समाजराजनीति हर लोकतांत्रिक आंदोलन के ख़िलाफ़ इस्तेमाल किया जाने वाला ‘देशद्रोह’ का नैरेटिव

हर लोकतांत्रिक आंदोलन के ख़िलाफ़ इस्तेमाल किया जाने वाला ‘देशद्रोह’ का नैरेटिव

जब-जब इस देश में सरकारें अलोकतांत्रिक होंगी, तानाशाही प्रवृत्ति से देश के लोगों के जीवन में हस्तक्षेप करेंगी, तो लोकतंत्र को बचाए रखने के लिए, अपनी बात पूरे देश के सामने रखने के लिए लोग सड़कों पर आएंगे।

बीते कुछ समय से सरकार और उसके समर्थकों ने अपने ख़िलाफ़ होने वाले हर प्रदर्शन और उठने वाली विरोध की हर आवाज़ को ‘देश-विरोधी’ होने का ठप्पा लगाकर पेश करने की परंपरा अपना ली है। दरअसल, ऐसे समय में जब इस देश का ‘गण’ मौजूदा ‘तंत्र’ के ख़िलाफ़ अलोकतांत्रिक होने के आरोप में आंदोलन कर रहा है तब ज़रूरी हो जाता है कि आख़िर सरकार की नीतियों और सरकार की आलोचना को राष्ट्र की आलोचना मानकर क्यों प्रचारित किया जा रहा है? व्यापक समस्याओं और मूलभूत प्रश्नों से जनता का ध्यान हटाकर ‘नारों’ और ‘प्रतीकों’ तक सीमित करने की इस साज़िश के केंद्र में क्या है और क्यों वे सभी संस्थान जिन्हें स्वतंत्र और निष्पक्ष होना था, वे सरकारी ‘मैकेनिज़्म’ बनकर सीमित हो गए हैं?

यह समय आंदोलन का है। पंजाब, हरियाणा सहित उत्तर-प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र, दक्षिण भारत समेत देशभर में किसान सरकार द्वारा बिना उनकी परामर्श के पारित किए गए कृषि कानूनों के विरोध में आंदोलन कर रहे हैं। किसान बड़ी संख्या में दिल्ली की बाहरी सीमाओं पर पिछले 62 दिनों से आंदोलनरत थी, जिसमें लगभग 140 से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है। अब सवाल यह उठता है कि मीडिया से लेकर सरकार के समर्थक जो लगातार ‘जय जवान- जय किसान’ का नारा लगाते फ़िरते थे, अचानक से उन्हें सरकारी नीतियों की ख़िलाफ़त करने वाले किसान राष्ट्रविरोधी क्यों लगने लगते हैं? सरकार को राष्ट्र मान लेने का यह नैरेटिव कितनी आसानी से लोगों के दिमाग़ में भर दिया गया है कि लोकतंत्र की रक्षा के लिए किए जा रहे आंदोलनों को भी नकारात्मक ढंग से देखा जाने लगता है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या गणतंत्र या लोकतंत्र की नींव रखते हुए संविधान निर्माताओं ने इसी दिन की कल्पना की थी? निश्चित तौर पर बिल्कुल नहीं।

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इस देश में लोकतंत्र की स्थापना एक लंबे संघर्ष के बाद हुई है। हमारे पूर्वजों ने एक कठिन लड़ाई लड़कर गणतंत्र पाया है। हालांकि बीते समय को याद करें तो उस दौरान भी अंग्रेज़ों की सत्ता ने अभिव्यक्ति की आज़ादी पर रोक लगाकर, उनके विरोध में आवाज़ उठाने को राजद्रोह घोषित किया हुआ था और आज हमारे देश में भी बोलना गुनाह है लेकिन वह दौर साम्राज्यवादी शासन का था, यह लोकतंत्र है। इस समय ग़रीब, किसानों और मज़दूरों द्वारा अपनी ऐतिहासिक धरोहर लालकिले की प्राचीर से राष्ट्र का संबोधन आख़िर क्यों गलत हो जाता है? क्या यह देश, इसके पवित्र चिह्न-प्रतीक और इसकी विरासत मजदूरों के नहीं है, क्या यह देश केवल पूंजीपतियों, लाल फीताशाही और नेताओं की जागीर है? यह देश किसानों और मजदूरों का है और जब-जब इस देश में सरकारें अलोकतांत्रिक होंगी, तानाशाही प्रवृत्ति से देश के लोगों के जीवन में हस्तक्षेप करेंगी, तो लोकतंत्र को बचाए रखने के लिए, अपनी बात पूरे देश के सामने रखने के लिए लोग सड़कों पर आएंगे।

यहां समझने वाली बात यह है कि किसानों को घर-बार छोड़कर दिल्ली की ठंड में आंदोलन करते हुए लगभग दो महीने से ज़्यादा होने वाले हैं, शहीदों की बात करने वाले इस देश मे क्या उन डेढ़ सौ लोगों और उनके परिवारों की कोई अहमियत नहीं है, जो सरकार की असंवेदनशीलता के कारण मारे गए हैं? उनकी मौत की ज़िम्मेदारी कौन लेगा? दरअसल, राज्य द्वारा परोसे गए विमर्श ने जनता की आंखों पर पट्टी बांध दी है। लोग वही देखते, सुनते और समझते हैं, जो राज्य उन्हें परोसना चाहता है और यह सब राज्य मीडिया के सहयोग से बड़ी आसानी से कर पाता है। उसके दो सबसे मज़बूत हाथ हैं- पहला मीडिया, जो हर आंदोलन के विचार और विमर्श को कमज़ोर कर ‘नारे’ तक सीमित करता है और दूसरा बल, जिसके सहारे सरकार अपने अलोकतांत्रिक फैसलों पर ‘मूक सहमति’ बनाती है। असल में, पुलिस बल ‘स्टेट स्पॉन्सर्ड वॉयलेंस मेकेनिज़्म’ की तरह नज़र आने लगा है जिसके माध्यम से सरकारें आंदोलनकारियों को उपद्रवी करार देकर उनपर लाठियां बरसाती हैं और क्योंकि पहले से ही ‘राष्ट्रवाद’ का एक ऐसा चक्र मीडिया ने तैयार करके रखा है कि लोग अंधे होकर उसमें फंसते चले जाते हैं।

जब-जब इस देश में सरकारें अलोकतांत्रिक होंगी, तानाशाही प्रवृत्ति से देश के लोगों के जीवन में हस्तक्षेप करेंगी, तो लोकतंत्र को बचाए रखने के लिए, अपनी बात पूरे देश के सामने रखने के लिए लोग सड़कों पर आएंगे।

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26 जनवरी के दिन किसानों की इस आवाजाही को ‘हिंसात्मक गतिविधि’ के रूप में देखा जा रहा है। लोग इस हिंसा की आलोचना कर रहे हैं, ऐसे में सवाल उठता है कि असलियत में हिंसा करने वाला कौन है और सरकार की हिंसाओं पर ‘मीम’ बनाने के अलावा गंभीर सवाल कब उठाए जाएंगे? अलग-अलग राज्यों में जिस तरह से किसानों को खदेड़ा जा रहा है और आंदोलन में शामिल नहीं होने दिया जा रहा, उसकी आलोचना कौन करेगा? देशद्रोह के नामपर बुद्धिजीवियों को जेल में बंद करने की प्रवृत्ति पर सवाल कौन उठाएगा? यूनिवर्सिटीज़ में घुसकर लाइब्रेरी तोड़ने और छात्रों के साथ हुई हिंसा की आलोचना कौन करेगा? क्या वह हिंसा नहीं है? सच्चाई यह है कि हिंसा राज्य का हथियार है और अपना विमर्श टीवी और संचार माध्यमों का प्रयोग कर लोगों के मन में फैलाकर बड़ी आसानी से राज्य हिंसा करता रहा है।

लोगों की एकजुटता से राज्य डरता है, इसलिए ही इसकी कोशिश रहती है कि इस एकजुटता को तोड़ा जाए, एकजुट होकर प्रदर्शन करने के मनोबल को ध्वस्त किया जाए, ताकि फिर कभी लोग सरकार के ख़िलाफ़ एकजुट न हों और अगर मौजूदा स्थितियों पर ग़ौर किया जाए तो यही सच्चाई दिखती है। पहले 26 जनवरी को लाल किले पर हुई ‘उग्र हिंसा’ का हवाला देकर किसान आंदोलन को मिलने वाले जनसमर्थन को तोड़ा गया और फिर आंदोलनकारियों को खदेड़ने की प्रक्रिया शुरू हुई। पानी, टॉयलेट्स, बिजली और इंटरनेट कनेक्शन्स काट दिए गए और लोगों को तितर-बितर करने की कोशिश हुई। इससे साफ़ हो जाता है कि असलियत में सरकार की मंशा क्या है। सरकार ने धर्म और राष्ट्र का मुद्दा लेकर ऐसा विमर्श तैयार किया है, जिससे बहुसंख्यक जनता की नब्ज उसके हाथ में हैं और जब भी कोई बड़ा आंदोलन होता है या कोई व्यापक जन समूह उसके ख़िलाफ़ खड़ा होता है, इन्हीं दोनों मुद्दों की बात शुरू कर दी जाती है और ज़रूरी मुद्दों को खत्म कर दिया जाता है। यही कारण है कि सरकार एक के बाद एक लगातार असंवैधानिक ढंग से कानून पारित कर रही है। इस पूरी प्रक्रिया में स्टेकहोल्डर्स से कोई संवाद व बातचीत नहीं की जाती है। एक RTI के जवाब में सरकार कहती भी है कि कृषि बिल पारित करने में किसी भी सम्बद्ध व्यक्ति से कोई बातचीत व चर्चा नहीं की गई है।

ऐसे में, किसानों द्वारा चलाया जाने वाला शांतिपूर्ण आंदोलन एक दिन अगर ‘यथास्थितिवाद’ को तोड़कर दिल्ली में लाल किले पर चला जाता है और उस पूरी प्रक्रिया में, जब आंदोलनकारियों की संख्या पुलिस से अधिक थी अगर चाहती तो उन्हें रोक सकती थी। इस घटना के बाद उन्हें मीडिया ने न सिर्फ लाल किला पहुंचे लोगों को बल्कि आंदोलन में शामिल हर किसान को उपद्रवी की तरह दिखायै। ट्रैक्टर मार्च के दौरान किसानों को उम्मीद थी कि इस देश के लोगों में अभी भी संवेदना बची हुई है और इसलिए वे किसानों की समस्याओं और उनके संघर्षों को समझ पाएंगे। हालांकि ऐसा नहीं था और राज्य प्रायोजित एजेंडा समाज में व्याप्त हो चुका है और इसलिए किसानों के ग़ैर-सांप्रदायिक लोकतांत्रिक आंदोलन को भी देश विरोधी कृत्य के रूप में मीडिया द्वारा परोसा गया।

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तस्वीर साभार : Indian Express

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