इतिहास डॉ. इशर जज अहलूवालिया: भारत की प्रख्यात अर्थशास्त्री | #IndianWomenInHistory

डॉ. इशर जज अहलूवालिया: भारत की प्रख्यात अर्थशास्त्री | #IndianWomenInHistory

1 अक्टूबर 1945 को जन्मी डॉ. अहलूवालिया भारत की एक जानी-मानी अर्थशास्त्री, पब्लिक पॉलिसी रिसर्चर और प्रोफेसर थी।

बीते साल 26 सितंबर को डॉ. इशर जज अहलूवालिया का निधन हुआ था। उनके निधन के बाद पूरे देश में शोक की लहर दौड़ गयी। 1 अक्टूबर 1945 को जन्मी डॉ. अहलूवालिया भारत की एक जानी-मानी अर्थशास्त्री, पब्लिक पॉलिसी रिसर्चर और प्रोफेसर थी। वह काफी समय से ग्रेड IV ग्लियोब्लास्टोमा कैंसर (जिसकी वजह से दिमाग में बहुत ही घातक ब्रेन ट्यूमर हो जाता है) से जूझ रही थी। इसी वजह से उन्होंने पिछले महीने ही इंडियन कॉउंसिल फॉर रिसर्च ऑन इंटरनेशनल इकनोमिक रिलेशन्स (ICRIER) की अध्यक्षता से भी इस्तीफा दे दिया था।      

पद्म भूषण पुरस्कार से सम्मानित, डॉ. अहलूवालिया ने ICRIER को एक प्रख्यात थिंक-टैंक बनाने में अहम् भूमिका निभाई थी। उन्होंने लगभग 15 वर्ष ICRIER के अध्यक्ष के तौर पर काम किया। ICRIER ने उनके असाधारण योगदान को पहचानते हुए उनके लिए चेयरपर्सन एमेरिटस के नाम से एक विशेष पोस्ट बनाई। इसके अतिरिक्त, उन्होंने शहरीकरण और शिक्षा के मुद्दे पर भी बड़े पैमाने पर काम किया। उनकी आखिर किताब (जो एक मार्मिक संस्मरण के रूप में लिखी गयी है), ‘ब्रेकिंग थ्रू’ को उन्होंने अपनी बहुओं को समर्पित की है। वे और भी कई किताबें लिख चुकी है, जैसे कि – इंडस्ट्रियल ग्रोथ इन इंडिया: स्टेग्नेशन सींस द मिड-सिस्टीज़ और प्रोडक्टिविटी एंड ग्रोथ इन इंडियन  मैन्युफैक्चरिंग। उन्होंने शहरीकरण पर भी दो किताबें लिखी है।     

डॉ. अहलूवालिया के इस मुकाम तक पहुंचने के पीछे एक बहुत बड़ी वजह थी- उनकी अर्थशास्त्र में रूचि। उन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज, कलकत्ता विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में स्नातक की डिग्री प्राप्त की। इसके लिए उन्हें पैंतीस रुपए हर महीने की छात्रवृत्ति भी मिली, जिससे उनकी कॉलेज की फीस और आने-जाने, इन दोनों के ही खर्चे की समस्या नहीं रहती थी। प्रेसीडेंसी कॉलेज में पढ़ने की वजह से उन्हें अलग-अलग बच्चों के साथ पढ़ने का मौका मिला। वे अपने वृतांत, ‘ब्रेकिंग थ्रू’ में ये कहती है कि मैं अंदर से हमेशा से ही एक हिंदी-मीडियम लड़की ही थी। मेरे घर में अंग्रेजी का कोई उपयोग नहीं होता था। आगे वे ये भी कहती है कि कॉलेज में पढ़ते-पढ़ते मैं ये समझ गयी थी कि अपनी जिंदगी पर खुद का नियंत्रण रखने के लिए आगे पढ़ना बहुत ही जरुरी है। इसीलिए मैंने आगे पढ़ने का मन तब ही बना लिया था।  

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नतीजतन, इसके बाद उन्होंने दिल्ली स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स से अर्थशास्त्र में ही मास्टर्स किया। दिल्ली में पढ़ना उनके लिए आसान नहीं थी, क्योंकि उनके माता-पिता उनके दिल्ली अकेले पढ़ने के पक्ष में नहीं थे। लेकिन उसी दौरान उनके भाई ने दिल्ली शिफ्ट होने का फैसला लिए और नतीजतन वे भी अपने भाई के साथ दिल्ली आ गयी। दिल्ली में ही उनकी दूसरे अर्थशास्त्रों और शिक्षाविदों जैसे कि मनमोहन सिंह एवं अमर्त्य सेन से भी मुलाकात हुई। इस क्षेत्र में अपने जुनून को देखते हुए, उन्होंने अर्थशास्त्र में ही मेसाचुसेट्स प्रौद्योगिक संस्थान (MIT) से पीएचडी भी की जिसमे उनके शोध का केंद्र था। साल 1951 से साल 1973 के दौरान भारत की मैक्रो इकोनॉमी और इसकी उत्पादकता। इसके बाद कुछ समय उन्होंने इंटरनेशनल मोनेटरी फण्ड (IMF) के साथ भी कुछ समय काम किया। अपने करियर के इसी सफर के दौरान उनकी मुलाकात मोंटेक सिंह अहलूवालिया से हुई थी, जिनसे आगे चलकर उनकी शादी भी हुई। मोंटेक सिंह अहलूवालिया भी एक अर्थशास्त्र और सिविल सेवक है।   

कलकत्ता के छोटे से घर से अमेरिका तक पीएचडी करने का सफर आसान नहीं था। लेकिन डॉ. अहलूवालिया बदलती हुई परिस्थितियों के साथ बदलती गयी और आगे बढ़ती गयी।

उनका जन्म एक साधारण, मध्यम-वर्गीय, सिख परिवार में हुआ था। कलकत्ता के कालीघाट से बहुत ज्यादा दूर नहीं, वे अपने परिवार के साथ पूर्णिमा सिनेमा के पास एक छोटे से किराये के घर में रहती थी। एक अचार वाले की बेटी होने के नाते उन्होंने कई सामाजिक और आर्थिक परेशानियों को झेला। उनके कुल 11 भाई बहन थे, जिनमें से वे अपने माता-पिता की नवीं संतान थी। उनके माता-पिता को उनकी पढाई-लिखाई में कोई विशेष रूचि नहीं थी। और ऐसा तब तक रहा जब तक इशर ने बोर्ड परीक्षा में पूरे राज्य में 8वाँ स्थान प्राप्त नहीं किया। वे अपने वृत्तान्त, ‘ब्रेकिंग थ्रू’ में ये कहती है, ‘मेरे पिता ने हमारी शिक्षा में कभी कोई रूचि नहीं दिखाई। लेकिन जब मैंने बोर्ड परीक्षा में एक अच्छी रैंक प्राप्त की तो वे अक्सर अपने मित्रों को बड़े ही गर्व से बताते थे कि मैंने लड़कियों में तीसरी रैंक प्राप्त की है। मेरी पढ़ाई में उनकी ये रूचि अच्छी लगी, लेकिन लैंगिक भेदभाव नहीं। इसीलिए मैं उन्हें ठीक करते हुए यह कहती थी कि मैंने पूरे राज्य में आठवां स्थान प्राप्त किया है, न कि तीसरा।’         

कलकत्ता के छोटे से घर से अमेरिका तक पीएचडी करने का सफर आसान नहीं था। लेकिन डॉ. अहलूवालिया बदलती हुई परिस्थितियों के साथ बदलती गयी और आगे बढ़ती गयी। अपने आस-पास वालों की दौलत और बदलते हुए हालातों का उन्होंने कभी खुद पर कोई प्रभाव नहीं होने दिया। ये उनके संघर्ष का ही नतीजा था कि उन्होंने शिक्षा और प्रोफेशन में अपनी सफलता के दम पर ये साबित कर दिखाया (विशेष तौर पर अपने पिता को) कि लड़कियाँ किसी से भी कम नहीं होती।   

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