समाजकार्यस्थल आखिर क्यों महिलाओं का ‘वर्क लाइफ बैलन्स’ नहीं हो रहा?

आखिर क्यों महिलाओं का ‘वर्क लाइफ बैलन्स’ नहीं हो रहा?

कानूनन तौर पर मातृत्व अवकाश, वैतनिक समानता के नियम होने के बावजूद किसी भी क्षेत्र में कोई भी कंपनी महिलाओं को, विशेषकर शादीशुदा महिलाओं को एसेट नहीं, लैयाबिलिटी समझती है। समस्या हमारे समाज और परिवार की भी है जो महिलाओं को नौकरी की 'इज़ाजत' देता है, पर साथ ही ये उम्मीद करता है कि वह घर के काम और बच्चों की जिम्मेदारी में मदद नहीं मांगेंगी।

‘वीमेन इन इंडिया इंक एचआर मैनेजर्स सर्वे रिपोर्ट’ के अनुसार, देश में 34 प्रतिशत महिलाएं वर्क लाइफ बैलन्स के कारण नौकरी छोड़ देती हैं, जबकि पुरुषों में यह सिर्फ 4 प्रतिशत के लिए होता है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि महिलाओं के नौकरी छोड़ने के शीर्ष तीन कारण में वेतन संबंधी चिंताएं, करियर के अवसर और वर्क लाइफ बैलन्स हैं। वहीं, पुरुषों के लिए, इसके कारण वेतन संबंधी चिंताएं, करियर के अवसर और भविष्य में रोजगार की दिशा है।

आम तौर पर कामकाजी दुनिया में महिलाओं का आना और टिकना बेहद मुश्किल है। हमारे पितृसत्तात्मक समाज में एक कामकाजी महिला से यह भी उम्मीद की जाती है कि वह घर के काम, बच्चे या अपने पतियों पर पूरा समय देंगी। तीज-त्योहार हो या घर में किसी की शादी, बच्चे का जन्म हो या घरों में बड़े-बुजुर्ग की बीमारी, महिलाओं को अपने काम के जगह से इन सभी हालात के लिए वक्त निकालना होता है ताकि वह सफल रूप में घर और नौकरी दोनों संभाल सके।     

मातृत्व को इतना ज्यादा गौरवान्वित किया गया है कि महानता के चक्कर में समानता नहीं बचता। हमारे घरों में कामों का समान बंटवारा है ही नहीं। इसलिए, बराबरी भी नहीं हो सकती। एक ऐसी महिला जो शादी में है, उसके लिए घर और काम में संतुलन बनाए रखना बेहद मुश्किल है। शायद इसलिए किसी प्रभावशाली महिला से प्यार करना मुश्किल है।

क्या बच्चे संभालना सिर्फ माँ की जिम्मेदारी है

कामकाजी महिलाओं के लिए भले कई कंपनियों में आज मैटर्निटी लीव का प्रावधान हो, बच्चे को कम से कम 1 या डेढ़ साल तक विशेष आवश्यकता की जरूरत पड़ सकती है। महिलाओं से उम्मीद की जाती है कि अगर वे कामकाजी हैं, तो भी वे निष्ठा के साथ अपनी जिम्मेदारी निभाएंगी। इस विषय पर बिहार के पूर्णिया विश्वविद्यालय की सहायक प्रोफेसर राधा साह कहती हैं, “मातृत्व को इतना ज्यादा गौरवान्वित किया गया है कि महानता के चक्कर में समानता नहीं बचता। हमारे घरों में कामों का समान बंटवारा है ही नहीं। इसलिए, बराबरी भी नहीं हो सकती।”

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

राधा दो बच्चों की माँ हैं। वे अपनी नौकरी के साथ-साथ पीएचडी कर रही हैं और घर और नौकरी के बीच तालमेल बैठाने की पूरी कोशिश कर रही हैं। लेकिन क्या ये कोशिश महिलाओं के लिए आसान है? वह कहती हैं, “अक्सर किसी बहुत बड़ी कंपनी में किसी पद पर काम कर रही महिला जो बहुत सफल है, वह या तो सिंगल है, तलाकशुदा या फिर विधवा। एक ऐसी महिला जो शादी में है, उसके लिए घर और काम में संतुलन बनाए रखना बेहद मुश्किल है। शायद इसलिए किसी प्रभावशाली महिला से प्यार करना मुश्किल है।”

ससुराल या पति काम करने से रोकते नहीं है। पर कहा जाता है कि अगर मैं सब कुछ संभाल सकती हूं, तो कर सकती हूं। किसी एक चीज़ को  चुनने के लिए कहा जाता है। ऐसे में कई बार मैं कोई अफिशल ड्यूटी के लिए खुद ही मना कर देती हूं।

ससुराल में ‘बहु’ से लोगों की उम्मीदें

कई बार एक महिला को अपने मायका और ससुराल में एक जैसा वातावरण नहीं मिलता। जहां मायका में वे ज्यादा आसान महसूस करती हैं, ससुराल में उनसे उम्मीदें खत्म ही नहीं होतीं। राधा कहती हैं, “मायका में अपने बच्चों को लेकर आती भी हूं, तो भी मदद हो जाती है। लेकिन ससुराल में एक बहु से उम्मीदें कभी खत्म नहीं होती। जब पीएचडी के लिए मुझे भागलपुर जाना होता है, तो छोटे बच्चे को साथ लेकर चलना पड़ता है। उस वक्त मैं सुबह 7 बजे निकलती हूं। पर इससे पहले मैं बच्चों के लिए टिफ़िन तैयार करती हूं। घर आते-आते रात के 10 बज जाते हैं। पर घरेलू कामों और जिम्मेदारियों की उम्मीद खत्म नहीं होती।” अच्छे पद के बावजूद घरों में अक्सर पुरुष और महिला के काम को समान महत्व नहीं मिलता। महिलाओं की कई गतिविधियों को अमूमन नियंत्रित किया जाता है। वहीं उनसे एक अनकही उम्मीद भी की जाती है।

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

राधा कहती हैं, “कभी काम का कॉल आता है, तो भी मुझे घर के कामों के लिए बुलाया जाता है। लेकिन मेरे पति के साथ ऐसा नहीं होता। ससुराल या पति काम करने से रोकते नहीं है। पर कहा जाता है कि अगर मैं सब कुछ संभाल सकती हूं, तो कर सकती हूं। किसी एक चीज़ को  चुनने के लिए कहा जाता है। ऐसे में कई बार मैं कोई अफिशल ड्यूटी के लिए खुद ही मना कर देती हूं। मैं निम्न-मध्यम वर्ग से आती हूं और ये चौथी नौकरी है। इसके लिए मैंने बहुत मेहनत की है। इसलिए, अबतक परिवार और काम के बीच संतुलन बनाए रखने की कोशिश कर रही हूं। मुझे दोनों ही चाहिए। लेकिन शायद अगर किसी एक को चुनना होगा, तो मैं परिवार को चुनूँगी।”

जब पीएचडी के लिए मुझे भागलपुर जाना होता है, तो छोटे बच्चे को साथ लेकर चलना पड़ता है। उस वक्त मैं सुबह 7 बजे निकलती हूं। पर इससे पहले मैं बच्चों के लिए टिफ़िन तैयार करती हूं। घर आते-आते रात के 10 बज जाते हैं। पर घरेलू कामों और जिम्मेदारियों की उम्मीद खत्म नहीं होती।

क्या महिलाओं के काम को अहमियत दी जाती है

महिलाओं के काम को कई बार सिर्फ हॉबी के रूप में भी देखा जाता है। देश के कार्यबल में मूल रूप से पुरुष भागीदारी निभाते हैं। महिलाओं को न सिर्फ अपनी जगह बनाने में बल्कि अच्छे पदों तक जाने में ज्यादा मेहनत लगती है। पश्चिम बंगाल में कोलकाता की रहने वाली नसरीन अहमद 55 साल की उम्र में दोबारा कुछ करने की कोशिश कर रही हैं। बेटी की शादी के बाद, घर पर वे अकेला महसूस कर रही थीं और अब वे बच्चों को पढ़ाने का काम करती हैं। लेकिन नसरीन यह काम शादी से पहले भी करती थीं।

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए श्रेया टिंगल

शादी के बाद उन्होंने ये काम क्यों छोड़ा था, इसपर वह बताती हैं, “शादी के बाद भी मैं बच्चों को पढ़ाती थी पर सास कहती थीं कि घर, बच्चों और पति को समय दो। मैंने इसके बाद ट्यूइशन बंद कर दिया।” ऐसे हालात में जीवनसाथी कितना साथ दे सकता हैं? ये पूछे जाने पर वह कहती हैं, “ये तो घरवालों और पति को खुद समझना होगा। हम उन्हें समझा नहीं पाएंगे। भारतीय समाज में महिलाओं से ही उम्मीद की जाती है।” आज भी वह सुबह सारे काम खत्म कर बच्चों को पढ़ाने जाती हैं और घर आकर दोबारा काम निपटाती हैं।

बीते साल मैंने बंगाल के सबसे पुराने और प्रसिद्ध अखबार में से एक में आवेदन की और मेरा चयन इंटरव्यू के लिए किया गया। सारी प्रक्रिया के बाद, मेरे अवॉर्ड और इंटरनेशनल मीडिया में काम करने के अनुभव के बावजूद, उन्होंने 10 हजार रुपए ऑफर किए। मेरे परिवार का समर्थन होने के बाद भी मुझे मीडिया इंडस्ट्री में इस तरह बताया गया कि चूंकि अब मेरी शादी हो चुकी है, मुझे वक्त नहीं मिलेगा।

शादीशुदा महिलाओं को काम में वेतन संबंधी चिंताएं

एक हालिया रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि देश के लिए 8 प्रतिशत की जीडीपी वृद्धि दर हासिल करने के लिए अगले पांच साल महत्वपूर्ण हैं। इस विकास को सुनिश्चित करने के लिए, महिलाओं को 2030 तक बनने वाले नए कार्यबल में आधे से अधिक के लिए जिम्मेदार होना चाहिए। पिछले छह सालों में महिला श्रम बल भागीदारी दर (एफएलएफपीआर) में सुधार हुआ है और नए रुझान उभर रहे हैं। पिरिऑडिक लेबर फोर्स सर्वे 2022-23 के आँकड़े बताते हैं कि एफएलएफपीआर 37 प्रतिशत पर है, जो साल 2021-22 के सर्वेक्षण से 4.2 प्रतिशत ज्यादा है। स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया रिपोर्ट 2023 ने रोजगार के रुझान में लैंगिक असमानताओं में कमी की ओर इशारा किया। रिपोर्ट से पता चलता है कि निम्न स्तर की शिक्षा वाली वृद्ध महिलाएं कार्यबल से बाहर हो रही हैं और उच्च स्तर की शिक्षा प्राप्त युवा महिलाएं इसमें प्रवेश कर रही हैं।

मैं निम्न-मध्यम वर्ग से आती हूं और ये चौथी नौकरी है। इसके लिए मैंने बहुत मेहनत की है। इसलिए, अबतक परिवार और काम के बीच संतुलन बनाए रखने की कोशिश कर रही हूं। मुझे दोनों ही चाहिए। लेकिन शायद अगर किसी एक को चुनना होगा, तो मैं परिवार को चुनूँगी।

लेकिन इन सबके बावजूद महिलाओं को वैतनिक भेदभाव का सामना करना पड़ता है। ये करिअर में ब्रेक लेने के बाद और भी ज्यादा महसूस हो सकता है। इस विषय पर अपना अनुभव बताते हुए, पश्चिम बंगाल में रहने वाली पुरस्कार विजेता पत्रकार निवेदिता सेन कहती हैं, “कोविड के वक्त मैं बंगाल में काम करने की कोशिश कर रही थी। लेकिन नौकरी के ऑफर ज्यादा नहीं थे और मुझे उस दौर में अवैतनिक काम भी करना पड़ा। इसके बाद देश के दूसरे राज्यों और बाहर भी काम की। मैं वापस आई और जब साल 2023 में मैं दोबारा भारत में काम करना चाहती थी, तो वैसा मौका नहीं मिल रहा था जहां सही वेतन भी मिले।”

वह आगे बताती हैं, “बीते साल मैंने बंगाल के सबसे पुराने और प्रसिद्ध अखबार में से एक में आवेदन की और मेरा चयन इंटरव्यू के लिए किया गया। सारी प्रक्रिया के बाद, मेरे अवॉर्ड और इंटरनेशनल मीडिया में काम करने के अनुभव के बावजूद, उन्होंने 10 हजार रुपए ऑफर किए। मेरे परिवार का समर्थन होने के बाद भी मुझे मीडिया इंडस्ट्री में इस तरह बताया गया कि चूंकि अब मेरी शादी हो चुकी है, मुझे वक्त नहीं मिलेगा। ऐसे में जब लंबे समय काम करने की जरूरत होगी, तो कोई अविवाहित महिला उनकी पहली पसंद होगी।” निवेदिता हाल ही में माँ बनी हैं और फिलहाल विभिन्न वेबसाईट के लिए लिखती हैं।

आजकल हजारों महिलाएं कमा रही हैं। लेकिन शादी के बाद अक्सर महिलाओं के मुंह से यही सुना जाता है कि ससुराल वाले काम करने से रोकते नहीं हैं और शायद यहीं पर सारा सशक्तिकरण धरा का धरा रह जाता है। वहीं कानूनन तौर पर मातृत्व अवकाश, वैतनिक समानता के नियम होने के बावजूद किसी भी क्षेत्र में कोई भी कंपनी महिलाओं को, विशेषकर शादीशुदा महिलाओं को एसेट नहीं, लैयाबिलिटी समझती है। समस्या हमारे समाज और परिवार की भी है जो महिलाओं को नौकरी की ‘इज़ाजत’ देता है, पर साथ ही ये उम्मीद करता है कि वह घर के काम और बच्चों की जिम्मेदारी में मदद नहीं मांगेंगी।

नौकरीपेशा महिलाओं से नौकरी को नहीं परिवार, पति या बच्चों को अहमियत देने की बात कही जाती है जबकि पुरुषों के लिए ऐसे नियम नहीं हैं। अवैतनिक कामों का बोझ सिर्फ महिलाओं पर हो, तो उनका कार्यबल में या जिम्मेदारी के साथ नौकरी करना बेहद मुश्किल है। ऐसे में कंपनियाँ भी उन्हें महत्व नहीं देंगे। जरूरी है कि हम बदलाव की शुरुआत घरों से करें। जहां हम महिलाओं के आगे बढ़ने की बात कहते हैं, वहीं ये भी जरूरी है कि हम पुरुषों के साथ-साथ परिवार को भी सिखाएं कि नौकरीपेशा, या नौकरी की इच्छा रखने वाली हजारों काबिल महिलाओं का साथ देने के लिए खुद को आगे आना होगा।      

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