संस्कृतिख़ास बात ख़ास बात : सीएए के ख़िलाफ़ प्रदर्शनों में सक्रिय रहीं स्टूडेंट एक्टिविस्ट चंदा यादव

ख़ास बात : सीएए के ख़िलाफ़ प्रदर्शनों में सक्रिय रहीं स्टूडेंट एक्टिविस्ट चंदा यादव

बीते साल 12 दिसंबर को जामिया की छात्राओं द्वारा सीएए के खिलाफ़ किए गए प्रदर्शन के बाद देश में चंदा यादव जामिया आंदोलन का एक चेहरा बनकर उभरी थी

नागरिकता संशोधन कानून मौजूदा सरकार के सबसे विवादित फैसलों में से एक रहा है। इस सरकार के दोनों कार्यकालों में यह पहला मौका था, जब कई महीनों तक देशभर में इस कानून का व्यापक विरोध हुआ। सीएए विरोधी आंदोलन इस लिहाज़ से भी महत्वपूर्ण रहा कि महिलाओं ने न सिर्फ इसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया बल्कि ज़्यादातर आंदोलनों का नेतृत्व भी महिलाओं ने ही किया । दिल्ली के शाहीन बाग में बुज़ुर्ग महिलाओं ने प्रतिरोध की आवाज़ बुलंद की। साथ ही आंदोलन का केंद्र बिंदु रहे जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय की भी छात्राओं ने आंदोलन का नेतृत्व किया। जामिया की छात्रा चंदा यादव इस आंदोलन का एक महत्वपूर्ण चेहरा रही थी। बीते साल 12 दिसंबर को जामिया की छात्राओं द्वारा नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ़ किए गए प्रदर्शन के बाद पूरे देश में जामिया प्रदर्शन के चेहरे के रूप में पहचान बनाने वाली चंदा यादव आज हमसे अपने प्रारंभिक जीवन, संघर्ष और एक्टिविज़्म में महिलाओं की स्थिति पर बात कर रही हैं। पढ़िए, उनसे हमारी पूरी बातचीत:

सवाल : आप उत्तर प्रदेश के चंदौली ज़िले से आती हैं और फिलहाल जामिया मिल्लिया इस्लामिया में पढ़ाई कर रही हैं। छोटे और रुढ़िवादी इलाके से निकलकर दिल्ली के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय तक पहुंचने में एक महिला के रूप में आपका अनुभव कैसा रहा है?

चंदा यादव : मैं उत्तर प्रदेश के एक ऐसे इलाके से आती हूं, जहां महिलाओं को केवल चूल्हा-चौका तक सीमित कर दिया जाता है। हालांकि, यह बात संपूर्ण भारतीय समाज पर लागू होती है, इस लिहाज़ से मेरा अब तक यहां पहुंचने का सफ़र बेहद संघर्षशील रहा है। अक्सर, जब हम अपने घर में बैठकर पढ़ते थे तो मेरे दादा कहा करते थे कि बाकी घरों की बच्चियां इतना काम करती हैं और तुम लोग बैठकर पढ़ते हो, जैसे पोथी-पत्री पढ़कर कलेक्टर ही बन जाओगी। अपने दादा की यह बात हमें बहुत बुरी लगती थी और इससे चिढ़ होती थी। हमारे घरों में भी महिलाओं के साथ खाने से लेकर बाहर आने-जाने तक बहुत भेदभाव किया जाता है। हमें पढ़ाने को लेकर भी उनका रवैया ऐसा था कि मुश्किल से ही हम लोग बारहवीं तक पढ़ सकते थे और उसके बाद की पढ़ाई घर पर रहकर ओपन स्कूल से ही करनी थी। ऐसे में मुझे यहां आने के लिए बहुत ही लड़ना पड़ा। मैं घर वालों से जिद करके यहां पढ़ने आ पाई हूं। मेरे आने के बाद मेरी बहन को भी एक विश्वविद्यालय में दाखिला दिलवाने के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ा। मैंने खुद देखा है कि हमारे घरों में अवसर मिलने पर लड़कियां लड़कों से अच्छा प्रदर्शन करती हैं। मेरे अपने ही घर में अपने भाइयों की अपेक्षा पढ़ने के मामले में हम बहनें ज़्यादा आगे हैं। हालांकि, जामिया आने के बाद मेरे घर की महिलाओं का मुझे काफी समर्थन मिला है। इसका कारण यह है कि उन्हें लगता है कि उन्होंने अपने जीवन में जो चूल्हा-चौका किया है, वह हमारी बच्चियों को न करना पड़े।

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सवाल : जामिया आने के बाद की स्थिति क्या थी, यहां आकर किस तरह की चीज़ों से सामना हुआ?

चंदा यादव : मैंने जब जामिया आने का निर्णय लिया तो घर वालों द्वारा अक्सर यह कहा जाता था कि वह मुसलमानों की यूनिवर्सिटी है और वहां जाने के बाद तुम भी वैसी ही हो जाओगी। कुल मिलाकर मेरे घरवालों का मत भी किसी आम भारतीय मध्यम-वर्गीय हिन्दू परिवार जैसा ही था। उनके मन में इस विश्वविद्यालय को लेकर गलत धारणाएं बनी हुई थी। जनता में यह भ्रम फैलाया गया है कि जामिया में केवल मुसलमान पढ़ते हैं और जहां तक रही बात जामिया को लेकर मेरे व्यक्तिगत अनुभव की तो वह बेहद सकारात्मक रहा है। मेरे परिवारवालों की अधिकतर धारणाएं ग़लत साबित हुई हैं।

अक्सर, जब हम अपने घर में बैठकर पढ़ते थे तो मेरे दादा कहा करते थे कि बाकी घरों की बच्चियां इतना काम करती हैं और तुम लोग बैठकर पढ़ते हो, जैसे पोथी-पत्री पढ़कर कलेक्टर ही बन जाओगी। अपने दादा की यह बात हमें बहुत बुरी लगती थी और इससे चिढ़ होती थी।

सवाल : आप कितने सालों से छात्र आंदोलन में सक्रिय हैं और इस दौरान महिला के रूप में आपके क्या अनुभव रहे हैं ?

चंदा यादव : मैं अपने ग्रेजुएशन के पहले साल से ही छात्र राजनीति में सक्रिय हूं। अभी हाल के इस नागरिकता संशोधन कानून विरोधी आंदोलन के दौरान मैंने महिला होने के नाते चीजों को काफी करीब से महसूस किया है। मैं इस आंदोलन में एक बड़ी भूमिका में थी मगर फिर भी आस-पास के माहौल में मेरी महिला होने की पहचान प्रासंगिक बनी हुई थी। बहुत बार कैंपस में ही पुरुषों द्वारा हमें ‘साइडलाइन’ करने की कोशिश की गई। कहा गया कि यह महिला है, नहीं कर पाएगी। कई बार हमारी बातों को नज़र-अंदाज़ किया गया और हम पर व्यंग्य किए गए। मैं सोचती हूं कि मेरे तीन साल तक राजनीति में सक्रिय रहने के बाद भी चीज़ें ज़्यादा बदली नहीं हैं, ऐसे में किसी और महिला के लिए यह सब कितना कठिन होगा।

जामिया आंदोलन के दौरान यह तस्वीर सबसे अधिक वायरल हुई थी। तस्वीर साभार: फेसबुक

सवाल : आप अपने विश्वविद्यालय के अपने पहले साल से ही एक्टिविज्म से जुड़ी हुई हैं, ऐसे में मौजूदा समय में छात्र राजनीति में महिलाओं के लिए कितना ‘स्पेस’ देख पाती हैं?

चंदा यादव : विश्वविद्यालय के अन्दर होने वाली छात्र राजनीति में धीरे-धीरे महिलाएं मुखर होकर सामने आ रही हैं और अपने आप को देश-विदेश में घटने वाली घटनाओं से जोड़कर देख रही हैं। वे यह जान रही हैं कि किस तरह से समाज में उनका शोषण किया जा रहा है। पुरुष नहीं चाहते हैं कि महिलाएं आगे जाएं। मगर अब महिलाएं खुद अपना ‘स्पेस’ तलाश रही हैं। ऐसा नहीं है कि कोई हमें स्पेस दे रहा है, हम खुद अपना स्पेस रीक्लेम कर रहे हैं और इसी का परिणाम है कि अब छात्र राजनीति में महिलाओं का ‘स्टेक’ बढ़ रहा है। पुरुष इस ग़लतफ़हमी में न रहें कि उन्होंने हमें कुछ दिया है। ये ‘स्पेस’ हमारा अधिकार है और हम इसे छीनकर लेंगे। यह कहना जल्दबाज़ी होगी कि महिलाओं को पर्याप्त स्थान मिल गया है, मगर हां, अब हम उस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। जामिया की ही बात करें तो यहां बीते कुछ सालों में हुए महत्वपूर्ण आंदोलनों में महिलाओं ने ही नेतृत्व किया है। हमने इज़राइल के ख़िलाफ़ आन्दोलन किया है, फाइन आर्ट्स प्रोटेस्ट हो, गर्ल्स हॉस्टल का मसला हो या फिर ये नागरिकता संशोधन कानून का आंदोलन हो, हर बार महिलाओं ने आगे आकर लड़ाई लड़ी है, ऐसे में कोई पुरुष यह कैसे कह सकता है कि उन्होंने हमें स्थान या अवसर दिया है।

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सवाल : अब जब महिलाएं पुरुषों को रिप्लेस कर रही हैं और अपना ‘स्पेस’ रिक्लेम कर रही हैं, तब पुरुषों का महिलाओं के प्रति क्या रिएक्शन होता है?

चंदा यादव : कुछ पुरुष जो चीज़ों को लेकर सोचते-समझते हैं, उन्होंने सकारात्मक प्रतिक्रियाएं दी, वहीं कुछ लोग राजनीति में महिलाओं के उभार को अपने अस्तित्व के लिए खतरा मान रहे थे। हालांकि, यह नासमझी है। महिलाओं के उदित होने का अर्थ पुरुषों का अंत हो जाना नहीं है।

सवाल : नागरिकता संशोधन विधेयक के खिलाफ़ हुए इस आंदोलन के दौरान आपकी तस्वीरें राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय मीडिया में छपी, यह आंदोलन बहस का विषय बना, इन सब ने आपकी निजी ज़िन्दगी को कैसे बदला है?

चंदा यादव : मुझे नहीं लगता इस घटना ने मेरी निजी ज़िन्दगी को ज़्यादा प्रभावित किया है। इसका कारण यह है कि हम अभी भी इसी पुरुषवादी समाज में रह रहे हैं। अभी कोरोना के दौरान जब मैं वापस अपने घर गई तो मुझे कोई भी बदलाव नहीं महसूस हुआ, मुझे लगा कि मुझे वापस अपनी पुरानी ज़िन्दगी में लौटना पड़ा है। मैं अब भी घरवालों के लिए ऐसी महिला हूं जो घर तक सीमित है। आज भी घर में निर्णायक की भूमिका से दूर हूं।

सवाल : आपके अनुसार शाहीन बाग के आन्दोलन के भारतीय राजनीति में क्या दूरगामी परिणाम होंगे?

चंदा यादव : शाहीन बाग का आंदोलन भारतीय राजनीति में मिसाल के रूप में याद किया जाएगा। महिलाओं को जहां चूल्हा-चौका तक सीमित कर दिया गया था, उस धारणा को तोड़ते हुए शाहीन बाग की महिलाएं घरों से बाहर निकलकर आती हैं और प्रतिरोध में आवाज़ बुलंद करती हैं। यह बात भी महत्वपूर्ण है कि यह आंदोलन इधर तक ही सीमित नहीं रहा बल्कि ये देश के कोने-कोने तक पहुंचा है। महिलाओं ने इसके ज़रिए जाना कि उन्हें सड़कों पर उतरकर अपनी बातें कहनी चाहिए। इस तरह से इस आन्दोलन ने भारत की राजनीति में महिलाओं को अपनी भागेदारी सुनिश्चित करने के लिए प्रेरित किया है जिसके आने वाले दिनों में सकारात्मक परिणाम देखने को मिलेंगे।

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तस्वीर साभार : फेसबुक

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