। अभी भी ज़रूरत है कि महिलाएं को एकजुट हों और पितृसत्ता से लड़ाई लेकर इसे उखाड़ फेंकें।
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तस्वीर साभार : Tumblr
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