उसके गुजरने के छह महीने बाद, उसके जन्मदिन के इस सप्ताह में (वो 29 की होती), मैंने बहुत कोशिश की मैं रिज़वाना के भेजे हुए इमेल्स को अपने इनबॉक्स में सर्च न करूं। लेकिन मेरी ये कोशिश नाकाम रही। पिछले छह महीनों में ऐसे शायद ही कोई दिन गया हो जब वो मेरे ख्यालों में नहीं थी। इस साल के अजीब सी ताकत, और निराशा की लहर का एक दूसरा पहलू जैसे।
उसकी मौत यह याद दिलाती रहती है कि हमारा काम कितना ज़रूरी है। ज़मीनी आवाज़ों को मंच देना, महिलाओं को सशक्त करना, ताकि इस तरह की नाइंसाफी पर वो आवाज़ उठा सके। वो जो भी हो और जहां भी हो। इस हादसे ने ये भी याद दिलाया की हम सब एकजुट होकर जितना भी काम, मेहनत कर ले, कहीं ना कहीं, हमारी कोशिश नाज़ुक रहती है। इस हफ्ते, मैं भुला नहीं पा रही, रिज़वाना का ख़ुद अपने जन्मदिन को लेकर उत्साह, मानव अधिकार दिवस पर फिर वही घिसापिटा कंटेंट हर जगह और UN द्वारा स्थापित महिलाओं के हिंसा के विरोध में 16 दिनों की सक्रियता।
एक सहेली और सहकर्मी की मौत, एक एकल मुस्लिम महिला, उत्तर प्रदेश के एक ज़िले से, ये सारे पहलू इस पूरे मानव अधिकार के ढांचे को हिलाकर रख देता है। आखिर हम सब जो काम करते हैं, उसका प्रभाव क्या है? मानव अधिकार के मापदंड आखिर क्या हैं? राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय के प्रगति के मापदंड से दूर, पितृसत्तात्मक राज्य और उसके ‘मिशन शक्ति’ प्रचार से दूर? आखिर यह शक्ति किसके हाथों में है और इसके मायने क्या हैं?
मैं सोच रही हूं किस तरह रिज़वाना यूपी के लव जिहाद कानून पर कंटेंट प्लान कर रही होती, किस तरह की रिपोर्टिंग होनी चाहिए, इसपर विचार-विमर्श, विवाद कर रही होती। मैं सोच रही हूं की उसकी अपनी ज़िन्दगी, उसका अपना सफर, ही एक तरह से मानव अधिकार अपनाने का एक रूप है। मेरे इनबॉक्स में मुझे इतने सारे स्ट्रोरी ड्राफ़्ट, इमेल्स मिले। और बहुत सारा विवाद – संपादकीय से लेकर निजी। बहुत सारी शायरी। और हमारी मासिक मीटिंग का दस्तावेज़ीकरण, जिसमें उसका अपना मूल्यांकन पर चार चाँद लगे हुए हैं |
रिज़वाना रिपोर्टर से डीटीपी ऑपरेटर बनी, फ़िर असिस्टेंट एडिटर, फिर सोशल मीडिया प्रोड्यूसर और वीडियो प्रोड्यूसर। इन सभी भूमिकाओं में, वो हमेशा चुस्त और महत्वाकांक्षी थी, पहल लेने में आगे। मुझे याद आया एक दिसंबर, जब एक मीटिंग में उसके काम पर सवाल उठाये गए और उसके जवाब में उसने हम सबको एक ईमेल भेजी जिसमें इंद्रधनुष के सारे रंग थे! उस ईमेल में प्लान था एक नए बॉलीवुड शो का, ऑडियंस की रूचि को ध्यान में रखते हुए।
इसमें बॉलीवुड की खबरें होती। कंटेंट ब्रेक-आप के साथ उसने भेजे थे शो क्रेडिट्स, कुछ इस तरह प्रोड्यूसर, स्क्रिप्ट और शो प्रजेंटेटर – – रिज़वाना तबस्सुम, और एडिटर – ?
क्या वो खुद इस तरह का कंटेंट प्रोड्यूस करना चाहती है, वो बात उसके मन भी में पक्की नहीं थी, लेकिन एक तरह से उसका ये कहना था कि अगर यह करना है, तो उसे पूरी तरह से रिज़वाना करेगी, उसे अपनाएगी।
और पढ़ें : नवरूणा केस : अब अपनी बेटी के अवशेष का इंतज़ार कर रहे हैं माता-पिता
कुछ ऐसी ही थी रिज़वाना
कहते हैं नारीवाद एक अस्पष्ट चीज़ है, जिसे सिर्फ सब के अलग सच्चाई, कड़वे, मीठे, दर्दनाक – से सीखा जाता है। इसे अक्सर शहरी बोलकर नकार भी दिया जाता है। लेकिन मुझे इतना पता है कि रिज़वाना उनमे से हैं जिसने मुझे नारीवाद के बारे में सिखाया।
बहुत मुंहफट थी रिज़वाना और सत्ता के दांव-पेंच की अच्छी समझ थी उसे। किस तरह विरोध और नियमों का सम्मान का संतुलन बनाना होता है। थोड़ा मज़ाकिया बनकर, थोड़ा बचपना दर्शाकर, जिसके पीछे उसकी बुद्धि कभी नहीं छुपी, अपनी बात मनवा लेना उसे आता था। आईपीएल टिकट, जॉन अब्राहम का लिखा हुआ नोट, एक परियों वाली सफ़ेद ड्रेस अब्बू के बनारसी लूम से, ये सब जुगाड़ किया रिज़वाना ने!
एक सहेली और सहकर्मी की मौत, एक एकल मुस्लिम महिला, उत्तर प्रदेश के एक ज़िले से, ये सारे पहलू इस पूरे मानव अधिकार के ढांचे को हिलाकर रख देता है।
रिज़वाना के अब्बू के साथ रिश्ते ने उसके इस खासियत – नियमों का सम्मान और सामाजिक बंधनों को तोडना, एक साथ साथ कैसे हो सकते हैं – को मेरे लिए बहुत स्पष्ट की। रिज़वाना के अब्बू उसके पढाई और काम को बहुत अहम मानते थे। जब भी रिज़वाना ऐसे कुछ करना चाहती थी जो अब्बू को तकलीफ पहुंचा सकती थी, वह उनसे लड़ती नहीं थी। वह किसी और से उनको मनाने और आश्वासन दिलाने में मदद लेती। ऐसे उसने अपनी MA की पढाई भी कि, ट्रेनिंग लेने के लिए सफर भी किया और दिल्ली भी शिफ्ट हुई काम के लिए। अब्बू की शर्त बस यह थी, कि रिज़वाना का ध्यान हम रखें। और रिज़वाना अपने ज़िन्दगी और काम की रपट देने के लिए और उनके स्वास्थ और घर के उतार चढ़ाव पर निगरानी रखने के लिए हमेशा उनसे संपर्क रखती थी। इस रिश्ते के प्यार और साहस देखकर मुझे बहुत प्रभाव हुआ।
सत्ता की इस समझ के साथ में काम कैसे करना और निकालना है, यही सब खूबियां थी जिसने रिज़वाना को एक बेहतरीन पत्रकार बनाया, भले ही मुझे ये समझने में कई साल लग गयें। रिज़वाना बहुत ही होशियार पत्रकार थी। कौनसी स्टोरीज़ का प्रभाव होता हैं, किस तरह से स्टोरीज़ पढ़ी या देखी जाती हैं, इनका अंदाजा उसे था।
शुरुआत में गांव की, विकास पर रिपोर्टिंग करने के लिए रिज़वाना हिचकिचाती थी। और वहीं रिज़वाना, अपनी ज़िन्दगी के आख़िरी सालों में, एक ऐसी पत्रकार बन गई थी जिसके फील्ड वर्क की प्रशंसा होती थी। कितने ही बेहतरीन मीडिया आउटलेट ने उसकी इस आवाज़ को पहचाना, यह जाना कि वह हमारे समय की एक महत्वपूर्ण, प्रभावशाली आवाज़ है। जिस राज्य को रिज़वाना घर मानती थी, शायद उसमें हाशिये पर रहने वाले समुदायों के लिए, लड़कियों और महिलाओं के लिए, ज़्यादा कुछ बदला नहीं है। रिज़वाना जैसी महिला यह दर्शाती है कि मानव अधिकार का असली महत्व, और महिलाओं के अधिकार का खोज उनके जिंदगी का अहम, रोज़मर्रा का हिस्सा है।
ज़िन्दगी और मौत दोनों में।
हैप्पी बर्थड़े, रिज़।
— दिशा मलिक, सह-संस्थापक खबर लहरिया
और पढ़ें : बोलती,बढ़ती और समाज को खटकती तेज लड़कियां| नारीवादी चश्मा
(यह पत्र दिशा मलिक ने लिखा है, जो इससे पहले खबर लहरिया में प्रकाशित किया जा चुका है।)