कार्यस्थल वह जगह है जहां हम घर के बाद अपना सबसे अधिक समय बिताते हैं। इसलिए बतौर एक महिला अपने कार्यस्थल से हमारी यह उम्मीद करना गलत नहीं है कि वहां का माहौल लैंगिक रूप से संवेदनशील और सामाजिक समरसता को बढ़ावा देने वाला होना चाहिए। लेकिन हम भूल जाते हैं कि हम जिस समाज का हिस्सा है वहां लैंगिक असमानता और जातिगत भेदभाव अब भी जारी है और कभी-कभी तो यह भेदभाव यह बहुत विकराल रूप में भी कार्यस्थल पर हमारे सामने आती है। समाज की इसी सोच से निकले लोग जब सरकारी दफ्तरों या प्राइवेट ऑफिस में पहुंचते हैं तो वहां भी अपनी उसी मानसिकता को वे अपने कार्यस्थल पर भी ले जाते हैं। जिससे कार्यस्थल का वातावरण बहुत बार तनावपूर्ण हो जाता है।
मैं यहां अपने एक निकटतम सदस्य के अनुभव साझा करना चाहती हूं जो एक सरकारी दफ्तर में कार्यरत हैं और वह बताती हैं कि वहां किस कदर महिला-विरोधी और जातिगत भेदभाव वाली मानसिकता से पीड़ित लोग रहते हैं। मैं जिस शख्स के यहां अनुभव साझा कर रही हूं मैं उनकी पहचान गुप्त रखते हुए सारे अनुभव बताना चाहूंगी। मैं यहां आंचल (बदला हुआ नाम) के कार्यस्थल के कड़वे अनुभव को साझा करूंगी। आज भी सरकारी दफ़्तराों में न केवल पुरुष बल्कि महिलाएं भी भेदभाव करने में पीछे नहीं हैं, ख़ासकर वे जाति के आधार पर खुद को श्रेष्ठ समझती हैं। मैं आंचल के अनुभव साझा करूं इससे पहले मैं आंचल के बारे में संक्षिप्त जानकारी दे देना चाहती हूं। आंचल दिल्ली की रहने वाली हैं, उसकी सरकारी नौकरी देहरादून में लगी है। वह जूनियर असिस्टेंट के पद पर नियुक्त हैं। अभी उसकी नौकरी को 3 साल ही हुए हैं।
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ऐसा नहीं है कि आंचल की यह पहली नौकरी है। इससे पहले भी वह दिल्ली के बहुत से प्राइवेट और सरकारी दफ़्तरों में काम कर चुकी है। उसके पुराने दफ़्तरों में उसके कपड़ों को लेकर या उसकी जाति को लेकर उस तरह की टिप्पणी नहीं सुनाई दी जैसे कि देहरादून में उसे सुननी पडती है। उदाहरण के तौर पर दफ़्तर में अगर वह शॉर्ट कुर्ता पहनती है तो उसे उस पर स्कार्फ या स्टोल लेना चाहिए। चिकनकारी कुर्ते ज्यादा ही पारदर्शी होते हैं इसलिए ऑफिस के लिए कपड़ों का चयन ठीक से किया जाना चाहिए। आज तो आपने काजल पहना है, आज तो आपने बोल्ड लिपस्टिक लगाई है, तुम्हारे कपड़े कुछ ज्यादा ही अलग होते हैं, कुर्ते का गला ज्यादा ही बड़ा ही नहीं है आदि जैसी टिप्पणियां सुनने को मिलती रहती हैं।
जब आपको सामान्य बातचीत में कई बार आरक्षण को लेकर ऐसे ताने सुनने पड़ते हैं कि कोटे वाले एक मेरिट वाले बच्चे की सीट खराब कर देते हैं तो यह सब बातें और ज्यादा दुख पहुंचाती हैं।
आंचल के देहरादून के सरकारी ऑफिस में कुल स्टाफ की संख्या में से तीन लोग कोटे से हैं जिसमें से दो पुरुष और एक महिला है। आंचल वही महिला है जो आरक्षित सीट से है। सरकारी ऑफिस की दूसरी बड़ी समस्या असमान कार्य विभाजन से संबंधित है। असमान कार्य विभाजन से मतलब सबको 8 घंटों के हिसाब से काम न देकर बल्कि किसी को 4 घंटे के हिसाब से काम दिया जाता है तो किसी को कार्य 8 घंटों के हिसाब से दिया जाता है। जबकि किसी किसी का कारc 8 घंटों से ज्यादा भी लंबा चलता है बहुत बार तो अवकाश में भी जाकर पेंडिंग कार्यों को पूरा किया जाता है। हफ्ते में मिली दो छुट्टियां शनिवार और रविवार जिसमें से एक छुट्टी हमेशा कार्य करने में ही निकल जाती है। अवकाश में किए गए काम का अतिरिक्त वेतन भी नहीं दिया जाता। यह भेदभावपूर्ण व्यवहार दो आधारो पर किया जाता है, जेंडर और वरिष्ठता को ध्यान में रखते हुए। लड़की होने के कारण उसे पुरुषों से अधिक कार्य सौंपा जाता है क्योंकि लड़कियां ज्यादा सवाल-जवाब नहीं करती है। वार्षिक सर्टिफिकेट बनाने के लिए वार्षिक कुशलता रिपोर्ट में अच्छी रैंक रहना भी बहुत ज़रूरी है इसलिए कई बार आंचल को भेदभाव को नजरअंदाज करना पड़ता है क्योंकि उसे अभी ज्यादा काम का अनुभव नहीं है। ज्यादा शिकायत न करते हुए वह अपने काम को इमानदारी से करती जा रही है।
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यहां हम देख सकते हैं कि किस तरह से आंचल को तमाम तरह के भेदभाव से गुजरना पड़ता है। कभी-कभी तो वह इसके कारण मानसिक तनाव भी महसूस करती है। यह एक सरकारी दफ्तर है साथ ही सार्वजनिक स्थान भी जहां इस तरह के वातावरण में उसे काम करना पड़ता है। हालांकि वहां पर सभी लोग इस तरह की मानसिकता के नहीं हैं लेकिन एक दो लोगों से ही कार्यस्थल का माहौल तनावपूर्ण हो जाता है। जिसके साथ यह भेदभावपूर्ण व्यवहार होता है उसे मानसिक रूप से बहुत पीड़ा पहुंचती है। ध्यान देने वाली बात यह है कि कड़ी मेहनत करने के बाद और बहुत से संघर्षों के बाद ही सरकारी नौकरी मिल पाती है उसके बाद जब इस तरह का व्यवहार का सामना करना पड़ता है तो इंसान मानसिक तौर पर टूट जाता है।
जब आपको सामान्य बातचीत में कई बार आरक्षण को लेकर ऐसे ताने सुनने पड़ते हैं कि कोटे वाले एक मेरिट वाले बच्चे की सीट खराब कर देते हैं तो यह सब बातें और ज्यादा दुख पहुंचाती हैं। समस्या तब ज्यादा बढ़ जाती है जब व्यक्ति अपना परिवार, अपना शहर छोड़कर एक अन्य शहर में रहा हो जहां उसे कोई भावनात्मक रूप से कोई सहारा देने वाला नहीं है। लड़कियों के लिए तो यह संघर्ष और भी चुनौतीपूर्ण होता है। उन्हें कभी जेंडर तो कभी धर्म तो कभी जाति के आधार पर हर वक्त भेदभाव सहना पड़ता है। ऐसे में ज़रूरी है कि एक सरकारी दफ्तर में जब एक महिला पहुचें तो वहां का माहौल लैंगिक रूप से संवेदनशील और सामाजिक समता वाले विचारों पर आधारित हो। शहरों में अधिकतर दावा किया जाता है कि जातिगत भेदभाव और जेंडर भेदभाव खत्म हो गया है लेकिन वास्तविकता इसके उलट है। आज इन तमाम तरह के भेदभावों ने बस अपना स्वरूप बदल लिया है।
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तस्वीर साभार : People Matters