साल 2017 में बिहार विधानसभा की महिला सदस्यों ने अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर संसद, विधानसभा और विधान परिषद में महिला सदस्यों को 50 फीसद आरक्षण दिए जाने की मांग की थी। इस मांग को सामने रखने में सभी पार्टियों की महिला सदस्य शामिल थी। उस वक्त यह बात भी उठी थी कि सर्वदलीय बैठक बुलाकर 2019 लोकसभा चुनाव और बिहार विधानसभा चुनाव से पहले महिला आरक्षण लागू करने की कोशिश की जाए। साल 2019 भी बीत चुका है और लोकसभा चुनाव भी हो चुके हैं। बिहार विधानसभा चुनाव की शुरुआत भी हो चुकी है लेकिन महिला आरक्षण बिल का मुद्दा हमेशा की तरह हाशिए पर ही है। महिलाओं के लिए 33 फीसद आरक्षण की मांग सालों से हो रही है जो आज तक लागू नहीं हो पाया। ऐसे में 2017 में बिहार की महिला नेताओं ने 50 फीसद आरक्षण का जो मुद्दा उठाया उसे लागू करने की बात तो नामुमकिन ही नज़र आती है।
28 अक्टूबर से बिहार विधानसभा चुनाव के लिए मतदान शुरू हो जाएंगे और 10 नवंबर को चुनाव के नतीजे हमारे सामने होंगे। महिला आरक्षण बिल लागू करने का दावा करने वाली राजनीतिक पार्टियां लोकसभा या विधानसभा चुनावों में कितनी महिलाओं को टिकट देती हैं इससे ही साफ़ पता चलता है कि वे महिला आरक्षण बिल लागू करने के लिए कितनी तत्पर हैं। बात करते हैं बिहार विधानसभा चुनाव की कि इस चुनाव में किस पार्टी ने कितनी महिलाओं को टिकट दिया है। हिंदुस्तान टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक जनता दल युनाइटेड जो 115 सीटों पर चुनाव लड़ रही है उसने इस बार 22 महिलाओं को टिकट दिया है। वहीं, बीजेपी इस चुनाव में 110 सीटों पर लड़ रही है उसने बस 13 सीटों पर महिला उम्मीदवारों को उतारा है।
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वहीं, महागठबंधन जिसमें कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल, सीपीआई, सीपीएम और सीपीआईएमल शामिल हैं, उन्होंने 243 सीटों में से सिर्फ 24 सीटों पर महिला उम्मीदवारों को टिकट दिया है। एक तरफ जहां आरजेडी-16, कांग्रेस -7 तो लेफ्ट पार्टियों की तरफ सिर्फ एक महिला उम्मीदवार ही इस बार बिहार विधानसभा चुनाव के मैदान में है। बात अगर लोजपा की करें जो इस बार एनडीए से अलग चुनाव लड़ रही है, उसने 18 महिला उम्मीदवारों को टिकट दिया है। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के मुताबिक बिहार विधानसभा चुनाव के पहले चरण में कुल 1064 प्रत्याशी मैदान में हैं जिनमें से 950 पुरुष और सिर्फ 114 महिला उम्मीदवार हैं। इन 1064 उम्मीदवारों में से 328 उम्मीदवारों के ख़िलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं। साथ ही 244 उम्मीदवार ऐसे हैं जिनके ऊपर गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं।
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सभी पार्टियों ने जिन उम्मीदवारों को टिकट दिया है, उसमें पुरुषों और महिलाओं को मिलने वाले टिकट में बहुत बड़ा अंतर है। ऐसा तो नहीं है कि जिन महिलाओं को टिकट मिला है वे सब की सब जीतकर विधानसभा पहुंच जाएंगी। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि हर बार की तरह इस बार भी सदन में महिला विधायकों की संख्या बेहद कम रहेगी। बात अगर साल 2015 बिहार विधानसभा चुनाव की करें तो उस साल भी केवल 28 महिलाएं ही जीतकर विधानसभा पहुंची थी। जबकि साल 2010 में 34 महिलाएं विधानसभा पहुंची थी।
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के मुताबिक 2015 बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान भी महागठबंधन ने जहां महिलाओं को सिर्फ 10.3 फीसद टिकट बांटे थे। वहीं, एनडीए गठबंधन की तरफ़ से महज़ 9.5 फीसद टिकट ही महिला उम्मीदवारों को दिए गए थे। हालांकि, कम टिकट दिए जाने के बावजूद चुनाव में महिला प्रत्याशियों की जीत का दर बेहद चौंकाने वाला था। आरजेडी की तरफ से 10 महिला उम्मीदवारों को टिकट दिया गया था जिसमें से सभी ने जीत दर्ज की थी। वहीं जेडीयू ने भी 10 महिलाओं को टिकट दिया था जिसमें से 9 उम्मीदवारों ने जीत हासिल की थी। बात अगर बीजेपी की करें तो बीजेपी ने 14 महिलाओं को टिकट दिया था जिसमें से 4 की जीत हुई थी। वहीं, कांग्रेस ने 5 महिला उम्मीदवारों को टिकट दिया था जिसमें से 4 की जीत हुई थी।
सभी पार्टियों ने जिन उम्मीदवारों को टिकट दिया है, उसमें पुरुषों और महिलाओं को मिलने वाले टिकट में बहुत बड़ा अंतर है। ऐसा तो नहीं है कि जिन महिलाओं को टिकट मिला है वे सब की सब जीतकर विधानसभा पहुंच जाएंगी। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि हर बार की तरह इस बार भी सदन में महिला विधायकों की संख्या बेहद कम रहेगी।
जबकि साल 2018 में यूनाइडेट नेशन यूनिवर्सिटी और वर्ल्ड इंस्टिट्यूट फॉर डेवलपमेंट इकॉनमिक रिसर्च के एक अध्ययन के मुताबिक जिन इलाकों में महिलाएं विधायक थी उन इलाकों में पुरुष विधायकों के इलाकों के मुकाबले अधिक आर्थिक विकास देखा गया। यह अध्ययन कहता है कि ऐसा इसलिए है क्योंकि महिला विधायक कम आपराधिक और भ्रष्ट होती हैं। अध्ययन के मुताबिक उस दौरान सिर्फ 13 फीसद महिला विधायकों के ख़िलाफ़ ही आपराधिक मामले दर्ज पाए गए। साथ ही साथ महिला नेताओं में राजनीतिक अवसरवाद भी कम देखने को मिला। वे अधिक काबिल और सत्ता के लिए उतनी ललायित नहीं दिखती। यह अध्ययन 4,265 विधानसभा क्षेत्रों पर किया गया था
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बात चाहे विधानसभा चुनाव की करें या लोकसभा अक्सर टिकट भी उन महिलाओं को ही मिलता है जो या तो नेताओं के परिवार से होती हैं या किसी बाहुबली के परिवार से। और यह तो हम सब जानते हैं कि हमारे देश में टिकट बंटवारे की प्रक्रिया कितनी ‘पारदर्शी’ है। ऐसे में विधानसभा और लोकसभा में महिलाओं के प्रतिनिधित्व की बात कहीं पीछे छूट जाती है। पार्टियां अगर एकाध महिलाओं को टिकट दें भी दें तो ऐसा जताती हैं मानो लैंगिक बराबरी की दिशा में यह कितना बड़ा कदम है। जबकि यह टोकेनिज़म से अधिक और कुछ नहीं लगता। महिला आरक्षण बिल की बात सालों से हो रही है। हम उस देश के सदन में इस बिल को पारित करवाने की बात कर रहे हैं, जिसके सदस्य शरद यादव ने साल 1997 में सदन में कहा था, “परकटी महिलाएं हमारी महिलाओं के बारे में क्या समझेंगी और वे क्या सोचेंगी।” हम आज भी उस राजनीतिक दौर में जी रहे हैं जहां महिला नेताओं को परकटी, बार डांसर, मोटी, शूर्पणखा, परकटी आदि कहे जाने पर अपनी आपत्ति दर्ज करवा रहे हैं। आरक्षण की मांग पर हमेशा वह वर्ग जिसके पास सत्ता, ताकस और वर्चस्व है वह इसे खैरात कहकर खारिज कर देता है।
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तस्वीर साभार : The Hindu Business line