वो वक्त था साल 1919 का जब भारत का बंटवारा नहीं हुआ था। और तारीख थी 31 अगस्त, जब पंजाब के गुजरांवाला जो कि अब पाकिस्तान में है। वहां राज बीबी और करतार सिंह हितकारी के घर एक बेटी पैदा हुई। नाम रखा गया अमृत कौर जो आगे चलकर बनी अमृता प्रीतमा. छोटी उम्र में ही अमृता लेखन में रुचि लेने लगी थी। रूढ़ियों पर सवाल उठाने लगी थी। 11 साल की उम्र में मां की मौत ने अमृता को लगभग नास्तिक बना दिया। घर में दूसरे धर्म और जाति के लोगों के अलग बर्तन के ख़िलाफ आवाज़ उठाने को अमृता अपनी ज़िंदगी की पहली बगावत कहती हैं।
अमृता लिखती थी क्षेत्रीय भाषा में लेकिन अंग्रेज़ी, हिंदी, हर भाषा के पाठकों से उन्हें उतनी ही मोहब्बत मिली जिसकी वो हकदार थी। उन्होंने पंजाबी भाषा और लेखन को एक पहचान दिलाने में बेहद अहम भूमिका निभाई। उन्होंने अपनी ज़िंदगी के पन्नों के एक किताब की शक्ल भी दी- उनकी आत्मकथा रसीदी टिकट के रूप में। उन्होंने कविताओं, कहानियों, निबंध, संस्मरण जैसी विधाओं में करीब 100 से अधिक पुस्तकें लिखी जिनमें से कई का अनुवाद अंग्रेज़ी समेत कई भाषाओं में हुआ। अमृता वह पहली भारतीय लेखिका थी जिन्हें राष्ट्रीय साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाज़ा गया था। उन्हें पद्म श्री, पद्म विभूषण, भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार, बल्गारिया वैरोव पुरस्कार जैसे कई पुरस्कार मिले जिनकी फेहरिस्त काफी लंबी है।
जितनी चर्चा अमृता की कविताओं और लेखन की हुई, उतनी ही उनके निजी जीवन की भी। साहिर लुधयानवी के लिए अपनी मोहब्बत का अमृता ने खुलकर अपने लेखन में इज़हार किया। एक ऐसी शादी जिसमें मोहब्बत न थी उससे वह अलग हो गई और अमृता ने अपनी बाकी की ज़िंदगी इमरोज़ के साथ ही गुज़ारी। इसलिए उनका निजी जीवन भी उस ज़माने में एक बगावत की तरह देखा जाता है।