इंटरसेक्शनलजेंडर बात उमा नारायण के औपनिवेशिक नारीवादी सिद्धांतों की

बात उमा नारायण के औपनिवेशिक नारीवादी सिद्धांतों की

उमा नारायण ने नारीवादी विचारधारा पर विदेशी शिक्षा के प्रभाव का तर्कों के साथ खंडन किया है। साथ ही इस धारणा को भी पूरी तरह से नकारा है कि संस्कृति स्थिर होती है। इनका नारीवादी नजरिया इनके व्यक्तिगत अनुभव और आसपास की घटनाओं का एकालाप नहीं, बल्कि तर्कशील और विश्लेषणात्मक चिंतन और व्यवस्थित अध्ययन का निष्कर्ष है।

हमारे देश में जब भी नारीवाद पर चर्चा होती है, सबसे पहले इसको ख़ारिज करने के लिए इस पर पश्चिमीकरण का आरोप लगता है। इसे विदेशी कहकर भारत में इसकी प्रासंगिकता पर सवाल खड़े कर दिए जाते हैं। भारतीय समाज में विशेषकर जब कोई महिला नारीवाद की बात करती है तो अक्सर लोग उसे उसकी निजी ज़िंदगी को जोड़कर देखने लगते हैं। ऐसे ही आरोप प्रख्यात नारीवादी चिंतक और शोधकर्ता उमा नारायण पर भी लगे, जब उन्होंने नारीवाद पर विमर्श शुरू किया। लोगों का कहना था कि अपनी दादी, मां, परिचित की महिला रिश्तेदारों और ख़ुद के निजी अनुभवों के आधार पर उमा नारायण ने नारीवाद को परिभाषित किया है। जबकि उमा नारायण ने अपने अंतर सांस्कृतिक यानी क्रॉस कल्चर और औपनिवेशिक नारीवाद पर शोध से प्राप्त निष्कर्ष को तथ्यों और तर्कों के साथ सिद्ध किया।

शुरुआती जीवन और शिक्षा

16 अप्रैल 1958 में जन्मी उमा नारायण ने बॉम्बे स्कॉटिश स्कूल से अपनी शुरुआती पढ़ाई की। इसके बाद मुंबई यूनिवर्सिटी से दर्शनशास्त्र में स्नातक किया और फिर पुणे यूनिवर्सिटी से दर्शनशास्त्र में ही परास्नातक किया। दर्शनशास्त्र में विशेष रुचि होने के कारण इन्होंने रटगर्स यूनिवर्सिटी से इसी विषय में डॉक्टरेट के उपाधि भी हासिल की। इस प्रकार भारत में जन्मीं उमा नारायण जब अपनी पढ़ाई के लिए अमेरिका शिफ्ट हुई तो इन्होंने दोनों संस्कृति के अंतर और बदलावों को करीब से देखा। अपने अध्ययन काल के दौरान “लॉरी चेयर्स वीमेंस स्टडीज सेमिनार” में उमा नारायण की मुलाक़ात एलिसन जग्गर से हुई, जिन्होंने आगे चलकर नारीवादी विमर्श और इससे जुड़े शोधपत्रों के प्रबंधन और प्रकाशन में उनकी काफ़ी मदद की।

तस्वीर साभारः Penn State University Press

उमा नारायण ने नारीवाद के संदर्भ में भारत के परंपरागत और प्रगतिशील दृष्टिकोण को भी समझा साथ ही फर्स्ट वर्ल्ड कंट्री अमेरिका के नारीवादी चिंतन का भी निरीक्षण किया। इन बदलावों का सूक्ष्म निरीक्षण और बारीकी से अध्ययन उनके शोध को और अधिक विश्वसनीय बनाता है। अपने काम के ज़रिये उन्होंने सामाजिक संस्कृति में स्त्रियों की स्थिति और उसके होने के कारको को सामने रखा है। डिस्लोकेटिंग कल्चर्स: आइडेंटिटी एंड थर्ड वर्ल्ड फ़ेमिनिज़म वह लिखती हैं, “पुरुष प्रधान औपनिवेशिक सरकारों और पुरुष प्रधान तीसरी दुनिया के राष्ट्रवादी आंदोलनों में “मेरी संस्कृति तुम्हारी संस्कृति से बेहतर है” जैसे शोर और रोष के बीच हमेशा इस बात को दबाया गया है कि इन सभी संस्कृतियों में महिलाएं हमेशा दोयम दर्ज की नागरिक थी।”

ऑफेंसिव कंडक्ट: व्हाट इस इट एंड व्हेन मे वी रेगुलेट इट?

स्नातक के दौरान उमा नारायण ने आक्रामक व्यवहारों की पड़ताल के लिए शोध किया और अपनी थीसिस लिखी जो “ऑफेंसिव कंडक्ट व्हाट इस इट एंड व्हेन मे वी रेगुलेट इट” नाम से प्रकाशित हुई। यह थीसिस कुल छह अध्यायों में विभाजित है। इसके पहले अध्याय में नारायण आक्रामक व्यवहार की अवधारणा और इससे होने वाले नुकसान के बारे में उल्लेख है। दूसरे अध्याय में आक्रामक व्यवहार और नुकसान के बीच के संबंधों के बारे में विश्लेषण किया गया है। आगे अध्याय में वह आक्रामक व्यवहार पर बहुसंख्यकों के अनुभवजन्य विवेचना की आलोचना और प्रामाणिक तथ्यों की वस्तुनिष्ठता पर चर्चा करती है।

इससे आगे चौथा अध्याय आक्रामक व्यवहार और अपराध पर सामाजिक परम्पराओं के प्रभावों का आकलन करता है। पांचवें अध्याय में वह विशेष रूप से सुविधा-संपन्न लोगों और प्राकृतिक तथा समाज-सांस्कृतिक कमज़ोरियों की विवेचना करती है। थीसिस का आख़िरी और छठे अध्याय में इसके कानूनी पहलुओं और सामाजिक-सांस्कृतिक मान्यताओं के अंतरसंबंधों पर प्रकाश डालती है। इस प्रकार नारायण की स्नातक के दौरान लिखी गई इस थीसिस से यह भी स्पष्ट होता है कि अंतर सांस्कृतिक और सामाजिक संदर्भ में व्यक्ति के मनोविज्ञान और व्यवहार का अध्ययन शुरू से ही इनका पसंदीदा क्षेत्र रहा है। 

नारीवाद और संस्कृति के अंतरसंबंधों पर उल्लेखनीय शोध के अलावा उमा नारायण ने पर्यावरणीय नैतिकता, सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों के आपसी संबंधों पर भी काफ़ी काम किया है। इन्होंने नारीवाद के समग्र दृष्टिकोण पर विशेष बल दिया है।

“डिस्लोकेटिंग कल्चर्स: आइडेंटिटी एंड थर्ड वर्ल्ड फ़ेमिनिज़म”

1997 में प्रकाशित उनकी किताब डिस्लोकेटिंग कल्चर्स: आइडेंटिटी एंड थर्ड वर्ल्ड फ़ेमिनिज़म किताब औपनिवेशिक और सांस्कृतिक नारीवाद के क्षेत्र में मील का पत्थर मानी जाती है। पांच भागों में विभाजित यह किताब वर्तमान संदर्भ में नारीवाद की अवधारणा, सांस्कृतिक समानता और विभिन्नता, फर्स्ट वर्ल्ड और थर्ड वर्ल्ड फ़ेमिनिज़म के तुलनात्मक अध्ययन के लिए विश्व स्तर पर पहचान बन चुकी है। इसके पहले भाग में नारायण ने इस रूढ़िधारणा का खंडन किया कि भारत में नारीवाद पश्चिमी देशों से आया है। दूसरे भाग में उपनिवेशवाद का भारतीय समाज और संस्कृति पर प्रभाव, सती प्रथा और दहेज जैसी कुप्रथा के बारे में विस्तार से पड़ताल की गई है।

तस्वीर साभारः The Feminist Library

तीसरा अध्याय अमेरिका में महिला हिंसा और उस पर सांस्कृतिक प्रभाव पर केंद्रित है। किताब के चौथे भाग में लेखिका अपनी अपेक्षाओं पर बात करती हैं जिन्हें अपने ही लोगों द्वारा पूरा किया जाना चाहिए। किताब के अंतिम भाग में खान-पान विवाह पर औपनिवेशिक सत्ता के प्रभावों के माध्यम से भारत में नारीवाद की अवधारणा पर औपनिवेशिक प्रभाव की विवेचना की गई है। अपनी किताब में उन्होंने फर्स्ट वर्ल्ड फ़ेमिनिज़म और थर्ड वर्ल्ड फ़ेमिनिज़म के बीच की गहरी खाई को पाटने की भी कोशिश की है। विभिन्न संस्कृतियों के नारीवाद में विविधता और उनके बीच संबंध इनके लेखन का मूल बिंदु रहा है।

नारीवाद पर विदेशी प्रभाव का खंडन

उमा नारायण ने नारीवादी विचारधारा पर विदेशी शिक्षा के प्रभाव का तर्कों के साथ खंडन किया है। साथ ही इस धारणा को भी पूरी तरह से नकारा है कि संस्कृति स्थिर होती है। इनका नारीवादी नजरिया इनके व्यक्तिगत अनुभव और आसपास की घटनाओं का एकालाप नहीं, बल्कि तर्कशील और विश्लेषणात्मक चिंतन और व्यवस्थित अध्ययन का निष्कर्ष है। सारी दुनिया में सभी महिलाओं के लिए महिला होने के नाते संघर्ष और चुनौतियां कमोबेश एक जैसी हैं, लेकिन सांस्कृतिक विविधता के कारण इनकी मूल जड़ें अलग हैं। उनका यह विचार इन्हें चंद्रा मोहंती और गायत्री स्पिवाक जैसे विचारकों की विचारधारा के समकक्ष लाता है। इस लिहाज़ से विभिन्न देशों और संस्कृतियों में महिलाओं के मुद्दे अलग हैं लेकिन चुनौतियां एक जैसी हैं। 

उमा नारायण ने नारीवाद के संदर्भ में भारत के परंपरागत और प्रगतिशील दृष्टिकोण को भी समझा साथ ही फर्स्ट वर्ल्ड कंट्री अमेरिका के नारीवादी चिंतन का भी निरीक्षण किया। इन बदलावों का सूक्ष्म निरीक्षण और बारीकी से अध्ययन उनके शोध को और अधिक विश्वसनीय बनाता है।

नारीवाद और संस्कृति के अंतरसंबंधों पर उल्लेखनीय शोध के अलावा नारायण ने पर्यावरणीय नैतिकता, सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों के आपसी संबंधों पर भी काफ़ी काम किया है। इन्होंने नारीवाद के समग्र दृष्टिकोण पर विशेष बल दिया है। सामाजिक समता, समानता और सार्वभौमिक न्याय के प्रति इनकी प्रतिबद्धता अभूतपूर्व है। उन्होंने अपने शोध में न सिर्फ़ अपने अनुभवजन्य निरीक्षण को महत्त्व दिया है बल्कि उनकी तार्किक विवेचना और विश्लेषण पर विशेष बल दिया है। इन्होंने सदियों से हाशिए पर पड़े समुदाय को आवाज़ दी है। इसके अलावा उमा नारायण ने भारत के साथ-साथ वैश्विक स्तर पर नारीवाद के और इसके लिए संघर्ष में एकजुटता के महत्त्व को रेखांकित किया है।


सोर्सः 

  1. Wikipedia
  2. Encyclopedia 
  3. feministlibrary.co.uk
  4. philpeople.org
  5. Polylog

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