सेक्सवर्क को कुछ इन शब्दों में परिभाषित किया जाता है- ‘वह सेक्सुअल सर्विस/यौन कार्य जो पैसे या किसी अन्य तरह से व्यावसायिक संदर्भ में किया जाए वह सेक्सवर्क कहलाता है।’ सेक्सवर्क से जुड़े लोगों को सेक्स वर्कर या हिंदी में यौनकर्मी कहा जाता है। अक्सर सेक्स वर्कर जिन इलाकों में एक साथ एक समूह के रूप में रहते हैं उसे आम बोलचाल की भाषा में ‘रेड लाइट’ एरिया कहा जाता है। आज भी हमारे समाज में सेक्सवर्क को बहुत ही तुच्छ नज़र से देखा जाता है, कदम-कदम पर सेक्स वर्कर्स का समाज में बहिष्कार होता रहा है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि इस पितृसत्तात्मक समाज में स्त्रियों की इज़्ज़त उनके शरीर से ही मानी जाती है और स्त्रियों के सम्मान भी इसी आधार पर तौला जाता है।
एक सेक्स वर्कर सम्मान की हकदार क्यों नहीं है? इसके पीछे सबसे बड़ी वजह यह है कि हमारे समाज में आज भी उनके काम को काम नहीं माना जाता। उन्हें वे अधिकार, वे सुविधाएं, वह सुरक्षा नहीं मिलती जो एक आम कामगार के पास होती है। जबकि सेक्सवर्क के दौरान कई सेक्स वर्कर्स को हिंसा, शारीरिक शोषण, आर्थिक और मानसिक शोषण का सामना करना पड़ता है। लेकिन समाज की रूढ़िवादी मानसिकता के कारण उन्हें कानूनी सहायता और स्वास्थ्य सुविधाएं आसानी से नहीं मिल पाती। अगर सेक्सवर्क का गैर-अपराधीकरण होता है तो इससे इस क्षेत्र से जुड़े लोगों के लिए कानूनी सहायता और स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंच आसान हो जाएगी।
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सेक्स वर्क को लेकर कोई ठोस क़ानून ना होने के कारण सेक्स वर्कर्स की सामाजिक स्थिति बिगड़ती जा रही है।
एक सर्वे के ज़रिये पता चला कि भारत में करीब 30 लाख सेक्स वर्कर्स हैं जिसमें से ज़्यादातर 14 वर्ष से कम उम्र में ही इस कारोबार में आ जाती हैं। ऑल बंगाल वीमेन यूनियन के द्वारा किये गए एक सर्वे से लड़कियों के सेक्सवर्क में आने के कारण पता चलते हैं। इस सर्वे के मुताबिक 5 प्रतिशत महिलाएं अपने माता-पिता के कहने पर इस क्षेत्र में आती हैं, 14 फ़ीसद अपने दोस्तों के चक्कर में, 13 फ़ीसद अपने किसी रिश्तेदार के कारण, 10 फ़ीसद धोखे से इस काम में धकेल दी जाती हैं। वहीं, 2 फ़ीसद अपने पति की सहमति से और सबसे अधिक 23 फ़ीसद मिडिलमेन के ज़रिये इस क्षेत्र में आती हैं। वैसे तो भारत में सेक्सवर्क को पूरी तरह अवैध नहीं माना गया है और यह गैरकानूनी भी नहीं है। 1956 अनैतिक व्यापार रोकथाम के मुताबिक सेक्सवर्क भारत में गैर-कानूनी नहीं है। हालांकि, सार्वजनिक स्थानों या होटल में पर यौन संबंधी कार्यों को करना या आग्रह करना, सेक्सवर्क को बढ़ावा देने वाले दलाल जो कि इसके लिए महिलाओं को मजबूर करते है या एक वेश्यालय चलाना अपराध की श्रेणी में आता है। सेक्सवर्क को लेकर कोई ठोस क़ानून ना होने के कारण सेक्स वर्कर्स की सामाजिक स्थिति बिगड़ती जा रही है। इसलिए सेक्स वर्कर्स बार-बार सेक्सवर्क को भारत में वैधता देने की मांग करते रहते हैं पर उनकी इस मांग पर ना तो कोई चर्चा होती है ना कोई इन पर बात ही करना चाहता है। मुंबई के ही एक रेड लाइट एरिया में पली बढ़ी, टेड टॉक्स स्पीकर श्वेता कट्टी भी सेक्सवर्क को वैधता दिलवाने के लिए कार्यरत हैं, ताकि उनकी हालत में सुधार हो सके और वे जिन अधिकारों से वंचित है वे भी उऩ्हें मिल सके।
“वेश्या पैदा नहीं होती, बनाई जाती है या खुद बनती है । जिस चीज की मांग होगी मंडी में ज़रूर आयेगी । ” ये पंक्तियां मशहूर लेखक मंटो की हैं। मंटो जिन्होंने अपनी कई कहानियों में कई बार सेक्स वर्कर्स का ज़िक्र किया है और उनकी कई कहानियां सेक्स वर्कर्स पर ही आधारित हैं। जिसमें उन्होंने अन्य औरतों की तुलना शहर की सुंदर गाड़ियों से करते हुए, वेश्याओं को एक कूड़ा उठाने वाली गाड़ी बताया है, जिसकी ज़रूरत साफ-सफाई के लिए, शहर का सारा कूड़ा करकट उठाने में होती है, पर फिर भी जब भी ऐसी गाड़ियां हमारे समीप आती है हम नाक में रुमाल रखकर दूसरी ओर मुंह फेर लेते हैं। यही दोहरा चरित्र हमारे समाज की सच्चाई है। सेक्सवर्क और सेक्स वर्कर्स के काम को हमारे समाज में एक गाली की तरह इस्तेमाल किया जाता है। अक्सर आम बातचीत में भी बार-बार उनके काम और पेशे को एक अपशब्द की तरह पेश किया जाता है। सेक्सवर्कर्स के कपड़ों, उनके व्यवहार और उनकी वेश-भूषा के प्रति एक पूर्वाग्रह हमारे समाज में पहले से मौजूद है। पर फिर भी आज उनके अस्तित्व को ये समाज गाली मानता है, अपशब्द के रूप में बोलता है क्या ये उचित है?
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तस्वीर साभार : Viewpoint Magazine
Bahut sunder lekh