इंटरसेक्शनलजेंडर महिलाओं के ख़िलाफ़ बढ़ती हिंसा बता रही है कि हम महिलाओं का कोई राष्ट्र नहीं है

महिलाओं के ख़िलाफ़ बढ़ती हिंसा बता रही है कि हम महिलाओं का कोई राष्ट्र नहीं है

सर्वाइवर्स की पीड़ा को स्वीकार नहीं करने से बड़ा कोई पक्षपात और अन्याय नहीं है और यह एहसास दिलाता है कि महिलाओं का कोई राष्ट्र नहीं है।

हमारी सामाजिक संरचना की वजह से सदियों से ऐसी धारणा बनी हुई है जिसके मुताबिक हमारे समाज में महिलाओं को हमेशा एक ‘संरक्षक’ की ज़रूरत होती है। भारत माता एक बेहतरीन उदाहरण है यह समझने के लिए कि किस प्रकार राष्ट्र को स्त्री का दर्जा दिया गया है। यहां राष्ट्र को स्त्री के साथ जोड़ते ही इसके सम्मान और इज़्ज़त की रक्षा की ज़िम्मेदारी पुरुषों के ऊपर आ जाती है। इसी तरह पुरुष, स्त्रियों के साथ ही राष्ट्र के संरक्षक बनते हुए टॉक्सिक मर्दानगी को बढ़ावा देते हैं। 

महिलाओं के साथ हर दिन घटने वाली हिंसा और समाज में उनका दूसरा स्थान इस बात का एहसास दिलाता है कि सदियों से सम्मान और इज़्ज़त के नाम पर महिलाओं को सिर्फ छला है इस समाज ने। इस गैरबराबरी वाले समाज में अपने अधिकारों को पाने के लिए महिलाओं को बहुत संघर्ष करना पड़ा है। हालांकि वर्षों के संघर्ष के बाद भारत में महिलाओं को कानूनन रूप से बराबरी का अधिकार तो मिल गया लेकिन आज भी वह सारे अधिकार कानून की किताब तक ही सिमट कर रह गए हैं। 

महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा को समझने के लिए उनके साथ जुड़े हर पहलू को जानना ज़रूरी होता है। महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा में उनका जाति-धर्म, एथनिसिटी, रंग-रूप, वर्ग, जगह-समूह जैसे कारक एक अहम भूमिका अदा करते हैं। महिलाएं चाहे जिस भी जाति धर्म या वर्ग से आती हो उनमें एक बात समान होती है, ‘पितृसत्तात्मक’ समाज के द्वारा उनका शोषण। मानवाधिकार कार्यकरता और लेखक रीता मनचंदा कहती हैं, “महिलाओं के साथ होनी वाली हिंसा उनकी यौनिकता के साथ ही उनके आसपास के संसाधनों को नियंत्रण करने की कोशिश करता है। यह सब राजनीतिक हिंसा का एक पहलू है।”

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महिलाओं को घर और बाहर अलग-अलग तरीके से हिंसा और भेदभाव का सामना करना पड़ता है। बचपन से ही लड़कियों को बताया जाता है कि शादी के बाद पति परमेश्वर समान होता है और उसकी आज्ञा का पालन करना पत्नी धर्म होता है। लेखिका तस्लीमा नसरीन ने अपनी किताब ‘No Country for Women में लिखा है; “औरतों का अपना ख़ुद की कोई जगह,घर,राष्ट्र नहीं है और कैसे अपना जगह पाने के लिए उन्हें हर इंच जमीन के लिए संघर्ष करना पड़ता है। ” उन्होंने यह बात बांग्लादेश के संदर्भ में लिखी है लेकिन यह बात भारत में भी उतनी ही लागू होती है।

जिस समाज में बचपन में ही मां-बाप बेटियों को बता देते हैं कि वह परायी संपति हैं,वहां ससुराल में अनबन हो जाने पर उनसे कह दिया जाता है वे अपने ‘घर’ यानी ससुराल वापस चली जाएं। कुंवारी हुई तो ‘लड़का फंसाने’ और शादीशुदा हुई तो ‘बेटे को वश में’ करने से लेकर घर तोड़ने का तमगा औरतों को दिया जाता है। ऐसा बोलते वक़्त लोग भूल जाते हैं कि लड़कियों का ख़ुद का कोई घर नहीं होता है। भारत में मैरिटल रेप की बात आते ही प्रगतिशीलता का तमगा ओढ़े समाज की सच्चाई सामने आ जाती है। उच्च पद बैठे न्यायधीश भी बोल उठते हैं कि हमारे देश की संस्कृति में मैरिटल रेप जैसे चीज़ की कोई जगह नहीं है।

अनगिनत आवाज़ें चीख़-चीख़ कर सबूत दे रहीं हैं कि यह मुल्क औरतों के लिए नहीं है, कोई मुल्क औरतों के लिए नहीं है। हिंसा के सर्वाइवर की पीड़ा को स्वीकार नहीं करने से बड़ा दुनिया में कोई पक्षपात और अन्याय नहीं है। यह अन्याय इस बात का एहसास दिलाता है कि “महिलाओं का कोई राष्ट्र नहीं है।”

घर से बाहर कदम रखते ही औरतों को आदमियों की दुनिया में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। आए दिन होने वाली यौन हिंसा की घटना की वजह से ना जाने कितनी लड़कियों की पढ़ाई बीच में रुकवा दी जाती है। लड़कों को “ना” बोल देने पर सरेआम उनके चेहरे पर तेज़ाब फेंक दिया जाता है। कार्यस्थल पर महिलाओं को हमेशा पुरुषों से कमतर समझा जाता है और समान वेतन कानून के बावजूद अधिकतर मामलों में उन्हें कम तनख्वाह दी जाती है। आज भी ज्यादातर महिलाएं असंगठित क्षेत्र में बिना किसी सुरक्षा के काम करने को मजबूर हैं। नौकरी करने के बावजूद घर की ज़िम्मेदारी महिलाओं के कंधे पर होती है और उनसे उम्मीद किया जाता है की ‘सुपर वुमन’ बनकर औरतें घर और बाहर दोनों अच्छे से संभाल लें।  

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स्त्री द्वेष से भरा यह समाज हर रोज अपनी कुंठा का प्रदर्शन करता है। अभी हाल में ही सुशांत सिंह राजपूत आत्महत्या केस में भारत के मीडिया और ख़ास कर मध्यम वर्ग समाज ने औरतों के प्रति अपनी नफ़रत दिखाते हुए रिया चक्रवर्ती का तमाशा बनाया। इसी प्रकार हाथरस बलात्कार की घटना इस बात का सबूत है की कैसे आज़ादी के इतने वर्षों बाद बाद भी जाति के नाम पर दलित घर की बेटियां तथाकथित उच्च जाति के मर्दों की हिंसा के कारण अपनी जान गवां देती हैं। आरोपियों को सजा दिलाने के बजाय सरकार और प्रशासन खुलेआम, बलात्कार की घटना को ख़ारिज करते हुए, उन्हें बचाने में लग जाती है। 

महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा का को थोड़ा विस्तार से समझने के लिए महिलाओं के खिलाफ़ होने वाले हिंसा के आंकड़ों पर एक नज़र डालते हैं। 

NCRB यानी राष्‍ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्‍यूर के अनुसार-

• साल 2018 के मुकाबले साल 2019 में महिलाओं के खिलाफ़ हिंसा में 7.3 फ़ीसद की बढ़ोतरी हुई है। 

• साल 2019 में महिलाओं के खिलाफ़ हिंसा के कुल 4,05,861 मामले दर्ज हुए हैं। 

• अधिकांश मामले हैं- 30.9 फ़ीसद घरेलू हिंसा, 21.8 फ़ीसद यौन हिंसा, मारपीट एवं उनकी मोडेस्टी पर हमला, 17.9 फ़ीसद अपहरण और जबरन घर से उठाया जाना और 7.9 फ़ीसद बलात्कार। 

• उत्तर प्रदेश में कुल 59,853 के साथ ही महिलाओं के खिलाफ़ हिंसा में सबसे ज्यादा मामला दर्ज किए गए हैं। 

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यह सिर्फ वही मामले हैं जो कि दर्ज किए गए हैं। भारत में अभी भी महिलाओं के साथ होने वाले अधिकतर मामले लोक-लाज और प्रशासन के दबाव में दर्ज नहीं किए जाते हैं। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह देश जिसे ख़ुद एक जननी का दर्जा मिला है वह कितना ज्यादा असुरक्षित है यहां की औरतों और बच्चियों के लिए। 

राजस्थान की सती रूप कंवर से लेकर महाराष्ट्र का मथुरा रेप, राजस्थान की भंवरी देवी, कश्मीर का कुनान पोशपोरा, मणिपुर की थंगजम मनोरमा, दिल्ली का 2012 गैंगरेप, एसिड अटैक सर्वाइवर लक्ष्मी, उत्तर प्रदेश की बदायूं बहनें, हाथरस में आधी रात में जला दी गई बलात्कार सर्वाइर और ऐसी ही अनगिनत आवाज़ें चीख़-चीख़ कर सबूत दे रहीं हैं कि यह मुल्क औरतों के लिए नहीं है, कोई मुल्क औरतों के लिए नहीं है। हिंसा के सर्वाइवर की पीड़ा को स्वीकार नहीं करने से बड़ा दुनिया में कोई पक्षपात और अन्याय नहीं है। यह अन्याय इस बात का एहसास दिलाता है कि “महिलाओं का कोई राष्ट्र नहीं है।

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तस्वीर : सुश्रीता भट्टाचार्जी

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