एक लोकतांत्रिक राष्ट्र में अपने अधिकारों अभिव्यक्ति की आज़ादी के अधिकार का इस्तेमाल अगर सही ढ़ंग से किसी ने इस्तेमाल किया है तो वे छात्र वर्ग है जिन्होंने प्रदर्शन के माध्यम से लोकतंत्र को जिंदा रखने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। सोशल मीडिया पर छात्रों को देशद्रोही कहने और पाकिस्तानी एजेंट कहने वाले लोगों की भरमार है लेकिन घरों में बैठकर किसी की परेशानी सुने बिना केवल एक धारणा बनाकर छात्रों पर आरोप लगाना भी एक अपराध है। आसपास उठते-बैठते लोगों के मुंह से जेएनयू, जामिया के छात्रों के लिए छूटते ही एक आम शब्द निकलता है ‘देशद्रोही।’ सरकारें वोट बैंक की राजनीति कर सत्ता में आती है फिर जनता की माई-बाप बन जाती है ब्रेनवाश के नामपर धर्म का पाठ पढ़ाती है।
अभिव्यक्ति की आज़ादी का प्रदर्शनों में इस्तेमाल करते छात्र
कुछ समय से एक नया ट्रेंड चल पड़ा है प्रदर्शन करने वाले छात्रों को लोग ऐसे देखते है जैसे उन्होंने कोई बड़ा गुनाह किया हो। लोग उनका मनोबल बढ़ाने के बजाय उन्हें ही दोषी बना देते हैं, उन्हें ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ कहा जाता है। आज कल तो पीएचडी और शोध से जुड़े छात्रों का सोशल मीडिया पर मज़ाक बनाया जाता है क्योंकि व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी की पढ़ाई जो ज़ोरो-शोरो पर है फिर पीएचडी का क्या काम? लेकिन धरना प्रदर्शन करते छात्रों ने हमारे स्वतंत्रता संघर्ष की संस्कृति और अभिव्यक्ति की आज़ादी को बनाए रखा है। छात्रों ने महात्मा गांधी की अहिंसा और स्वराज की अवधारणा को हमारे बीच जिंदा रखने का काम किया है क्योंकि आज़ादी केवल अंग्रेजों से नहीं चाहिए थी आज़ादी का स्वरूप समय के साथ बदलता है।
अभिव्यक्ति की आज़ादी का संबंध भारतीय संविधान में मौजूद मौलिक अधिकारों में से एक है। लेकिन हमारे देश में आज़ादी का साल 1947 से आगे बढ़ पाना बहुत मुश्किल साबित हुआ। आज सेडिशन लॉ इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। यहां तो सिर्फ सत्ताधारी ही बदले हैं उनका व्यवहार बदलता नज़र नहीं आ रहा है। अभिव्यक्ति की आज़ादी को कहां तक प्रतिबंधित किया जाए यह भी एक बड़ा सवाल है। प्रदर्शन कर अपनी मांगों को सरकार के सामने रखना अगर देशद्रोह की निशानी है तो सोशल मीडिया पर इन छात्रों को ट्रोल करने वालों के खिलाफ भी कार्रवाई होनी चाहिए।
और पढ़ें: नागरिकता संशोधन क़ानून : विरोधों के इन स्वरों ने लोकतंत्र में नयी जान फूंक दी है
अभिव्यक्ति की आज़ादी का संबंध भारतीय संविधान में मौजूद मौलिक अधिकारों में से एक है। लेकिन हमारे देश में आज़ादी का साल 1947 से आगे बढ़ पाना बहुत मुश्किल साबित हुआ।
भारत में इस साल हुए क्यों हुए छात्र प्रदर्शन ?
इस साल जनवरी महीने में जेएनयू में छात्रों का फीस बढ़ोतरी और ड्रेस कोड को लेकर छात्रों का प्रदर्शन देखने को मिला। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय प्रशासन की छात्र-विरोधी नीतियों के खिलाफ छात्रों के विरोध-प्रदर्शन को जेएनयू शिक्षक संघ का भी खूब समर्थन मिला। इस समर्थन का कारण था छात्रों पर बर्बरतापूर्वक की गई पुलिसिया कार्रवाई। इन प्रदर्शन में छात्रों की भीड़ को अलग-थलग करने के लिए पुलिस ने पानी की बौछारों के साथ-साथ बल का भी इस्तेमाल किया। ये बल इस्तेमाल सरकार का छात्रों के प्रति क्रूर रवैया दर्शाता है।
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में भी नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ जोरदार प्रदर्शन हुए जिसने हिंसक रूप अपना लिया। इसे लेकर उत्तर प्रदेश पुलिस और एएमयू छात्र संघ के बीच आरोप-प्रत्यारोप भी हुआ। छात्र वर्ग का इस संबंध में कहना था कि पुलिस की ओर से हिंसक कार्रवाई के जवाब में छात्रों ने हिंसा की जबकि पुलिस का कहना है कि छात्रों की ओर से हिंसक कार्रवाई के कारण पुलिस ने आंसू गैस के गोले छोड़े। इन प्रदर्शनों में करीब 1000 छात्रों के खिलाफ मामला दर्ज किया गया।
नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में जामिया में हुए शांतिपूर्ण प्रदर्शन के दौरान भी कुछ उपद्रवियों ने हिंसा के माध्यम से प्रदर्शन की छवि को मैला करने की कोशिश की उनका यह प्रयास इस हद तक सफल रहा कि जल्द ही प्रदर्शन करने वाले छात्र देश के दुश्मन बन गए। पुलिस की क्रूर कार्रवाई भी कई वीडियो के जरिए सामने आई लेकिन प्रदर्शन में अड़ंगा डालने वालों का ठीकरा भी जामिया के छात्रों पर फोड़ दिया गया। जिसके कारण कई छात्रों पर मामला दर्ज कर हिरासत में लिया गया।
और पढ़ें : जेएनयू में दमन का क़िस्सा हम सभी का हिस्सा है, जिसपर बोलना हम सभी के लिए ज़रूरी है!
सरकार का प्रदर्शनों के प्रति रवैया
सरकार का इन प्रदर्शनों के प्रति एक कड़ा रुख लोकतंत्र का गला घोंटने के समान है। इमरजेंसी के दौर में पला बढ़ा MISA ( maintenance of internal security act) अब बड़ा होकर UAPA ( unlawful activities prevention act) बन चुका है। UAPA कानून 1967 से बना रहा जबकि TADA और POTA जैसे कानून समाप्त कर दिए गए। इस प्रकार का राजद्रोह का कानून अब उससे कहीं ज्यादा व्यापक स्वरूप लेकर सख्ती के रास्ते पर चल पड़ा है। वैसे तो यह कानून भारत की संप्रभुता और एकता को खतरे में डालने वाली गतिविधियों को रोकने के उद्देश्य से बनाया गया था लेकिन इसमें मौजूद प्रावधान इसे सवालों के कटघरे में खड़ा करते है।
क्योंकि UAPA से तात्पर्य गैर-कानूनी गतिविधियों से है जो किसी व्यक्ति या संगठन से देश की क्षेत्रीय अखंडता और संप्रभुता को भंग करने वाली गतिविधियों को बढ़ावा देती है इसी के साथ किसी भी व्यक्ति को शक के आधार पर आतंकवादी घोषित किया जा सकता है। यह कानून संविधान के अनुच्छेद 19 में दिए गए अभिव्यक्ति की आज़ादी, शस्त्रों के बगैर इकट्ठा होने और संघ बनाने के अधिकार पर एक प्रकार से प्रतिबंध लगाता है। जाने कितने ही मानवाधिकार कार्यकर्ता, प्रदर्शन में शामिल हुए छात्रों को इस कानून के तहत हिरासत में ले लिया गया है। लोकतंत्र की दुहाई देने वाली सरकारें ऐसे कानूनों के माध्यम से अपने खिलाफ बुलंद हुई आवाज़ों को हमेशा दबाने का प्रयास करती है जिससे उनकी कुर्सी की गरिमा पर कोई ठेस न पहुंचे पर शायद वे अभी इस बात से भली-भांति वाकिफ नहीं है कि जब स्वतंत्रता की लड़ाई हुई तो उनमें प्रदर्शन करने वालों में से देश ने अपना नेता चुना फिर आपातकाल के दौरान जय प्रकाश नारायण और मोरारजी देसाई के नेतृत्व में प्रदर्शन हुए थे उनमें शामिल हुए नेता आज सत्ता में बैठे हैं। इन उदाहरणों से तो लगता है कि ये छात्र प्रदर्शन ही भविष्य को उसका नेता सौंपते हैं।
और पढ़ें : नागरिकता संशोधन कानून : हिंसा और दमन का ये दौर लोकतंत्र का संक्रमणकाल है
तस्वीर साभार : scroll.in
पंजाब केसरी दिल्ली समूह के साथ कार्यरत श्वेता गार्गी कॉलेज से पॉलिटिकल साइंस ऑनर्स में ग्रेजुएट है तथा जर्नलिज्म में पोस्ट ग्रेजुएशन कर चुकी हैं। घर और समाज में मौजूद विभेद के चलते उनका समावेशी नारीवाद की ओर झुकाव अधिक है। साथ ही उन्हें सामाजिक - आर्थिक - राजनैतिक और लैंगिक समानता से जुड़े विषयों पर लिखना बेहद पसंद है।