इंटरसेक्शनलजेंडर आज भी गांव की लड़कियों के लिए पढ़ना एक बड़ी चुनौती है

आज भी गांव की लड़कियों के लिए पढ़ना एक बड़ी चुनौती है

गाँव की ज़मीनी हक़ीक़त यही है, जहां लड़कियों को अपनी शिक्षा और आगे बढ़ने के अवसर के लिए तमाम चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।

उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गांव प्रतापपुर की प्रियंका गरीब परिवार से है। शारीरिक रूप से विकलांग प्रियंका के दो बड़े भाई और एक बड़ी बहन है। ग़रीबी के चलते दो भाई मामा के घर रहते और बड़ी बहन की शादी होने के बाद वह ससुराल चली गई। अब प्रियंका अपने मां और पिता के साथ रहती है। पिता कोई काम नहीं करते और मां मज़दूरी करके परिवार का पेट पालती। बड़ी बहन की मदद से प्रियंका ने एमए तक की पढ़ाई पूरी की। घर में रहते हुए उसने सिलाई का काम शुरू किया और फिर नर्सिंग का कोर्स भी किया, लेकिन वो नर्सिंग में अपना करियर न बना सकी और एक स्वयंसेवी संस्था से जुड़ी। आज प्रियंका गांव की कई लड़कियों और महिलाओं को सिलाई का हुनर सीख़ा रही है।

ग़ौरतलब है कि प्रियंका जैसा जज़्बा गांव में बेहद कम ही लड़कियों में देखने को मिलता है।क्योंकि आज भी पढ़ाई करने और आगे बढ़ने की उनकी इच्छा पर परिवार में हड़कंप मच जाता है। कहने को तो महिलाएं आज हर क्षेत्र में आगे है लेकिन गांव से कितनी महिलाएं सफलता का यह सफ़र पूरा कर पाती है यह कहना बेहद मुश्किल है। मैं ख़ुद भी गांव से हूं और गांव की ही किशोरियों और महिलाओं के साथ काम कर रही हूं, ऐसे में अपने अनुभव के आधार पर कहूं तो ग्रामीण क्षेत्रों (ख़ासकर हिंदी भाषी क्षेत्रों में) महिलाओं का शिक्षा स्तर बेहद नीचे है। आज भी महिलाओं का अस्तित्व घर, रसोई और परिवार बसाने तक सीमित करके देखा जाता है।

पढ़ाई से ज़्यादा ज़रूरी बताया जाता है ‘चूल्हा फूंकना’  

लैंगिक भेदभाव के चलते लड़की की पढ़ाई से ज़्यादा उसकी शादी में ख़र्च को तवज्जो दी जाती है। ऐसे में अगर कोई भी लड़की आगे बढ़ने और अपने जीवन में कुछ करने की इच्छा ज़ाहिर करती है तो उसे दबाने की पूरी कोशिश की जाती है। ग्रामीण क्षेत्रों में महिला अधिकार तो क्या महिलाओं को उनका मौलिक अधिकार तक नहीं दिया जाता है। बचपन से ही उन्हें अक्षर लिखने की बजाय गोल रोटी बनाने और चूल्हा चौका करने के लिए प्रेरित किया जाता है। लड़कियों को ये घुट्टी पिलाई जाती है कि चाहे कितना भी पढ़ो-लिखो करना तुम्हें चूल्हा-चौका ही है, ऐसे में लड़कियां भी अपने आपको उसी दायरे में समेट लेती हैं जिस दायरे में उन्होंने अपनी मां और घर की बाक़ी औरतों को देखा है। सरकार की तमाम योजनाओं के चलते अब धीरे-धीरे लड़कियों को पांचवी या आठवीं तक पढ़ने के लिए सरकारी स्कूल भेजा जाता है, लेकिन घर का माहौल उनके लिए वैसा ही बना रहता है। स्कूल जाना उनका बस एक काम समझा जाता है और परिवार के इसी उदासीन रवैए के चलते लड़कियाँ ख़ुद भी पढ़ाई को उतना महत्व देती है।

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सोचने-समझने वाली नहीं कम बोलने वाली लड़की

हमारा सामाजिक परिवेश लड़कियों को सवाल करने, सोचने-समझने और पुरुषों की तरह आगे बढ़ने की इजाज़त नहीं देता है। बचपन से ही लड़की के विकास और उसकी सोचने समझने की क्षमताओं को इज़्ज़त के धागे से सिलकर पहले दुपट्टे और फिर घूंघट से ढक दिया जाता है। यही वजह है कि जब कोई लड़की समाज के इस ढांचे से इतर आगे बढ़ने को कदम बढ़ाती है तो उन पर कई तरह के ताने कसे जाते है, उनके चरित्र पर सवाल उठने लगते है और उनसे काम की ज़रूरत पूछी जाने लगती है। इतना ही नहीं उन्हें सलाह भी दी जाती है कि अगर कुछ करना ही है तो घर के काम-काज सीख लो जिससे ससुराल में एक कुशल गृहणी बन सको। नतीजतन लड़की के लड़ने-पढ़ने और आगे बढ़ने की चाह अंतिम सांस लेती हुई एकदिन ख़त्म हो जाती है।

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पितृसत्ता के खेल की मोहरा बनती महिला

कहते हैं कि एक औरत जब पढ़ती है तो पूरा परिवार पढ़ता है क्योंकि एक औरत जो ख़ुद पढ़ी-लिखी होती है वह ख़ुद पढ़ाई का मतलब समझती है और अपने परिवार में सभी को पढ़ने के लिए प्रेरित करती है। इसके ठीक विपरीत जब कोई महिला पढ़ी-लिखी नहीं होती है तो वह किसी भी तरह अपने परिवार को पढ़ने के लिए प्रेरित नहीं कर पाती है। इसके ढेरों जीवंत उदाहरण हम गांव में देख सकते है, जहां अशिक्षित महिलाएं अपनी घर की महिलाओं ख़ासकर बेटियों और बहुओं की शिक्षा को न केवल शून्य समझती हैं बल्कि उन्हें आगे बढ़ने के अवसरों को भी बाधित करने लगती है। अब हो सकता है कि आपको ये लगे कि यही तो है ‘औरत ही औरत की दुश्मन’ वाला उदाहरण। तो बता दें ये भी पितृसत्ता का ही खेल है जिसने महिलाओं में स्त्रीद्वेष को बढ़ावा दिया है क्योंकि जब हम ग्रामीण में महिला शिक्षा के प्रति महिलाओं की रुचि का विश्लेषण करते हैं तो इसमें पितृसत्तात्मक सोच और इसके ढांचे को ही शिक्षा के प्रति महिलाओं की उदासीनता को ज़िम्मेदार पाते है। पितृसत्ता में एक पढ़ी-लिखी, आत्मनिर्भर और अपनी शर्तों ज़िंदगी जीने वाली औरत की स्वीकारता नहीं होती है और इसी के चलते उन्हें संसाधनों से संबंधित कई विशेषाधिकार से भी वंचित किया जाता है।  

हो सकता है आपको ये सब बीते जमाने की बात लगे। लाज़मी भी है क्योंकि आधुनिकता के इस दौर में मीडिया में हम लड़कियों को ही दसवी, बारहवीं से लेकर यूपीएसई में अव्वल आते देखते है। लेकिन इन सबके बावजूद गांव की ज़मीनी हक़ीक़त यही है, जहां लड़कियों को अपनी शिक्षा और आगे बढ़ने के अवसर के लिए तमाम चुनौतियों का सामना करना पड़ता है और अधिकतर लड़कियां इन चुनौतियों को पार नहीं कर पाती क्योंकि उन्हें कभी भी इन संघर्षों के लिए तैयार ही नहीं किया जाता है।  

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तस्वीर साभार : unicef

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