इंटरसेक्शनलजेंडर बोलती,बढ़ती और समाज को खटकती तेज लड़कियां | नारीवादी चश्मा

बोलती,बढ़ती और समाज को खटकती तेज लड़कियां | नारीवादी चश्मा

जब कोई लड़की आत्मनिर्भर होती है और किसी भी तरीक़े की संकीर्ण मानसिकता, हिंसा या असमानता पर आवाज़ उठाती है तो उसे ‘तेज’ का टैग दिया जाता है।

मीरा पढ़ी-लिखी बेहद होशियार लड़की है। अच्छी कम्पनी में काम करती है। नेकदिल इंसान है। खाना बनाने से लेकर ख़ुद की ज़रूरतों को पूरा करने तक स्वावलंबी है। इसके साथ ही, वो महिला अधिकारों की पैरोकार है और लैंगिक समानता और संवेदनशीलता पर विश्वास करती है। मीरा से मिलने वाला हर इंसान एक़बार में उसे पसंद करता है। उसकी तारीफ़ करता है। अक्सर लोग उसके बारे में कहते हैं कि ‘मीरा बहुत होशियार है, जिसकी भी जीवनसाथी बनेगी उसकी ज़िंदगी संवर जाएगी।‘ लेकिन पिछले दो रिश्तों में मीरा को सिर्फ़ यही कहकर शादी के लिए माना किया गया कि उसके पास सब है। लेकिन इतनी तेज लड़की हमलोगों के घर टिक नहीं पाएगी। इसके बाद मीरा ने शादी करने से ही इनकार कर दिया। अब वही लोग मीरा के लिए जली-कटी बातें करते हैं। मीरा ही तरफ़ ही मोहित की प्रेमिका नेहा भी थी। कॉलेज टाइम से मोहित नेहा के प्रगतिशील विचारों और व्यवहार से प्रभावित था। लेकिन जब बात शादी पर पहुँची तो मोहित ने कहा ‘घरवाले नहीं मानेंगें। तुम अच्छी प्रेमिका बन सकती हो पर पत्नी या बहु नहीं, क्योंकि हमारे घर में साधारण लड़की चाहिए, तेज लड़की नहीं।‘

बदलते दौर में हम और आप भी कई मीरा और नेहा जैसी लड़कियों के बारे में जानते होंगें, जिन्हें ‘तेज लड़की’ कहा जाता है। समाज ‘तेज लड़कियों’ को कभी समय की ज़रूरत की मानता है और अगले ही पल उसकी बुराई भी करता है। तो आइए आज जानने की कोशिश करते है ‘कौन होती है तेज लड़कियाँ।‘

हमारे समाज में जब कोई लड़की अपने ज़िंदगी के फ़ैसले लेती है। आत्मनिर्भर होती है और किसी भी तरीक़े की संकीर्ण मानसिकता, हिंसा या असमानता पर आवाज़ उठाती है तो उसे ‘तेज’ का टैग दिया जाता है। समाज की तेज लड़की की स्थिति ‘सकारात्मक बदलाव’ की तरह होती है। वो बदलाव जिसकी वाहवाही हर इंसान करता है लेकिन उसकी शुरुआत पड़ोसी के घर से चाहता है। वो एकपल समाज के लिए ज़रूरी भी लगती है लेकिन अगले ही पल सारी दिक़्क़तों की वजह भी।

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घर में क्यों नहीं चाहिए ‘तेज लड़की’?

घर। माफ़ करिएगा हमारा पितृसत्तात्मक घर। वो घर जिसे बोलती, सोचती, समझती, सवाल करती और समझौतों को न करती औरतें पसंद नहीं होती। वो घर जहां औरतों की पहचान उसकी भूमिकाओं से होती है। हम जब ऐसे ही आदर्श पितृसत्तात्मक घर की कल्पना करते है तो इसमें महिलाओं की भूमिका बेहद अहम हो जाती है। क्योंकि वही तो ईंट की इमारत को ‘घर’ बनाती है। ऐसे में हमारा समाज जिन लड़कियों को ‘तेज लड़की’ कहता है, वो ‘घर’ तो बनाती है पर आदर्श पितृसत्तात्मक नहीं बल्कि लैंगिक संवेदनशीलता और समानता की नींव पर। इसलिए तो ‘तेज लड़कियाँ’ आदर्श पितृसत्तात्मक घरों में ‘ना’ कर दी जाती है। क्योंकि ऐसे घर का निर्माण क्या इन विचारों की सरोकर में कल्पना भी अपने समाज में अभी बेहद दूर है।

समाज की तेज लड़की की स्थिति ‘सकारात्मक बदलाव’ की तरह होती है। वो बदलाव जिसकी वाहवाही हर इंसान करता है लेकिन उसकी शुरुआत पड़ोसी के घर से चाहता है।

बोलती-बढ़ती और समाज को खटकती ‘तेज लड़कियाँ’

मैंने कहीं पढ़ा था कि ‘अच्छी लड़कियाँ स्वर्ग जाती है। लेकिन तेज लड़कियाँ दुनिया घूमती है।‘ ‘अच्छी औरत’ के नामपर पितृसत्ता ने अपना ऐसा खेल समाज के हर आँगन में फैलाया है। यही वजह है कि आत्मनिर्भर, पढ़ी-लिखी और जागरूक महिलाएँ समाज को तो अच्छी लगती है। लेकिन जब उनके साथ चलने की बात होती है तो हमारा यही समाज बगले झांकने लगता है। अपनी संस्कृति और सभ्यता का रोना गाने लगता है और अगले ही पल उसे तेज लड़कियाँ खटकने लगती है।

लेकिन ‘तेज लड़कियों’ के नामपर अपने पितृसत्तात्मक समाज की राजनीति यहीं तक सीमित नहीं है। ये समय के हिसाब से अपने वार को बदलता है। जब कोई महिला ख़ुद को अच्छी महिला साबित करने के लिए पितृसत्तात्मक आदर्श घर में रचने-बसने का सोचती है तो समाज इन्हीं तेज लड़कियों की सफलताओं का हवाला देकर अपने घर की औरतों को ताना देता है। वही अगले ही पल, किसी भी तरह की हिंसा की घटना होने पर तेज लड़कियों को ही इसका ज़िम्मेदार बताता है।

आधुनिकता के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने की कोशिश में लगे अपने समाज की ये विडंबना है, जिसका वार और भार दोनों ही महिलाओं के कंधों पर है। इसलिए ज़रूरी है कि अच्छी लड़की, बुरी लड़की, तेज लड़की जैसे तमाम टैग के पीछे समाज की राजनीति को समझा जाए और इसे जड़ से उखाड़ने का काम शुरू किया जाए, वरना महिलाएँ अच्छी और बुरी औरत के फेर में अपनी ज़िंदगी संघर्षों में बिताती रहेंगीं।  

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तस्वीर साभार : giveindia

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