“लड़का हुआ है।” यही झूठ बोला गया था मेरी दादी से मेरे पैदा होते ही। ऐसा इसलिए क्योंकि एक और लड़की के पैदा होने से मेरे पापा की पूरी कमाई लुट जाती और समाज में वह मुंह दिखाने लायक नहीं रहते। पापा, यही सोचती थी न दादी? इसी डर से तुमने उन्हें नहीं बताया न कि लड़का पैदा हुई है या लड़की? जब उन्हें नर्स ने बताया लड़का नहीं लड़की हुई है तो उन्होंने जो छाती पीट-पीट कर वहां बवाल किया था वह आपको अच्छे से याद होगा। यह कुछ सालों बाद आपने ही मुझे बताया था जब मैंने आपसे पूछा था, “दादी मुझसे इतना चिढ़ती क्यों हैं।” मेरे पैदा होते ही मेरी दादी रो पड़ी और तीन दिनों तक उन्होंने खाना नहीं खाया था। पापा तीन भाइयों और एक बहनों में सबसे छोटे थे। उनके सभी भाई-बहनों को सिर्फ लड़के ही थे लेकिन मेरे पापा पर दो बेटियां बड़ा बोझ हो गई थी। दीदी के होने तक तो फिर भी ठीक था लेकिन मेरे होते ही जैसे पापा का जैसे सब कुछ लूट लिया गया हो। मेरे बाद जब दादी को पोता मिल गया तब जाकर उन्हें मेरी मां से कुछ शिकायतें कम हुईं पर पिता जी का दो बेटियों की वजह से सब लुट जाने का ताना कभी खत्म नहीं हुआ।
पापा आज जो भी लिख रही हूं वह पहली बार तो नहीं कहूंगी क्योंकि यह सब एक डायरी में लिखा जा चुका है। जब से होश संभाला है, जो कुछ महसूस करती गई लिखती गई। उसमें यह किस्सा सबसे पहले पन्ने के बाद लिखा है, क्योंकि पहले पन्ने पर डायरी न पढ़ने की कसम और मेरे मरने पर उसे पढ़ी जाने की हिदायत दी हुई है।पापा, मुझे तुमसे कभी इसकी शिकायत नहीं रही कि मेरे पैदा होने पर तुमने कुछ नहीं किया क्योंकि समझ सकती हूं आपकी मां के दुख के आगे आपकी ख़ुशी शायद बहुत छोटी रही होगी। पापा तुमने हमेशा हमें पितृसत्तात्मक समाज और मेरी दादी की सोच के विपरीत पाला-पोसा। जहां एक लड़की को लंबे बालों और सूट या फ्रॉक पहनाई जाती वहां तुमने मुझे पैन्ट-शर्ट खुद जाकर दिलाई और बाल भी हमेशा खुद ही कटवाए जाकर।
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छोटे बालों और पैंट-शर्ट पहनने वाली लड़कियां इस पितृसत्तात्मक समाज में हमेशा बुरी होती हैं
मुझे आज भी याद है वह किस्सा जब मां ने एक बार मुझे जबरदस्ती फ्रॉक पहनाकर तुम्हारी दुकान भेजा था और मुझे रोता हुआ देख कर घर आकर मम्मी को बहुत डांट लगाई थी। उसके बाद कभी भी मुझे मम्मी और तुमने आज तक तथाकथित लड़कियों के कपड़े नहीं पहनाए। वह तुम ही थे पापा जो सबसे लड़ जाया करते थे मेरे लिए, बाल छोटे और पैन्ट शर्ट पहनने पर। तुम्हीं ने मुझे सिखाया था की अपने हक के लिए हमेशा आवाज़ उठाना। याद है मुझे जब स्कूल जाते समय रोज़ एक लड़का परेशान करता था तो तुमने ले जाकर मुझे उसे मारने को कहा था और कहा था डरना नहीं है लड़ना है समाज की सोच से। जब तुम्हारी बाइक चुरा-चुरा कर चुपके से सीखना और फिर पहली बार तुम्हें लेकर बैठने पर कैसे पड़ोसी आंखें तरेरे बैठे थे कि लड़की को लड़कों की तरह रखता है यह आदमी। अब मोटरसाइकिल उससे चलवा कर उसके पीछे बैठा है। मां और तुमने जिस तरह मुझे जिस संघर्ष के साथ बड़ा किया है उसकी कल्पना करना भी मुश्किल है। तुमने और मां ने कभी हम तीनों भाई बहनों में भेदभाव नहीं किया। तुमने हम तीनों को इतना पढ़ाया जो शायद आज भी छोटी जगह से आने वाले लोगों के लिए एक मिसाल है। तुमने हमेशा कहा, करने दो बच्चों को अपने हिसाब से, जो पढ़ना चाहते हैं जो रास्ते चुनना चाहते हैं चुनने दो। तुमने और मां ने ही तो मुझे घर के छोटे पापा होने की उपाधि दी। आज अगर तुम्हारी छवि मुझमें है, पूरा खानदान, जानने वाले सभी लोग देखते हैं तो उसकी वजह यही है कि तुम ही हो।
“लड़का हुआ है।” यही झूठ बोला गया था मेरी दादी से मेरे पैदा होते ही। ऐसा इसलिए क्योंकि एक और लड़की के पैदा होने से मेरे पापा की पूरी कमाई लुट जाती और समाज में वह मुंह दिखाने लायक नहीं रहते।
समाज ने कपड़ों और बाल को लेकर ऐसी अवधारणा बना रखी है कि अगर एक लड़की है तो उसके बाल लंबे ही होने चाहिए और उसे सूट या साड़ी जैसा कुछ पहनना चाहिए। अगर लड़का है तो बाल छोटे होने चाहिए ,पैंट और शर्ट पहनने वाला होना चाहिए। लोगों की मानसिकता बस इसी के इर्द-गिर्द काम करती है। कॉलेज, स्कूल तक तो सब ठीक रहा ज्यादातर लड़कियों के बाल छोटे होते हैं, लेकिन धीरे-धीरे जैसे यूनिवर्सिटी से निकलने बाद जॉब में आई तो ये छोटे बाल और पैंट-शर्ट पहनने वाली लड़की को लोग बुरी, आवारा लड़की के रूप में देखने लगे। किसी लड़की के बाल छोटे होना और उसका पैंट-शर्ट पहनना, गाड़ी चलाना इस पितृसत्तात्मक समाज के मुंह पर तमाचा रहा है। ऑफिस में अक्सर मुझे लोगों ने कहा, अरे वो लड़की बड़ी आवारा, अल्हड़ है बाल छोटे हैं, पता नहीं उससे शादी कौन करेगा। समाज के ठेकेदारों को लड़की के बड़े होते ही उसकी शादी की चिंता बड़ी सताती है, जैसे सारा समाज का भार उन्ही के कंधो पर ही तो है।
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पापा के इतने व्यापक दृष्टिकोण के कारण ही मेरी मां ने उस समय नौकरी की जब लड़कियों को घर से निकलने से पहले सोचना पड़ता था। अक्सर लोगों के पिताओं को मैंने देखा है कि वह उनके अंडर-गारमेंट्स को लेकर इतना भावुक होते हैं जैसे उनके कपड़े बाहर खुले में फैला भर देने से उनकी मर्दानगी पर चोट लग जाएगी। पैड का का नाम ले लेना उनके सामने गुनाह हो जाता है। इन सब के इतर मैंने पापा को इस पितृसत्तात्मक सोच पर प्रहार करते हुए देखा। पापा, तुमने हम सबके सामने कई ऐसे उदाहारण पेश किए जो इस पितृसत्तात्मक समाज के मुंह पर तमाचा था। लेकिन फिर दीदी के शादी के सालों में पापा का नज़रिया, व्यक्तित्व बदलने लगा, हम बातों-बातों में गम्भीर लड़ाई कर बैठते थे। क्यों तुमने उस समय भी नहीं उस पितृसत्तात्मक समाज के मुंह पर तमाचा जड़ा जैसे हमेशा जड़ते आए थे? तुम क्यों बदल रहे थे पापा इस समाज के बाकी पिताओं की तरह? मैं यह समझ रही थी कि इस समाज से लड़ने के लिए कई ऐसे ही पिताओं की ज़रूरत है जो तुम्हारे जैसे हैं, तुम अकेले थे और फिर सामने भारी संख्या के तुमसे विपरीत लोग।
मुझे तुमसे शिकायत रहेगी कि क्यों तुमने दीदी की शादी के समय उनसे सलाह लेना बंद कर दिया। तुम जानते थे कि वह हमेशा से बहुत कम बोलती थी। जब भी कोई लड़के वाला कहता कि लड़की की साड़ी में फोटो चाहिए तो तुमने क्यों मना नहीं किया? समाज में दहेज़ को लेकर तुमने हमें इतने सारे भाषण दिए लेकिन दीदी की शादी के समय तुमने क्यों नहीं एक बार भी कहा कि दहेज़ के बिना शादी करेंगे? तुमने क्यों एक बार भी दीदी से नहीं पूछा की वह शादी के लिए तैयार हैं या नहीं? क्यों तुमने उसे समय देना जरूरी नहीं समझा और तैयारी के लिए। क्यों तुमने नहीं पूछा उससे कि और समय देना है पढा़ई को या शादी करनी है? क्यों समाज के उम्र के तय पैमाने के हिसाब से दीदी तुमको शादी के लिए ज्यादा उम्र की लगने लगी? क्यों तुमने दीदी से बात करना बंद किया जब भी उन रिश्तों से “ना” का जवाब आता? क्यों तुमने उस समय नहीं कहा, जब उससे पूछा गया कि उसे झाड़ू पोछा,खाना बनाना आता है या नहीं? क्यों तुम सिर्फ हंस दिए थे जब लड़केवालों ने कहा की चला-वला के देख लो लड़की चल लेती है सही से या नहीं? जब एक रिश्तेदार ने तुमसे कहा कि दीदी की फोटो और अच्छी तैयार होकर खिचावाने से उसे कोई रिजेक्ट नहीं करेगा तब तुमने दीदी की मर्ज़ी के बिना उनकी फोटो खिंचवाईई। तुम तो ये सब फालतू के काम समझते थे तो अब क्यों नहीं लग रहा था तुम्हें ये सब फालतू?
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मुझे उन सब चीजों के लिए तुमसे झगड़ना अंदर तक तोड़ रहा था। जिससे मैंने खुद के साथ हो रहे गलत पर आवाज़ उठाना सीखा है वह आज मुझे क्यों शांत कराता फिरता है। पापा ऐसा कुछ नहीं था, मैं बस चाहती थी तो दीदी की ख़ुशी, मुझे लगता था की वह तैयार नहीं है शादी के लिए लेकिन तुमसे किसी ने कह दिया था की अब उम्र हो गई है लड़की की शादी की। तुम्हें इससे पहले अपनी बिटिया में कभी कमियां नज़र नहीं आई थी लेकिन अचानक से तुम्हें उसका खाना न बनाना, काम न करना दिखने लगा। मुझे ये अचानक आए बदलाव से तकलीफ हो रही थी। पापा, तुमने जैसे हमेशा सारे कामों में हम सबकी राय और सहमति लेना जरूरी समझा, इसमें क्यों नही समझा? उस समय आपने क्यों नहीं कहा शादी-वादी होती रहेगी पहले उसे आत्मनिर्भर बनने दो। क्यों नहीं आप तब समझे शादी कोई ऐसा काम तो नहीं जिसे किया जाना इतना ज़रूरी है कि आप अपने बच्च्चे से उसकी मर्ज़ी नहीं, उसकी उम्र की चिंता करने लगे।
डियर पापा, मैं उन दिनों आपसे बहुत लड़ी और जब तक आपकी सोच इन सब पर बदल नहीं डाली। मैं नहीं मानी क्योंकि हार न मानना मैंने तुमसे ही सीखा है। तुम्हीं हमेशा सिखाते आए हो हार नहीं मानना है, हौसला नहीं तोड़ना है। मैं आत्मनिर्भर हूं तो मैं क्यों किसी की जिम्मेदारी बनूं। इस पितृसत्तात्मक समाज के खिलाफ मैं हमेशा लड़ती हुई आई हूं,और आगे भी लड़ती रहूंगी। आपसे भी, इस समाज से भी। मुझे पता है आप समझेंगे आगे भी। हमेशा जैसे आपने समझा है हमारी सारी बातों को। मैं इस पितृसत्तात्मक समाज से,उसकी सोच से हमेशा लडूंगी। आप लड़की को सिर्फ बच्चा जनने की मशीन नहीं समझ सकते।
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तस्वीर: श्रेया टिंगल फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए
उत्कृष्ट ! अंतिम पंक्ति ने दिल जीत लिया।सम्पूर्ण सार समाहित है इस एक पंक्ति में ही।👏👏
बहुत खूब ❤