बोलीविया की नई सरकार ने दुनिया में पहली बार ऐसा मंत्रालय बनाया है, जो संस्कृति, गैर-उपनिवेशवाद और पितृसत्ता के ख़िलाफ अपने विचार को लेकर आगे बढ़ेगा, इसके पीछे उनका उद्देश्य राष्ट्र के बहुलवादी परिप्रेक्ष्य और उपनिवेशवाद और स्त्रीद्वेष के ख़िलाफ़ राष्ट्र की प्राथमिकताओं को सामने रखना है। इस मंत्रालय के सर्वोच्च पद पर आसीन हैं, स्थानीय नेता, नारीवादी, और ‘नेशनल कॉन्फ़ेडरेशन ऑफ कॉम्पेसिनो, इंडिजेनस एंड ऑर्डिनरी वीमेन ऑफ बोलीविया’ की एक्टिविस्ट सबीना ओरेल्लाना। ओरेल्लाना बोलीविया में महिलाओं और मूल निवासियों के लिए समान अधिकारों की लड़ाई में शामिल लोगों में पहली पंक्ति में थी। उन्होंने लगातार इस संदर्भ में सवाल उठाए और महिलाओं और स्थानीय लोगों के अधिकारों की बात की। बोलीविया के इस मंत्रालय की शुरुआत 7 फरवरी, साल 2009 में हुई थी। तब यह संस्कृति और पर्यटन मंत्रालय के रूप में काम कर रहा था।
साल 2020 में कोविड-19 वैश्विक महामारी के समय यह भंग कर दिया गया। हालांकि 20 नवंबर, 2020 को बोलिविया की ‘मोविमिएतो अल सोशलिसमो’ यानी मूवमेंट फ़ॉर सोशलिज़म पार्टी की सरकार के प्रमुख लुइस आर्से ने इस मंत्रालय को फिर से बहाल करते हुए इसका नया नाम और उद्देश्य गढ़कर ‘संस्कृति, गैर-उपनिवेशवाद और ग़ैर-पितृसत्तावादी मंत्रालय’ (मिनिस्ट्री ऑफ कल्चर्स, डिकॉलोनाइजेशन एंड डी-पेट्रिआर्कलाइज़ेशन ) कर दिया। साल 2009 में बने इस संस्कृति मंत्रालय का विलय करने का कारण था, देश में मूलनिवासियों के विरोध में उठने वाली फासीवादी ताकतों को अमेरिका का सैन्य समर्थन मिलना, जिसके कारण बोलीविया के पहले मूल निवासी राष्ट्रपति इवो मोराल्स को बेदखल कर दिया गया था। इस दौरान देश में दक्षिणपंथ का व्यापक उभार हो रहा था जिसने सैन्य हस्तक्षेप करते हुए मूलनिवासियों के ख़िलाफ़ हिंसा की घटनाओं को बढ़ावा दिया। पूरे लातिनी अमरीका में सबसे अधिक मूल निवासी बोलीविया में रहते हैं।
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बता दें कि बोलिविया में अभी हाल ही में 18 अक्टूबर 2020 को आम चुनाव हुए हैं, जिसमें मूवमेंट ऑफ सोशलिज्म जो कि वामपंथी धड़े की सरकार है, उसने 55 प्रतिशत वोट के साथ जीत दर्ज की है । इस दौरान पार्टी और नेताओं ने देश के हालात को समझते हुए कुछ संरचनात्मक सुधार करने के उद्देश्य से इस मंत्रालय के रूप में एक बड़ा बदलाव किया है। इस संबंध में राष्ट्रपति ‘आर्से’ कहते हैं, “हमारा लक्ष्य-उपनिवेशवाद और पुरुष प्रभुत्व को ख़त्म करना, स्त्री और पुरुष के बीच मौजूद असमानता को खारिज़ करना और साथ ही साथ विभिन्न राष्ट्रीयताओं एवं पहचानों के बीच मौजूद विभेद को समाप्त करना है। हमारा उद्देश्य एक विचार वाले समाज के दृष्टिकोण के आधिपत्य को तोड़ना है, जो दूसरे को अपने से कमतर आंकने की प्रवृत्ति से संचालित है।”
बोलिविया में हुए इन सभी परिवर्तनों के पीछे उनकी संविधान सभा की दूरदृष्टि और समावेशी प्रवृत्ति थी। वहां की जनता जागरूक है जो किसी भी शोषणकारी नियम के ख़िलाफ़ एकजुट होकर उसे सिरे से खारिज़ कर देते हैं।
बोलीविया की सरकार का यह कदम दुनियाभर को एक नई दिशा दिखाने वाला है। समकालीन वैश्विक राजनीति दक्षिणपंथ का उभार देख रही है। अमेरिका से लेकर ब्राज़ील और भारत में भी सरकारों ने अपने देश के अल्पसंख्यकों, मूलनिवासियों और महिलाओं के विरोध में नियम कानून बनाए हैं। उनकी मांगों को निरस्त किया है और फासीवादी-निरंकुश ताकतों के रूप में व्यवहार किया है। पूंजीवाद के बढ़ते पांव ब्राज़ील से लेकर भारत में आदिवासियों के जल-जंगल-ज़मीन छीन रहे हैं। तमाम लोग जो इस संघर्ष में शामिल हैं, आवाज़ उठा रहे हैं, उन्हें दबाया जा रहा है, जेलों में डाल दिया जा रहा है। ऐसे में, बोलीविया की सरकार द्वारा स्थानीय लोगों, महिलाओं के मुद्दों को लेकर, पितृसत्ता की समस्या को राष्ट्रीय स्तर पर संबोधित करते हुए उससे निपटने का एजेंडा तय करना एक सराहनीय कदम है। यह पूरी दुनिया के महिला आंदोलनों और आदिवासियों की लड़ाई में एक बड़ी जीत है।
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महिला किसान आंदोलनों का नेतृत्व करने वाली सबीना ओरेल्लाना को मंत्री बनाना भी उल्लेखनीय है। सबीना नेशनल कांफिडेरेशन ऑफ कॉम्पेसिनो, इंडिजेनस एंड नेटिव वीमेन ऑफ बोलिविया संगठन से जुड़ी हुई हैं। यह संगठन बोलीविया की किसान महिलाओं का सबसे बड़ा प्राथमिक संघ है। 19वीं सदी के किसान आंदोलनों और प्रतिरोधों में इसके शुरुआती सदस्यों की अहम भूमिका थी। इसका मूल उद्देश्य राष्ट्रीय क्रियाकलापों में महिलाओं की व्यापक भागीदारी सुनिश्चित करना है। मंत्रालय की घोषणा और मंत्री बनने के बाद सबीना ओरेल्लाना ने कहा कि यह मंत्रालय ग़ैर-उपनिवेशवाद व पितृसत्ता के ख़िलाफ़ एक ऐसे समाज के निर्माण के लिए काम करेगा, जिससे आने वाली पीढ़ियां इसकी जड़ों और इसकी महान सांस्कृतिक संपदा पर गर्व करें।’
दक्षिणी अमेरिकी देश बोलीविया स्पेनिश उपनिवेशवाद के चंगुल में रहा था। भीषण संघर्ष के बाद मिली स्वायत्तता का महत्व बोलीवियाई नागरिक समझते हैं। औपनिवेशिक दौर में मूल निवासियों को शोषित कर विस्थापित कर दिया गया था। आज़ादी के बाद वे अपनी अस्मिता और अस्तित्व को लेकर लगातार संघर्ष करते हुए अपना अधिकार चाहते हैं। आज उनकी आबादी मात्र 30 प्रतिशत रह गई है। ऐसे में पूंजीवाद और दक्षिणपंथ के उदय और प्रसारवादी नीतियों के चलते छोटे देशों की संप्रभुता और स्थानीयता पर खतरा उत्पन्न हो गया है। वहीं, पितृसत्ता एक सांस्कृतिक समस्या के रूप में पीढ़ी दर पीढ़ी चलती चली जा रही है। स्त्री-द्वेष व ‘ लैंगिक आधार पर भूमिकाओं के बंटवारे’ के चलते दुनिया भर में महिलाओं का शोषण होता है। उन्हें बौद्धिक रूप से कमतर आंका जाता है और उनके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता है।
इन समस्याओं के हल का सवाल बोलीवियाई जनमानस की वैचारिकी में तमाम स्थानीय और नारीवादी अधिकार आंदोलनों के माध्यम से मौजूद रहे हैं। साल 2009 में बने नए संविधान में जनवादी आंदोलनों की छाप देखने को मिलती है। बोलिविया की स्थानीय महिलाओं के लैंगिक-अधिकार केंद्रित दावों का प्रतिनिधित्व सामाजिक स्तर पर संगठित होने और संवैधानिक बदलावों के लिए सुझाव प्रस्तावों में ढूंढा जा सकता है। वहां औरतें अपने अधिकारों के लिए उठ खड़ी हो रही हैं, उन्होंने शोषणकारी प्रक्रिया को अस्वीकार कर दिया है, राष्ट्रीय स्तर पर हुआ यह बदलाव उनके संघर्ष व आत्मशक्ति का परिणाम है। वहां कि महिला किसान भी जागरूक हैं।
बोलिविया में हुए इन सभी परिवर्तनों के पीछे उनकी संविधान सभा की दूरदृष्टि और समावेशी प्रवृत्ति थी। वहां की जनता जागरूक है जो किसी भी शोषणकारी नियम के ख़िलाफ़ एकजुट होकर उसे सिरे से खारिज़ कर देते हैं। आज दुनिया में अगर निरंकुश सरकारें हैं तो अलग-अलग भाग में जनसमूह उनके भेदभाव और शोषण के खिलाफ एकजुट होकर प्रदर्शन भी कर रहे हैं। पोलैंड में गर्भपात को लेकर बनाए गए पितृसत्तात्मक कानून के ख़िलाफ़ महिलाएं सड़कों पर उतर चुकी हैं। कुछ समय पहले लोकतंत्र और जनाधिकार के लिए सूडान की जनता ने व्यापक प्रदर्शन कर विश्व का ध्यान खींचा। भारतीय सरकार के भेदभावपूर्ण सीएए कानून के ख़िलाफ़ विश्वविद्यालयों के छात्र सड़कों पर उतर गए और शाहीन बाग़ में महिलाओं ने आंदोलन किया। इस तरह आज के समय को अगर देखें तो मालूम चलता है कि बांग्लादेश से लेकर मैक्सिको तक दुनिया भर की महिलाएं लिंग आधारित हिंसा, भेदभाव और शोषणकारी व्यवस्था के खिलाफ उठ खड़ी हो रही हैं। दरअसल, समाज में कोई बड़ा बदलाव संघर्ष के बाद ही आता है। लोकतंत्र में कोई भी क्रियाकलाप अगर जनता की भावनाओं के ख़िलाफ़ है, भेदभावपूर्ण है, तब उसका व्यापक विरोध ज़रूरी हो जाता है। बोलीविया की जनता ने, महिलाओं ने और मूलनिवासियों ने शोषणकारी व्यवस्था को अस्वीकार कर दिया, इसी का प्रमाण है कि वहां एक नए एजेंडे के तहत उनकी सरकार समाज में मौजूद समस्याओं से जूझने को तैयार है।
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तस्वीर साभार : lostiempos