समाजकानून और नीति केंद्रीय बजट 2021-22 में किसानों, मज़दूरों और ग्रामीणों को क्या मिला?

केंद्रीय बजट 2021-22 में किसानों, मज़दूरों और ग्रामीणों को क्या मिला?

अभी तक कि स्थिति देखते हुए सरकार की कथनी और करनी में अंतर दिख रहा है। किसान हितैषी होने के दावे अब दावे भर लगने लगे हैं और सरकारी नीतियों को लेकर किसान सशंकित भी हैं।

एक ओर जहां दिल्ली की प्रमुख सीमाओं पर किसान तीन कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग के साथ डटे हुए हैं और प्रशासन द्वारा उन्हें दिल्ली में दाख़िल होने से रोकने की भरपूर कोशिश जारी है। इसी बीच भारत सरकार द्वारा वित्तीय वर्ष 2021-22 के लिए केंद्रीय बजट सदन में पेश किया गया। बजट पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है  ”इस बजट के हृदय में गांव और किसान शामिल है। यह बजट कृषि क्षेत्रक व किसानों की आय को मज़बूत करेगा।” हालांकि प्रधानमंत्री और किसानों की राय में ज़मीन-आसमान का अंतर है। बजट पर बात करते हुए जालंधर (पंजाब) के गांव के सीमांत किसान रेशम गिल कहते हैं ” इस बजट में किसानों के लिए कुछ भी नहीं है। सरकार अब भी कह रही है कि साल 2022-23 तक किसानों की आय दोगुनी हो जाएगी, हालांकि बजट में इसका कोई रोडमैप नहीं दिया गया है।”

भारतीय अर्थव्यवस्था की मौजूदा स्थिति पर नज़र डालें तो राजकोषीय घाटा (फिस्कल डेफिसिट) सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 9.5 फ़ीसद है। सरकार के लिए यह एक बड़ी चुनौती है और साल 2021-22 के केंद्रीय बजट में नई योजनाओं और नीतियों को शामिल करते हुए राज्य द्वारा इसे 6.8 फ़ीसद करने का लक्ष्य रखा गया है। अगर आंकड़ों पर गौर करें तो देश की अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर साल 2020 के शुरुआत से ही मंद थी और कोविड-19 महामारी के कारण लागू हुए लॉकडाउन से पहले ही इसकी गति साल 2011-12 के आर्थिक संकट से भी धीमी हो चुकी थी। बाद में, वैश्विक महामारी के कारण जब सब कुछ ठप पड़ गया था, तब यह संकट और भी अधिक गहरा हो गया। इसका प्रभाव सीधे तौर पर ग़रीबों और किसानों पर पड़ा।

रबी की फ़सलें खेतों में पड़ी थीं और बाज़ार बंद रहे। किसानों के पास आय का कोई अतिरिक्त साधन नहीं था, साथ ही भंडारण की उचित व्यवस्था न होने के कारण वे अपनी उपज स्थानीय साहूकारों को कम कीमतों पर बेचने को बाध्य हुए और इसमें उन्हें न के बराबर लाभ हुआ। अधिकतर मामलों में हुआ यह कि खेती में निवेश की गई लागत भी नहीं बच पाई। इसी दौरान, जब बाज़ार और मंडियां खुलनी शुरू हुईं और खरीफ़ की फ़सल तैयार होने वाली थी, केंद्र की बीजेपी सरकार ने तीन कृषि कानून पारित कर दिए जिनमें APMC ‘एग्रीकल्चरल प्रोड्यूस मार्केटिंग कमीटीज़’ यानी मंडियों को खत्म होने और न्यूनतम समर्थन मूल्य के सवाल को लेकर किसान आंदोलन करने लगे। ऐसे में इस बजट को लेकर किसानों, किसान समर्थकों और अर्थव्यवस्था के जानकारों की बहुत सारी अपेक्षाएं थीं। 

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यह मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के तीसरा बजट है, जिसको पेश करते हुए वित्त मंत्री निर्मल सीतारमन ने कहा ”हमारी सरकार किसानों के कल्याण के लिए प्रतिबद्ध है।” पिछले दो महीने से अधिक का समय बीत चुका है, दिल्ली की सीमाओं पर तीन कृषि कानूनों को रद्द किए जाने की मांग करते हुए किसान आंदोलन कर रहे हैं। ऐसे में सरकार द्वारा 18 महीनों के लिए कृषि कानूनों को रोकने और उनकी फसलों की ख़रीद के लिए कीमतों में इज़ाफ़ा करने की यह नीति कितनी कारगर साबित होती है, यह तो बाद में ही मालूम होगा। साथ ही सवाल यह भी है कि क्या किसान उस सरकार पर भरोसा कर पाएंगे, जो एक ओर तो उनसे वादे पर वादे करती जाती है, दूसरी ओर से कृषि कानून ले आती है। हालांकि, बजट में इन मुद्दों को शामिल करने का अर्थ यह हो सकता है कि ज़रूर ही सरकार ने किसानों को संकेत देना चाहा होगा।

अभी तक कि स्थिति देखते हुए सरकार की कथनी और करनी में अंतर दिख रहा है। किसान हितैषी होने के दावे अब दावे भर लगने लगे हैं और सरकारी नीतियों को लेकर किसान सशंकित भी हैं।

अब जानते हैं बजट 2021-22 में क्या है ?

इसके साथ ही बजट में वित्तीय वर्ष 2021-22  के लिए कृषि ऋण लक्ष्य 16.5 लाख करोड़ कर दिया गया है। यहां समझना जरूरी हो जाता है कि एग्रीकल्चरल क्रेडिट यानी कृषि ऋण क्या है। कृषि ऋण से अभिप्राय कृषि संबंधी लेनदेन के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले वित्तीय साधन अथवा माध्यम से है। इस प्रकार की सुविधा विशेष रूप से किसानों की ज़रूरी वित्तीय आवश्यकताओं के लिए सरकार द्वारा दी जाती हैं। उन्हें उपकरण (ट्रैक्टर, हल अन्य) , संयंत्र ( सिंचाई, बुवाई के माध्यम), फसल (बेहतरीन किस्म के बीज, पोषण तत्व) इत्यादि के लिए इस्तेमाल किया जाता है। किसानों को एकमुश्त राशि प्रदान करने के संबंध में यह एक अच्छा कदम हो सकता है। हालांकि भ्रष्टाचार और संबंधित अधिकारियों की ढिलाई के चलते अक्सर किसान सुविधाओं को प्राप्त नहीं कर पाते।

किसानों और ग्रामीणों की अलग-अलग ज़रूरतों के लिए तमाम सरकारी नीतियां भी बनाई हैं। उनमें ‘प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि’ (PM-KISAN), ‘राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम’ (NREGS) ‘प्रधानमंत्री आवास योजना’ व ‘प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना’ इत्यादि शामिल हैं। इन योजनाओं के माध्यम से ग्रामीणों के जीवन में संरचनागत बदलाव किए जाने का लक्ष्य है। इस साल इन योजनाओं के बजट आवंटन में भी बदलाव किए गए हैं। PM-KISAN यानी प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि के अंतर्गत ज़रूरतमंद परिवारों को साल में 6000 रुपए चार महीनों में तीन बराबर क़िस्तों में आवंटित किए जाते हैं।

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इसके बजट में इसमें भारी कटौती की गई है। पिछले साल 75 हज़ार करोड़ रुपए आवंटित किए गए थे, जिसे इसबार 65 हज़ार करोड़ कर दिया गया था। हालांकि पिछले कुछ समय से लगातार बढ़ते किसानों के प्रतिरोध के कारण बजट से पहले यह अनुमान लगाया जा रहा था कि इस राशि को बढ़ाया जा सकता है लेकिन इस साल भी 65 हज़ार करोड़ की राशि ही दी गई है। कम आवंटन के संबंध में यह कहा जा रहा है कि 2020-21 में कृषि मंत्रालय ने अपना पूरा बजट खर्च नहीं किया था, इसलिए संशोधित बजट में भी कम आवंटन हुआ और परिणामस्वरूप अगले वित्तीय वर्ष में भी कम व्यय किया जा रहा है। इसके अलावा नरेगा में 2021-22 के लिए 73 हज़ार करोड़ रुपए आवंटित किए गए हैं, यह 2020-21 के 61,500 करोड़ के मुक़ाबले 18 प्रतिशत अधिक है, लेकिन वर्तमान वित्तीय वर्ष (2020-21) के लिए प्रदान किए गए संशोधित आंकड़ों (Revised Estimates) से 34 फ़ीसद यानी 1,11,500 कम है।

पिछले साल कोरोना महामारी के फैलने के बाद महानगरों की फैक्टरियों में काम करने वाला मज़दूर पूरी तरह बेरोज़गार हो चुके थे, उनके पास खाने-जीने का कोई साधन नहीं था। किसी तरह संघर्ष करते हुए घर पहुंचे, जहां ‘नरेगा योजना’ उनके लिए सुरक्षा की तरह थी, इसने उन्हें काम दिलाया और आय भी। इस वित्तीय वर्ष में इस योजना ने तक़रीबन 324 करोड़ व्यक्ति-दिन का रोज़गार मुहैया कराया है, जो अब तक का सबसे ज़्यादा है। इस प्रकार, देश के ग़रीब व पिछड़े लोगों के लिए यह योजना मुश्किल के समय में खाने-जीने की गारंटी के रूप में काम करती है, ऐसे में, जब अभी भी आजीविका का संकट मौजूद है, ग्रामीण लोग शहरों में आने पर सहज नहीं हो पाए हैं और पूरी तरह से महामारी के डर से नहीं निकल पाए हैं, इस योजना को और भी अधिक मज़बूत किए जाने की ज़रूरत थी।

इसी क्रम में, प्रधानमंत्री आवास योजना जिसका लक्ष्य है कि ग्रामीण व ग़रीब लोगों को रहने के लिए आवास प्रदान किया जाए, उसमें 27,500 करोड़ रुपए दिए गए। पिछले वित्तीय वर्ष में भी यही राशि दी गई थी, हालांकि बाद में संशोधित आंकड़ों के बाद सरकार को लगा कि यह राशि कम है, इसलिए इसे बढ़ाकर 40 हज़ार 500 करोड़ कर दिया गया था। इसी संदर्भ में 2015 में किए गए  ‘सोशियो इकनोमिक कास्ट सेंसस’ की एक रिपोर्ट की रिपोर्ट देखें तो पता चलता है कि देशभर के करीब 17.9 करोड़ ग्रामीणों में से 13 प्रतिशत लोग अभी भी एक कमरे वाले कच्चे छप्पर अथवा झोपड़ी में रहते हैं। हालांकि 2011 की जनगणना के बाद सरकारी आंकड़े के अनुसार भी क़रीब 47.1 फ़ीसद ग्रामीणों के पास घर नहीं है, फिर भी योजनाओं को देखते हुए लगता नहीं है कि सरकारें इसे बड़े मुद्दे के रूप में देख रही हैं।

हालांकि सरकार ने ‘रूलर इन्फ्रास्ट्रक्चर फंड’ में बढ़ोत्तरी की है। इससे ग्रामीण क्षेत्रों में बुनियादी ढांचागत विकास कार्य किए जाएंगे, इसकी उम्मीद की जा सकती है। हालांकि पिछले वर्ष ग्रामीण जनता इतनी समस्याओं व आपदाओं से जूझ रही थी, इसके बावजूद भी कृषि मंत्रालय ने आवंटित बजट का पूरा उपभोग नहीं किया। स्थानीय स्तर पर इतनी समस्याएं झेलते हुए लोग सरकार से उम्मीद लगाए बैठे रहते हैं और नेता मीटिंग्स और चुनाव की तैयारी में अपनी व्यस्तता के कारण वह काम करना भूल जाते हैं, जिसके लिए वे चुने गए होते हैं। जहां तक सब्सिडी की बात है, इस बजट में यूरिया पर 58 हज़ार 768 करोड़ सब्सिडी दी गई है लेकिन यह पिछले साल के संशोधित अनुमान, जो कि 94 हज़ार 957 करोड़ था के मुकाबले कम है। वहीं पोषण आधारित तत्वों जैसे पोटाश इत्यादि की सब्सिडी भी घटाई गई है। बढ़ती महंगाई और ज़रूरतों के बीच साम्य बनाए रखने के लिए किसान पूरी तरह से फ़सल पर निर्भर होता है, ऐसे में खाद और पोषण तत्वों की सब्सिडी घटाना उनकी उत्पादन लागत को और अधिक बढाना होगा। किसान के लिए बोझ लगातार बढ़ता जा रहा है। ऐसे में सरकार जो यह दावा कर रही है कि यह बजट किसानों को ध्यान में रखकर बनाया गया है, उसमें थोड़ी भी सच्चाई नहीं मिलती।

इस साल के बजट में सरकार ने तमाम वायदे किए हैं। कहा गया है कि स्वामीनाथन रिपोर्ट पर ध्यान देने से लेकर उपज की लागत से डेढ़ गुनी कीमत पर फसल ख़रीदने और किसानों की आय दोगुनी की जाएगी, साथ ही कृषि फंड का इस्तेमाल कर मंडियों की स्थिति ठीक की जाएगी। अभी तक कि स्थिति देखते हुए सरकार की कथनी और करनी में अंतर दिख रहा है। किसान हितैषी होने के दावे अब दावे भर लगने लगे हैं और सरकारी नीतियों को लेकर किसान सशंकित भी हैं। हालांकि जिन राज्यों में चुनाव होने वाले हैं, उनके लिए कुछ बड़ी सौगातें भी पेश की गई है जैसे तमिलनाडु के लिए ‘मल्टी परपज़ सी-वीड प्रोजेक्ट और पश्चिम बंगाल और असम के बागानों में काम करने वाली महिलाओं व बच्चों के लिए 1000 करोड़ रुपए आवंटित किए गए हैं। इस बजट में कहीं न कहीं सरकार मंडियों और न्यूनतम समर्थन मूल्य की बात करती दिखती है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या सचमुच सरकार किसानों की समस्या समझ रही है या यह किसानों को भुलावा देने का एक तरीका मात्र है क्योंकि अगर सरकार सचमुच इन समस्याओं को समझती तो किसानी में बुनियादी सुधार का एजेंडा पेश करती, किसानों को सीधे तौर पर संबोधित किया जाता, जो 2021-22 वित्तीय वर्ष के केंद्रीय बजट में कहीं नहीं दिखता!

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