बिहार की राजनीति में मौजूद महिलाओं विधायकों की बात करें तो साल 2015 में हुए बिहार विधानसभा चुनाव में 243 सीटों में से सिर्फ 28 पर ही महिलाओं ने जीत हासिल की थी। इनमें 10 विधायक राष्ट्रीय जनता दल, 9 जनता दल यूनाइटेड, 4 कांग्रेस से, 4 भारतीय जनता पार्टी से और एक निर्दलीय विधायक शामिल थी। इस बार के बिहार विधानसभा चुनाव में एनडीए हो या महागठबंधन, दोनों ने जिन-जिन महिलाओं को टिकट दिया है, उसमें केवल पांच ही सीटें ऐसी हैं, जहां से दोनों ही गठबंधनों की ओर से महिला उम्मीदवार आमने-सामने हैं। कुछ ऐसी महिला उम्मीदवार भी हैं, जो पहली बार राजनीतिक अखाड़े में उतरी हैं। ऐसा ही एक चर्चित नाम है रितु जायसवाल। हालांकि वह राजनीति की दुनिया में एकदम नया नाम नहीं हैं।
रितु बिहार के सीतामढ़ी जिले के सिंहवाहिनी पंचायत की मुखिया रह चुकी हैं। उन्होंने साल 2016 में मुखिया का चुनाव निर्दलीय लड़ा था और अपने प्रतिद्वंद्वी को 1784 वोटों से हराया था। उनके कार्यकाल के दौरान उन्हें माननीय उपराष्ट्रपति द्वारा ‘चैंपियंस ऑफ चेंज 2018’ से सम्मानित किया गया था। साल 2019 में उन्हें भारत के पंचायती राज मंत्रालय द्वारा ‘दीनदयाल उपाध्याय पंचायत सशक्तिकरण पुरुस्कार’ के लिए चुना गया था। रितु के नाम और भी कई पुरस्कार और पंचायत स्तरीय योजनाओं की सफलताओं का श्रेय है।
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बिहार की राजनीति जातिवाद, बाहुबल और कई दूसरी आलोचनाओं की शिकार होती रही है। सामान्य तौर पर राजनीति को एक तरह का दलदल माना जाता रहा है जहां औरतों का प्रवेश या तो वंचित रहा है या उनका प्रतिनिधित्व नाममात्र रहा है। महिला वोटर किसे वोट देंगी अक्सर ये घर के मर्दों के राजनीतिक झुकाव पर निर्भर करता है। चुनावी सीट पर महिलाओं का प्रतिनिधित्व उनकी रुचि राजनीति मामलों में बढ़ाने, नीति बनाने की प्रक्रिया में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करने और उन्हें समाजिक रूप से सशक्त करने के लिए ज़रूरी है। जिस घर से वोट जा रहा है और जिस घर की महिला को वोट पड़ने वाले हैं, दोनों घरों में अपनी-अपनी तरह से पुरुषों का वर्चस्व होता है।
मर्दों के वर्चस्व वाले ऐसे राजनीतिक माहौल में रितु जायसवाल एक उम्मीद की तरह नज़र आती हैं।
समाज में जिस तरह से औरतों को दूसरे दर्ज़े का नागरिक माना जाता है वही राजनीति में भी होता रहा है। ऐसे कई पंचायत क्षेत्र हैं जहां मुखिया सीट पर नाम महिला का भले दिख जाए लेकिन दस्तख़त करने के अलावा सारे काम उनके पति या कोई और मर्द नियंत्रित करते हैं। कई ऐसे भी पंचायत हैं जहां की जनता ने अपनी मुखिया को केवल तस्वीरों में देखा है। परिणामस्वरूप या तो मुखिया बनी औरत को उसे दिए गए काम और अधिकारों के बारे में पता नहीं होता या वे उनमें रुचि नहीं लेती। राजनीति मर्दों का अखाड़ा माना गया है। ज़्यादा राजनीतिक विमर्श, वैचारिक हो या चुनावी महिलाओं के दृष्टिकोण से बहुत कम ही हैं।
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मर्दों के वर्चस्व वाले ऐसे राजनीतिक माहौल में रितु जायसवाल एक उम्मीद की तरह नज़र आती हैं। हाजीपुर, बिहार में जन्मी, वैशाली महाविद्यालय से अर्थशास्त्र से स्नातक रितु तमाम प्रतिष्ठित कमेटी और सस्थानों में अपने पंचायत में किए गए विकास के कारण जगह बनाती रही। इस बार के बिहार विधानसभा के चुनाव में वह परिहार क्षेत्र से आरजेडी के टिकट पर चुनाव लड़ रही हैं। रितु पहले जेडीयू की सदस्य बनी और फिर नौ महीनों अंदर ही उन्होंने पार्टी छोड़ दी। मीडिया से बात करते हुए उन्होंने बताया है कि मुखिया बनने का फैसला उनका निजी था चूंकि उन्हें पंचायत की स्थिति को बदलना था इसलिए मुखिया बनना एक ज़रूरत हो गई थी। इस बार चुनाव लड़ने के लिए उन्होंने जब जेडीयू को चुना तो उन्हें पार्टी के अंदर लोकतांत्रिक स्थिति की कमी महसूस हुई और वह आरजेडी में आ गई। उनसे एक सवाल यह भी था कि वह अपने आप को एक अफ़सर की पत्नी के तौर पर देखती हैं या मुखिया या शिक्षिका। हम देखते हैं कि इस तरह के सवाल कभी पुरुषों से नहीं पूछे जाते हैं। इस तरह के सवाल समाज की उस सोच की तरफ़ इशारा करते हैं जो औरत को सिर्फ किसी की पत्नी, मां, बहन या बेटी के रूप में ही देखती है। रितु के पति अरुण कुमार के मुताबिक, “रितु एजेंट ऑफ़ चेंज बनना चाहती हैं, मैं इसमें योगदान दे रहा हूं।”
रितु इन सारे पितृसत्तात्मक सामाजिक ढांचों से लड़ते हुए एक कुशल और ईमानदार व्यक्तित्व की तरह उभरती हैं। वह मीडिया से साफ़-साफ़ कहती हैं कि जब वह दिल्ली में थी तब उन्हें बिहार की दिक्कतों का अंदाज़ा नहीं था, ना ही यहां से नौकरी की खोज में बाहर जाते लोगों की दिक्कतों का, ना ही बिहार में बुनियादी विकास के इतने न्यूनतम स्तर पर होने का। चुनावी अफ़वाहों की मानें तो रितु जायसवाल को कई पार्टियों से टिकट की पेशकश की गई थी। लेकिन उनके बयान के अनुसार उन्हें विधायक बनने की से ज़्यादा रुचि परिहार क्षेत्र के लिए विधायक के रूप में काम करने में है। चुनावी मौसम में इतनी ईमानदारी के साथ निज़ी अनुभव से अपनी बात साफ़-साफ़ कहती रितु जायसवाल एक चुनावी उम्मीदवार से ज़्यादा राजनीति में सकारात्मक बदलाव की कोशिश की तरह नज़र आती हैं।
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