नारीवाद गांव की वे औरतें जो चूड़ियां पहनती हैं और महिला अधिकारों के लिए लड़ना भी जानती हैं

गांव की वे औरतें जो चूड़ियां पहनती हैं और महिला अधिकारों के लिए लड़ना भी जानती हैं

मेरा मानना है कि ये सभी महिलाएं नारीवादी हैं क्योंकि लैंगिक समानता और महिला अधिकारों के लिए ये अपने घर की महिलाओं के साथ देती हैं।

गोविंदपुर की जगवंती देवी ने अपनी बहु की पढ़ाई ज़ारी रखने के लिए घर में ख़ूब लड़ाई की। बेटी को अपना पेट काटकर पढ़ाया और उसकी मर्ज़ी से शादी से करवाई। जगवंती देवी अपने गांव में महिलाओं के हक़ में बात करने वाली महिलाओं में जानी जाती हैं। जब भी किसी का पति अपनी पत्नी या किसी भी महिला के साथ मारपीट करता है, घरेलू हिंसा करता है तो पहली आवाज़ जगवंती ही उठाती हैं। कई बार गांव के लोग उन्हें ताने भी मारते हैं कि जगवंती नेतागिरी करती हैं। लेकिन गांव की महिलाएं जगवंती का ख़ूब सम्मान करती है। वहीं मेरे पड़ोस की विमला चाची ने भी अपनी बेटियों और बहुओं को समान अवसर दिलाने के लिए ख़ूब मेहनत की। फिर बात पढ़ाई की हो, कहीं आने-जाने की हो या फिर नौकरी करने की हो। लेकिन जब शहर की एक संस्था के संस्थापक इन महिलाओं से मिलने आए तो उन्होंने महिलाओं से अपनी बात की शुरुआत ही उनके घूंघट और चूड़ियों से शुरू की। उन्होंने कहा, “पहले आपको पितृसत्ता के इस घूंघट और चूड़ियों के जंजाल से बाहर निकलना होगा। बिना ये सब किए आप लोग कभी भी महिला अधिकार की बात नहीं कर पाएंगी।‘ उनकी इस बात से ग्रामीण महिलाओं में ग़ुस्सा भर गया और उन्होंने संस्था की तरफ़ से किसी भी तरह की सेवा लेने से इनकार कर दिया। पितृसत्ता जैसे शब्द उनकी समझ से परे थे लेकिन घूंघट और चूड़ियों पर सवाल से उन्हें आपत्ति थी।

गोविंदपुर की जगवंती और विमला चाची जैसी ढेरों ऐसी महिलाएं हैं जो ज़्यादा पढ़ी-लिखी तो नहीं हैं और न ही उन्हें महिला अधिकार या नारीवाद जैसे शब्द पता हैं। लेकिन इसके बावजूद वे लैंगिक समानता और महिला अधिकारों के लिए बेहद सक्रिय रहती हैं। आमतौर पर हमलोग पढ़ी-लिखी, नौकरीपेशा या फिर महिला अधिकार की बात करने वाली महिलाओं को ही नारीवादी मानते है। पर वास्तव में जब मैं गांव की ऐसी तमाम महिलाओं से मिलती हूं, जो महिला अधिकारों की बात से ज़्यादा उसके लिए आवाज़ उठाती हैं तो वे भी मुझे नारीवादी महिलाएं ही लगती हैं। लेकिन बहुत से लोग इन महिलाओं को नारीवादी नहीं मानते, क्योंकि वे साड़ी पहनती हैं, घूंघट करती हैं और चूड़ियां पहनती हैं। पर हमें यह समझना चाहिए कि महिला अधिकार की बात करने के लिए कोई ख़ास कपड़े या हुलिये की नहीं बल्कि विचार और नियत की ज़रूरत होती है। इसी तरह लैंगिक समानता को अपनी ज़िंदगी से जोड़ने के लिए किसी डिग्री की ज़रूरत नहीं है।

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‘तुमने चूड़ियां पहन रखी हैं क्या?’ – हमलोग अक्सर ये लाइन सुनते हैं जब भी किसी बहादुरी के काम की बात होती है, वहां चूड़ियों को हमेशा ‘कमजोरी’ के रूप में देखा जाता है। चूंकि हमारे भारतीय समाज में महिलाएं चूड़ी पहनती हैं, इसलिए इस बात का सीधा मतलब होता है कि महिलाएं कमजोर होती हैं। इसलिए जब भी हमलोग नारीवादी या महिला अधिकारों पर बात करने वाले लोगों की बात करते हैं तो हम लोग मानते हैं कि वह चूड़ी और घूंघट जैसी चीजों से दूर रहें। पर हमें यह भी समझना चाहिए कि गांव की या फिर मध्यमवर्गीय घर की महिलाएं जो महिला अधिकारों को वरीयता देती है और लैंगिक समानता को अपने घर में बढ़ावा देने की हर संभव कोशिश करती है, वे सभी महिलाएं नारीवादी होती हैं। भले ही वे साड़ी पहने, घूंघट लें या चूड़ी पहने। साथ ही, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि चूड़ी पहनना और साड़ी पहनना ये सब हमारी अपनी मर्ज़ी भी हो सकती है, इसलिए किसी एक खांचे से निकालकर दूसरे खांचे में डालने की कोशिश भी एक तरह की सत्ता ही होती है।

मेरा मानना है कि ये सभी महिलाएं नारीवादी हैं क्योंकि लैंगिक समानता और महिला अधिकारों के लिए ये अपने घर की महिलाओं के साथ देती हैं।

गांव में महिलाओं और किशोरियों के साथ करते हुए मैं हर रोज़ कई महिलाओं से मिलती हूं और मैं व्यक्तिगत रूप से कई ऐसी महिलाओं को जानती हूं जो अपनी बेटियों की जल्दी शादी का विरोध करती हैं, उन्हें पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करती हैं, उनकी पढ़ाई के लिए अपना पेट काटकर पैसे बचाती हैं और शादी के बाद बहू को सूट पहनने, नौकरी करने या फिर पढ़ाई पूरी करने की भी आज़ादी दिलाती हैं। इन सबके लिए वे अपने घर में लड़ती हैं, आवाज़ उठाती हैं और कई बार ख़ुद सहयोग भी देती हैं। मेरा मानना है कि ये सभी महिलाएं नारीवादी हैं क्योंकि लैंगिक समानता और महिला अधिकारों के लिए ये अपने घर की महिलाओं के साथ देती हैं।

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गोविंदपुर की जगवंती से लेकर विमला चाची और गांव की हर वह महिला जो लैंगिक समानता और नारीवादी विचारों को बढ़ावा देती हैं, उन्हें पितृसत्ता, नारीवाद और लैंगिक समानता जैसे भारी-भरकम शब्दों का मतलब पता नहीं होता और वे इन शब्दों को जानने में बहुत रुचि भी नहीं रखती और मेरा मानना है कि शब्दों की माया में उन्हें फंसाने की ज़रूरत भी नहीं है, क्योंकि जब तक हम किसी भी व्यवहार को शब्द या किसी ख़ास पहनावे जैसी संस्कृति में समेटकर बोलने, समझने और लागू करने की कोशिश करेंगें, तब तक इन शब्दों के मूल विचार ज़मीन से नहीं जुड़ पाएंगे।

मै ख़ुद भी नारीवाद, लैंगिक समानता और पितृसत्ता जैसे तमाम शब्दों से बहुत परिचित नहीं थी, लेकिन सामाजिक संस्था में काम करते हुए, मुझे इन शब्दों के बारे में पता चला। लेकिन आज भी जब मैं महिलाओं या किशोरियों से नारीवाद, लैंगिक समानता या महिला अधिकार के मुद्दे पर बात करती हूं या किसी कार्यशाला का आयोजन करती हूं तो उसमें कभी भी इसे उनकी वेशभूषा से नहीं जोड़ती, क्योंकि वास्तविकता ये है कि ग्रामीण क्षेत्रों में जब हम महिलाओं के काम, विचार, देशकाल, वातावरण और प्रस्थिति को भूलकर उनसे अपने जैसे बनने और फिर महिला अधिकार की बात करने की बात करते है तो उसी समय हम अपना जुड़ाव उनके साथ खो देते हैं बल्कि पहनावे और शब्दों के ज्ञान को छोड़कर हमें इस बात को समझने, स्वीकारने और प्रोत्साहित करने की ज़रूरत है कि महिलाएं बदलाव की तरफ़ अपना कदम आगे बढ़ा रही हैं। अपने घर में पुरुषों से घर के काम में हाथ बटवाने की बात कर रही हैं। बेटी और बहू की पढ़ाई की ज़ारी रखने में उनकी मदद कर रही हैं। रोटी बेलते हुए और चूड़ी पहनते हुए वे लैंगिक समानता को घर में लागू करने की हर संभव कोशिश कर रही हैं।

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तस्वीर साभार : Wikicommons

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