गैसस्लाइटिंग शब्द का जन्म साल 1938 में बने एक नाटक ‘गैसलाइट’ से हुआ। यह नाटक एक अंग्रेजी लेखक पैट्रिक हैमिल्टन ने लिखा था। साल 1944 में इस पर एक फ़िल्म भी बनी थी। इस कहानी में एक शादीशुदा जोड़ा मुख्य किरदार में थे। नाटक में पति अपनी पत्नी को यह एहसास करवाने लगता है कि उसका मानसिक संतुलन ठीक नहीं है। वह उसके आसपास के वातावरण में छोटे-छोटे बदलाव करता है। जैसे गैस की रोशनी को कम-तेज़ करना और इन बदलावों को लेकर पत्नी के अनुभवों को खारिज़ करता रहता है। पत्नी अपने अनुभवों से निकले विचार, अनुभूति, निर्णय, मान्यताओं और अपने आंतरिक विमर्श के हर बिंदु को लेकर संशय में जाने लगती है। गैसलाइटिंग करने का यही परिणाम होता है।
गैसस्लाइटिंग का सीधा अर्थ है, जब हम सामने वाले व्यक्ति को यह सोचने पर मजबूर कर देते हैं कि वह जो कुछ भी सोच रहा है या महसूस कर रहा है वैसा बिल्कुल नहीं है। सामने वाले की भावनाओं को नकारना और उसके अपने फैसलों पर सवाल उठाना गैसस्लाइटिंग है। ऐसा करने से सामने वाले व्यक्ति में खुद को लेकर संशय पैदा होता है। यह एक तरह से किसी मनोवैज्ञानिक दिशा दशा जोड़तोड़ करने जैसा है। इस क्रिया में सामाजिक ढांचे और उनसे जुड़ी पहचान अहम भूमिका निभाती हैं। जैसे, अगर हम जेंडर के आधार पर देखें तो शक्ति श्रेणी में एक जेंडर दूसरे की तुलना में ऊपरी पायदान पर होता है इसलिए यहां हमें गैसलाइटिंग का मतलब समझना ज़रूरी है।
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इतिहास, समाज, साहित्य, सिनेमा ज्यादातर पुरुषों की नज़र से दर्ज किया जाता है। मुख्यधारा सोच से हटकर अगर कोई औरत व्यक्तिगत रूप से या सामूहिक रूप से कुछ अनुभव करती है तब उसके अनुभवों को मनगढ़ंत बता देना, ओवर थिंकिंग कह देना आम घटना है। ऐसा निज़ी संबंधों में अक्सर देखने मिलता है। किसी के साथ लगातार ऐसा होते रहने पर वह अपने व्यक्तिगत अनुभवों पर शक करने लगता है और उनके आधार बनाई गई राय, लिए गए फैसलों पर आत्मविश्वास की कमी होने लगती है। कई बार निज़ी संबंधों में पुरूष साथी की हिंसक मर्दानगी पर सवाल खड़े करने पर, विरोध जताने पर महिलाओं को गैसलाइट किया जाता है। इस व्यवहार में शोषित की मनोदशा को समझने के लिए सामाजिक शक्ति श्रेणी पर दोनों पक्षों की स्थितियां समझनी जरूरी है।
गैसलाइटिंग से बाहर निकलने के लिए शोषित को पहले अपने साथ हो रहे इस दोहरावपूर्ण व्यवहार को रेखांकित करना, गैसलाइट करने वाले व्यक्ति के मकसद को भांपना ज़रूरी है।
निज़ी संबंधों में शक्ति असमानता, जैसे, किसी निर्णय लेने में एक साथी का प्रभाव ज्यादा होना गैसलाइटिंग को जगह दे सकता है। एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के नज़रिए को अपने अनुकूल ढालना चाहता है ताकि उसे किसी तरह के विरोध को लेकर जवाबदेही न उठानी पड़े। समांतर चलते दिख रहे संबंधों में भी व्यक्ति जाति, आर्थिक, धार्मिक और दूसरे सांस्कृतिक पैमानों में समाज के किस तबके से खुद को जुड़ा पाता है, यह बात उस संबंध की सामाजिक दृष्टि से क़ायम शक्ति श्रेणी निर्धारित करती है।
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गैसस्लाइटिंग और आलोचना के बीच भेद करना ज़रूरी है। आलोचना में आप एक व्यक्ति के साथ असहमति जताते हैं, अपने विचार रखते हैं, लेकिन सामने वाले के विचार को आप निराधार नहीं बताते, उनके अनुभवों को भ्रम नहीं कहते। आलोचना दोतरफ़ा संवाद है। आलोचना एक ऐसी स्थिति है जहां आलोचक सामने वाले को आलोचना मानने या न मानने या उस पर विचार करने का स्पेस देता है। गैसलाइटिंग में एक व्यक्ति दूसरे के बातों को एक सिरे से वहम बता देता है, केवल अपनी बातों को उस संवाद का आधार और निष्कर्ष मानता है। गैसलाइटिंग शोषित के मानसिक स्वास्थ और आत्मविश्वास पर बुरा प्रभाव डालता है। शोषित अपने मानसिक स्वास्थ्य के लिए शोषक को जिम्मेदार नहीं मान पाते। वे मानने लगते हैं कि वह इंसान उन्हें सही रास्ता दिखाना चाहता है, उसके आसपास होने से उनका जीवन आसान होता है। वह अपने शोषक पर इतने निर्भर हो जाते हैं कि गैसलाइटिंग के घेरे से बाहर निकलने की जरूरत का अनुभव ही नहीं कर पाते।
गैसलाइटिंग से बाहर निकलने के लिए शोषित को पहले अपने साथ हो रहे इस दोहरावपूर्ण व्यवहार को रेखांकित करना, गैसलाइट करने वाले व्यक्ति के मकसद को भांपना ज़रूरी है। घर से लेकर कार्थयस्थल तक यह क्रिया कई लोगों के व्यवहार का हिस्सा है, इसका परिणाम पीड़ित व्यक्ति को अपना व्यक्तित्व खोकर उठाना पड़ता है। अपने अनुभवों पर विश्वास करना और सामाजिक पृष्ठभूमि पर अपने स्थान और शोषक के स्थान को पहचाना बेहद ज़रूरी है।
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